भारत के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की [निर्वासित] क्रांतिकारी छात्रा मलाला यूसुफ जई को साझा नोबल पुरस्कार मिलने पर इस पुरस्कार की सार्थकता और प्रासंगिकता बढ़ी है। इन बेहतरीन शख्सियतों को सम्मानित कर नोबल कमिटी धन्य हुई है। नोबल कमिटी की टिप्पणी के इन अल्फाजों - "एक हिन्दू और एक मुस्लिम ,एक भारतीय और एक पाकिस्तानी का शिक्षा के लिए और चरमपंथ के खिलाफ साझा संघर्ष में शामिल होना एक अति महत्वपूर्ण विंदू है " -पर दुनिया भर में और खास तौर से साम्प्रदायिक और कटटरपंथी कतारों में बड़ी बैचेनी है। किन्तु कुछ प्रगतिशील उत्साहीलाल भी नोबल कमिटी की इस शब्दाबली में किसी 'चालाकी' का सन्देश ढूंढ़ रहे हैं। जबकि नोबल कमिटी ने अमेरिकन लाबी को धता बताते हुए भारत -पाकिस्तान जैसे तीसरी दुनिया के उन दो देशों को इस पुरस्कार के लिए चुना -जो जंग के मुहाने पर खड़े हैं। पुरस्कार के बहाने ही सही भारत -पाकिस्तान को उनकी पुरातन साझी विरासत की ओर ध्यानाकर्षण किया है। खास तौर से पाकिस्तान को एक संदेश अवश्य दिया गया है कि उसका मजहबी और साम्प्रदायिक आतंकवाद बहुत ही खतरनाक रूप धारण कर चूका है। मलाला को भी इसी वजह से पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। चूँकि पाकिस्तान के किसी शख्स को नोबल देने से पहले भारत को भी साधना बहुत जरुरी था. इसलिए नोबल कमिटी ने दोनों पड़ोसियों के एक-एक बेहतरीन 'व्यक्तित्व को एक साथ नोल्बल शांति पुरस्कार के लिए चुना। इस संयुकत पुरस्कार के बहाने नोबल कमिटी ने यह सन्देश दिया है की 'सभ्यताओं के संघर्ष' के इस दौर में इस भयानक अमानवीय नर संहार का प्रतिरोध शिद्द्त से करना जरुरी हो गया है।
श्रीराम तिवारी
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