बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

'लव-जेहाद' तो साम्प्रदायिकता से परे सारे संसार की सामाजिक समस्या है




     कुछ अपवादों को छोड़कर -दुनिया  के अधिकांस देशों में ,प्रायः सभी समाजों में ,सभी सभ्यताओं में ,सभी मजहबों-धर्मों में ,सभी जातियों -गोत्रों और बिरादरियों  में, लिंगानुपात -पुरुष बनाम नारी के बीच का असंतुलन- अब  अपने  चरम  पर  है। बढ़ती आबादी के बरक्स और पुरुषसत्तामक ढर्रे के कारण  स्त्री-पुरुष  के  अनुपात में  बेजा अंतर गुणात्मक रूप से बढ़ता ही जा रहा  है।   दुनिया के  समाजशास्त्री इस समस्या को   एक भयानक  सामाजिक  समस्या के रूप में  प्रस्तुत करने में असफल रहे  हैं। जो  मानवता  के हितेषी हैं ,शुभचिंतक  हैं, वे अवश्य  ही इस जेंडर -असंतुलन के निदान बाबत  -यूएनओ स्तर से लेकर अपने -अपने कार्यक्षेत्र  पर्यन्त -   निरंतर प्रयासरत हैं। किन्तु  इन सब  प्रयासों के वावजूद -भयानक  कुरीतियों ने ,पाश्चात्य सभ्यताओं के संघर्ष की   युद्धाग्नि ने ,इस गंभीर बीमारी को वैश्विक बना डाला है।  भारत में तो यह समस्या लव-जिहाद के नाम से राजनीति  और समाज में  साम्प्रदायिक संघर्ष का ईधन बन चुकी है।  भारत में इस आग को  हवा देने के  लिए  हिन्दुत्वादी जड़ता ,उंच-नीच ,छुआछूत ,आर्थिक असमानता और  अराजकतावादी  आतंक वाद  तो जिम्मेदार है ही किन्तु इस समस्या को ज्वालामुखी बनाने में इस्लामिक  आतंकियों का भी कम योगदान नहीं है।  हिन्दुओं को तो फिर भी अनेक सामाजिक -कानूनी बंदिशें हैं किन्तु  इस्लामिक जगत में इस समस्या पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है।
                                             चाहे वे 'आईएसआईएस' के लड़ाके  हों, चाहे वे 'बोकुहरम'  के खूरेंजी हों ,चाहे वे 'तालिवानी'  हों ,चाहे वे 'अल-कायदा' वाले हों या चाहे वे 'आईएम' या 'सिमी' के ही आतंकी ही  क्यों ने हों -सभी आतंकियों को एक बन्दुक और एक  अदद  औरत  तो अवश्य ही  चाहिए। चूँकि इस्लामिक अमीरों  में पहले से ही -एक -एक की चार-चार- बीबियों के होने   का चलन अभी भी बरकरार   है , चूँकि इस्लामिक सभ्यता में -अशिक्षा,पर्दानशीनी , शारीरिक दोर्बल्यता  और परावलंबन  का असर -पुरुषों के सापेक्ष  महिलाओं और बच्चियों  में  सर्वाधिक है।  इसीलिये  जब कोई  धनिक -   मुसलमान,नेता, आतंकवादी  या अभिनेता -अपनी हवश की खातिर अपने मजहब और अपनी  सभ्यता के  अंतर्गत कोई  काबिल 'जीवन संगनी'  की तलाश  करता है  तो वह पाता  है की आतंकी तो सभी जबान लड़कियों और मुस्लिम महिलाओं को पहले ही 'छाँट ' चुके हैं। इसलिए बाकी के मुस्लिमों को - अपने समाज में चारों ओर शेष बची हुईं  -बेहद डरी   हुईं,पर्दानशीन ,कुपोषित,अपढ़ - और अनाकर्षक लडकियाँ  या औरतें दिखाई देतीं है।  अरब देशों  के , यूएई या गल्फ के शेख सुलतान इसी वजह से न केवल भारत ,अपितु  बांगला देश ,पाकिस्तान ,नेपाल ,श्रीलंका और थाईलैंड या अन्य गरीब राष्ट्रों  की निर्धन और कम उम्र की लड़कियाँ को -  भारी  दामों में खरीद कर अपने 'हरम' में  डाल  देते  हैं। इस घ्रणित  खरीद -खरीद फरोख्त में   न तो पवित्र  'लव -जिहाद' है और न ही साम्प्रदायिक कदाचार। वेशक  यह इस्लाम के उसूलों   के खिलाफ अवश्य है। यह  तो केवल देह  व्यापार ही  है। जिन धनी 'शेखों' के पास  दिनार है। दिरहम है ,डॉलर है या पेट्रोलियम  है वे  किसी भी  जाति  मजहब की टीन  एजर्स को अपनी हवश का शिकार बना लिया करते हैं।
            भारतीय उपमहादीप में जब कोई जन्मना मुस्लिम [आचरण से नहीं ] सैयद मोदी,नबाब पटौदी ,आमेर खान,अरबाज खान,शाहरुख़ खान ,सैफ अली खान ,अमजद अली खान ,सलीम खान ,या मुजफ्फर अली -अपने मुस्लिम समाज में अनुकूल जीवन संगनी की तलाश करता है तो  उसको यह देखकर ग्लानि होती है कि  उसके समाज में उसके समकक्ष या अनुकूल कोई लड़की या औरत  नहीं है। वह अपने समाज की  किसी मैली  कुचैली  -असहाय -अबला परित्यक्ता -मुस्लिम नारी   को लाइफ पार्टनर बनाने के बजाय अन्य समाजों -हिन्दू -ईसाई ,सिखों या पारसी  इत्यादि समाजों की लड़कियों की  ओर अपनी ललचाई निगाहें डालता है। हिन्दू समाज  के उच्च माध्यम वर्ग की कुछ लडकियां इनके जाल में फंसकर  'तार शाहदेव' बन जाया करती हैं।   
                         इन वैश्विक उग्रवादियों  का अपने पवित्र मजहब इस्लाम में कितना यकीन है ?यह तो इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि  उनके मार्फत  जाल में फंसाई  गईं  कितनी  हिन्दू लडकियां -' दाऊद की या अबु सालेम  के हरम की शोभा बढाती रहीं हैं। इन बदमाशों की  तीन-तीन मुसलमान बीबियाँ पहले से ही  हैं।  उन्हें  एक्स्ट्रा - दो-दो हिन्दू औरतें और चाहिए।  सीरिया से लेकर सूडान तक और इंडोनेशिया से लेकर इराक तक   आतंकियों ने 'हरम' स्थापित कर रखे हैं। आस्ट्रिया ,ब्रिटेन तथा  चेचन्या  तक से लड़कियों को आतंकी हरम  का ओजार  बनाया जा रहा है। दुनिया  की हे हर  जात -मजहब की लड़कियां  इनके हरम में  देखी  जा सकतीं हैं  जब  इस्लामिक उग्रवादियों को एक-एक भी नहीं मिल पा रही  है। तो आस्ट्रिया, से लेकर इंग्लैंड तक और चेचन्या से लेकर भारत तक एक ही आवाज गूँज रही है की "गैर इस्लामिक लड़कियों को हथियाओ" उन्हें मुसला,मान बनाओ.! चूँकि गैर इस्लामिक समाजों में भी पहले  से ही नारी की स्थति ठीक नहीं है और भारत में तो लोक सभा चुनाव से लेकर मुनिसिपल्टी के चुनाव तक -  साम्प्रदायिकता के भरपूर दोहन  का  नाटक  देखा जा सकता है।  विभिन्न धर्मों-मजहबों - समाजों के टकराव ने नारी पात्र को  हासिये पर धकेल दिया है। सभ्यताओं के संघर्ष से  उत्पन्न मजहबी उन्माद  ने ' नारी मात्र' को भी संघर्ष का असलाह बना डाला है। चूँकि साम्प्रदायिकता किंचित  अन्योन्याश्रित हुआ करती है.अतएव मध्य एशिया या  भारतीय सीमाओं के पार नारी मात्र के खिलाफ जो भी हरकत होती है  उसका असर - प्रतिक्रिया  भारत में भी   होना स्वाभाविक  है।
                                                  भारत  में लोकतांत्रिक ताना -बाना मजबूत है , भारतीय न्यायपालिका भी आत्मविश्वाश से लबरेज है ,  भारतीय मीडिया भी कमोवेश स्वतंत्र है ,पुरातन बेड़ियों में जकड़ा हुआ भारतीय  समाज भी विज्ञान और प्रगतिशील वाम-जनवादी आन्दोलनों के प्रकाश में धीरे-धीरे मानसिक गुलामी से मुक्त होने को  अग्रसर  है। इन  सकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से भारतीय जन - मानस   को  लिंगानुपात के विक्षोभ का एहसास अवश्य  हुआ  है।  भारत की ये सकारात्मक शक्तियां और जनता का  प्रबुद्ध वर्ग -एक  ओर  तो कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ  संघर्ष  के लिए   कटिबद्ध है तो दूसरी ओर सभी समाजों में स्त्री शिक्षा के लिए कृतसंकल्पित है।  यह दुर्भाग्य ही है कि आधुनिक सूचना और संचार क्रांति  से मानवता का भला करने के बजाय कुछ युवा लड़के -लड़कियां गुमराह होकर देश में 'लव-जेहाद' नामक हौआ पैदा करने में लगे हैं।
                       
                                  चूँकि  भारत के पास धर्मनिपेक्षता  का परम पावन सूत्र है।  चूँकि भारत में गंगा-जमुनी तहजीव की   शानदार परम्परा विकसित की जा चुकी  है।  चूँकि भारत एक बहुभाषी-बहुधर्मी-बहुवर्णी और बहुपंथी पुष्पमाला  को  धारण करने वाला प्राकृतिक रूप से सम्पन्न राष्ट्र है। इसलिए यह कदापि शोभनीय नहीं है कि किसी शक्तिशाली समाज द्वारा  भारत के  किसी  अन्य  समाज को  किंचित भी आहत किया जाए।  वेशक यहाँ  अल्पसंख्यक  समाजों को पूरा सम्मान प्राप्त है। उनके दोहरे  अधिकार[एक तो उनके मजहब का अधिकार -पर्सनल ला इत्यादि  -दूसरा भारतीय  संविधान के प्रदत्त अधिकार]  भी  यहां  सुरक्षित हैं। किन्तु यह सब बहुसंख्यक समाज के त्याग और बलिदान की  कीमत  पर  कदापि आहरत नहीं किया  जाना चाहिए। भारत   में इन दिनों यह एक परम्परा  ही  बन चुकी है कि किसी भी साम्प्रदायिक टकराव या छेड़छाड़ की स्थिति में -  अल्पसंख्यकों को सहलाने के लिए बहुसंख्यक समाज  के  एक हिस्से को बिना जाँचे -परखे दोषी ठहरा दिया जाता है। इसी का नतीजा है की देश में पहली बार  बहुसंख्यक वर्ग के साम्प्र्दायिकतावादी  नेतत्व को प्रचंड बहुमत प्राप्त हो  गया।  

         श्रीराम तिवारी

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