गुरुवार, 2 अगस्त 2018

अतिरिक्त मूल्य के रहस्य

  • पूंजीवादी व्यवस्था में मात्र सर्वहारा अर्थात शारीरिक बौद्धिक मेहनत करने वाले औद्योगिक मजदूरों का ही नहीं बल्कि किसानों,खेतिहर मजदूरों,कर्मचारियों और छोटे दुकानदारों का अर्थात हर तरह की मेहनतकश जनता का भी शोषण होता है।किसान की तो लागत ही नहीं निकल पाती।वह कर्ज दर कर्ज का शिकार होता रहता है।
    यह जनता दो तरह से शोषित होती है।एक तो उत्पादक के रूप में ,दूसरे उपभोक्ता के रूप में शोषण के ये दोनों रूप अतिरिक्त मूल्य से जुड़े हुए हैं।मालिक मजदूर को जो मजदूरी देता है,वह पहले से चली आ रही कीमत पर उसे जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम उपभोग सामग्री खरीदने के लिए दी जाती है।किन्तु उतने ही रुपए में जो सामग्री उसे पहले मिल जाती थी अब उसे नहीं मिलती।उसे प्रायः बढ़ी हुई कीमत चुकानी पड़ती है।आज के वैश्वीकरण के युग में तो यह रोज रोज की बात हो गई है।पहले यदि आज कीमत बढ़ी है तो कल उसके कम हो जाने की भी आशा रहती थी।किन्तु आज नहीं।तेल की कीमत घटने के बाद भी आम आदमी को कोई राहत नहीं मिलती।इसका विरोध करने की अगुआई सर्वहारा ही करता है।मिलो कारखानों,बैंकों,बीमा कंपनी के लोग आगे आते हैं।
    शिक्षक,वकील जो कभी अगुआई करते थे अब उनका समर्थन करते हैं।राज्य जो हमारा राज्य,जनता का राज्य कहा जाता है,उसका विरोध करता है।हमारी न्यायपालिका में अनपढ़ लोग नहीं है।वह अतिरिक्त मूल्य के रहस्य से अच्छी तरह परिचित हैं।वह जानते हैं कि मालिक के स्वामित्व में जो कुछ भी है वह सर्वहारा और आम जनता के शोषण का प्रतिफल है।किन्तु वह भी सर्वहारा के हड़ताल और दूसरे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर न्यायिक रोक लगाती है।काम नहीं तो वेतन नहीं का फरमान सरकार और न्याय के मंदिर द्वारा जारी होता है।वह ,,संविधान,शांति और कानून,,की रक्षा के नाम पर।इस तरह राज्य का भी पूंजीवादी चरित्र खुल कर सामने आ जाता है।

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