गुरुवार, 16 अगस्त 2018

पूँजी की बढ़ती उदर भूँख.

माल गपागप खा रये चोटटे,कसर नहीं हैवानी में।
मंद मंद मुस्काए हुक्मराँ, गई भैंस जब पानी में ।।
सुरा सुंदरी में खोये हैं,सत्ता की गुड़ धानी में !
जनगण मन को मूर्ख बनाते,शासक गण शैतानी में।।
लोकतंत्र के चारों खम्बे, पथ विचलित नादानी में।
लुटिया डूबी अर्थतंत्र की,जनता है हैरानी में।।
व्यथित किसान भूँख से मरते,क़र्ज़ की खींचातानी में।
कारपोरेट पूँजी की बढ़ती उदर भूँख,जनता की नादानी में।।
निर्धन निबल लड़ें आपस में,जाति धर्म की घानी में।
सिस्टम अविरल जुटा हुआ है,काली कारस्तानी में।।
बलिदानों की गाथा हमने, पढ़ी थी खूब जवानी में।
संघर्षों की सही दिशा है ,भगतसिंह की वाणी में।।
श्रीराम तिवारी

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