संसार की सभी सभ्यताओं में -धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों में अंतर्निहित कुछ ऐंसे तत्व भी है जो देश और दुनिया में अमन -भाईचारा और मानवीय चारित्रिक उत्कृष्टता की बेहतरीन परम्पराएँ पेश करते हैं। भारत तो चूँकि त्यौहारों का ही देश है , इसलिए यहां की सभी सामाजिक ,सांस्कृतिक और लौकिक धाराओं के संगम पर अनेकता में एकता ही भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। इन त्यौहारों के बरक्स - समाज और राष्ट्र की कोशिश रहती है कि देश के विधान और परम्पराओं में कदाचित टकराव न हो ! इस बार चूँकि विजयादशमी याने दशहरे पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 'सर संघ चालक ' श्री मोहनराव जी भागवत ने नागपुर से जो 'बौद्धिक' दिया -उस का डी डी -वन पर प्रसारण विवाद का विषय बन चूका है। इस संदर्भ में आलोचना के स्वर सिर्फ इसलिए अमान्य नहीं कर दिए जाने चाहिए कि ये तो गैर भाजपाई या 'संघ' विरोधियों की पुरानी आदत है। बल्कि इस संदर्भ में आलोचना इसलिए तर्कसंगत नहीं है कि 'संघ' तो सत्ता का ही प्रमुख केंद्र है। सत्ता में उसकी अनुषंगी भाजपा ही विराजमान है। चूँकि जनता ने यह सब समझते हुए ही भाजपा और मोदीजी को भारी बहुमत से केंद्र सरकार में बिठाया है कि'संघ' की यही इच्छा है। जनता से कुछ भी तो छिपा नहीं है। इसलिए जनता को ही यह तय करने दिया जाए कि संवैधानिक सत्ता केन्द्रों को या साम्प्रदायिक सांस्कृतिक संगठनों को आइन्दा सत्ता में कितना भाव दिया जाए। यदि अल्पसंख्यक वर्ग को राजनीति का निरंतर एक महत्वपूर्ण सोपान बनाये रखा जा सकता है ,तो बहुसंख्यक वर्ग के राजनीतिकरण पर प्रश्न चिन्ह लगाने का हमें हक कैसे मिल सकता है ? इसी तरह जब यूपीए के शासनकाल में सोनियाजी बाज मर्तवा न केवल सरकारी माध्यमों पर बल्कि सरकारी कामकाज पर भी अपनी पकड़ रखतीं थी। कुछ महत्वपूर्ण फाइलों पर तो रावर्ट वाड्रा की भी भूमिका संदिघ्ध हुआ करती थी, आपातकाल में -संजय गांधी के तो क्या कहने बेताज बादशाह वही कहे जा सकते थे। इन सबकी तुलना में वर्तमान सत्तारूढ़ भाजपा के एक अदद साधू स्वभाव वाले निस्वार्थ सहयोगी और हितेषी 'मोहन भागवत ' की क्या विसात ? केवल सरकारी मीडिया पर सम्बोधन मात्र से , केवल नमोगान या मोदी जी की तारीफ़ मात्र से ही बेचारे मुफ्त में बदनाम हो रहे हैं।
दरसल संघ या संघ परिवार के बारे में अभी तलक आम धारणा यही रही है कि 'संघ' एक ऐसा साम्प्रदायिक - सांस्कृतिक - सामाजिक संगठन है जो परदे के पीछे से 'शुध्दतम'राजनीति करने में निष्णांत है। संघ एक ऐंसा महासूर्य है जिसके चारों-ओर या इर्द-गिर्द- भाजपा, वी एच पी ,बजरंग दल ,हिन्दू मुन्नानी , अखिल भारतीय विद्द्यार्थी परिषद ,भारतीय मजदूर संघ , भारतीय जनता युवा मोर्चा ,भारत स्वाभिमान , स्वामी बाबा - रामदेव , अन्ना हजारे ,लता मंगेशकर , श्री श्री रविशंकर ,प्रमोद मुतालिक , शिवसेना तथा तमाम भगवा ब्रिगेड वाले -भ्रमण किया करते हैं। मेरा ख्याल था कि 'संघ' के प्रमुख को पोप के जैसा न सही ,किसी इस्लामिक खलीफा जैसा न सही किन्तु किसी भारतीय 'खाप' पंचायत के मुखिया जैसा याने - स्वर्गीय महेन्द्रसिंह टिकेत के जैसा तो आदर -सम्मान या रुतवा हासिल होता ही होगा ! जिस तरह गांधी जी कांग्रेस के चवन्नी मेंबर न होते हुए भी ,सत्ता में न होते हुए भी कांग्रेस के लिए बहुत कुछ थे या पंडित नेहरू के लिए और तत्कालीन सरकार के लिए सब कुछ थे, उसी तरह की कुछ मुझे यह गलतफहमी थी कि भाजपा के लिए ,मोदी जीके लिए ,और मोदी सरकार के लिए 'संघ प्रमुख' - मोहनराव भागवत परम आदरणीय हैं और वंदनीय तो अवश्य ही होंगे। किन्तु आज जब भागवत जी ने डी डी वन पर मोदी चालीसा पढ़ा तो मुझे न केवल भागवत जी पर दया आई बल्कि उन पर भी दया आई जो संघ को एक बहुत खूंखार - बिकट दुर्दांत दैत्य जैसा सिद्ध करने में लगे रहते हैं। भागवत जी के मुखारविंद से अतिशय मोदी गुणगान सुनकर ही पता चला कि नाहक ही संघ को बदनाम किया जाता रहा है। खोदा पहाड़ निकले मोदी !आलोचकों को ग्लानि हुई कि कहाँ संघ जैसा शुद्ध शाकाहारी हिरण और कहाँ सिमी,आईएसएस ,अलकायदा जैसे खूंखार आतंकी संगठन ?इनकी क्या तुलना ? आज विजयादशमी के पावन पर्व पर ही मालूम पड़ा कि हिंदी- हिन्दू-हिंदुत्व - और हिन्दुस्तान के साक्षात अवतार तो केवल मोदी जी हैं। मोदी जी ही अब 'महासूर्य' हैं। संघ तो महज उनको सत्ता में पहुंचाने का एक साधन मात्र ही है। माना की संघ भी खूखार ही है और मुझे गलतफहमी हुई है तब तो मुझे मोदी जी का मुरीद हो जाना चाहिए। क्योंकि यदि मोदी जी ने संघ रुपी 'बाघ' को नाथ लिया है तो इसमें बुरा क्या है ? आलोचकों को भी थोड़ी संजीदगी और थोड़ा धैर्य से सोचना चाहिए कि 'संघ' जैसे गैरसंवैधानिक सत्ता केन्द्रों को यदि मोदी जी भाव नहीं दे रहे हैं। तभी तो 'संघ परिवार ' में भी बैचेनी है। तभी तो जो कभी 'संघम शरणम गच्छामि हुआ करते थे वे अब सभी मोदी शरणम गच्छामि हो रहे हैं। किन्तु इसमें अलोकतांत्रिक क्या है ?शायद ऐंसा इसलिए संभव हो रहा है कि मोदी जी वरिष्ठों को काबू में करना जानते हैं। यही वजह है की न केवल भाजपा ,न केवल संघ परिवार ,न केवल एनडीए ,न केवल अमेरिका के अप्रवासी भारतीय ,न केवल मोहनराव भागवत बल्कि अब तो दिग्गी राजा ,शशि थरूर और मुलायमसिंह की बहु के भी विचार बदल रहे हैं। फिल्बक्त तो लोग मोदी का अंध विरोध करने वालों को ही पसंद नहीं करते। वेशक राज्यों के चुनावों में उनका उतना असर नहीं हो।इसीलिये शायद किसी अन्य विकल्प के आभाव में भागवत जी भी 'नमोगान' में ही कुशलता का अनुभव कर रहे हैं। मोदी जी ने जिस तरह अटलजी ,आडवाणी जी ,मुरली मनोहर जी ,सिन्हाजी और कई अन्य वरिष्ठों को 'नाथ' लिया है । शायद उसी तरह भागवत जी को भी उन्होंने साध लिया है। इसीलिये बहुत संभव है कि किसी वैयक्तिक मजबूरी में ही सही भागवत जी को अपने शिष्य तुल्य 'नमो' की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं हो ! वेशक यह कोई बहुत अक्षम्य अपराध तो नहीं है ! जहाँ तक प्रसार भारती से प्रसारण का सवाल है तो इस आरोप में कोई दम नहीं। कांग्रेस के लम्बे शासनकाल में भी बार-बार और अन्य मोर्चों के दौर में भी कई बार सरकारी तंत्र का बेजा दुरूपयोग किया जाता रहा है। विगत सरकारों के दौरान -तमाम घोटालेबाज नेता रात -दिन सरकारी चेनल्स और प्रसार भारती की ऐंसी - तंइसी करते रहे हैं। जब डी -डी भारती या सरकारी माध्यमों पर रेपिस्ट , हत्यारे और आतंकवादी -अलगाववादी भी अपनी बात रख सकते हैं। तो 'संघ' प्रमुख के सम्बोधन पर इतना ववाल क्यों ? यदि संघ वास्तव में केवल सांस्कृतिक संगठन ही है तब तो और भी कोई हर्ज नहीं। यदि संघ परदे के पीछे से सत्ता की राजनीति करता है तो वह उसका ही हिस्सा हुआ तब उसका उपभोग करने में उसके लिए बुरा क्या है। क्या राजनीति से परे होने का ठेका केवल संघ ने ही ले रखा है। भारत में वामपंथ के अलावा देश में कोई भी सच्चा धर्मनिरपेक्ष या लोकतांत्रिक नहीं है। बाकी के काग्रेस और अन्य जातिवादी -सम्प्रदायवादी पार्टियों की चूंको के सामने मोहन भागवत जी की तुलना की जाए तो उनका विजयदशमी का डी -डी वन पर सम्बोधन और प्रसारण कोई भारी अनर्थ तो अवश्य ही नहीं है।
श्रीराम तिवारी
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