एक बार आचार्य महीधर अस्वस्थ हो गए। उनके आश्रम के शिष्य अनुष्ठान करने प्रयाग गए थे। कोई औषधि लाने वाला नहीं था। आचार्य रोग की प्रर्बलता और आलस्य के कारण आश्रम से बाहर जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने सोचा कि भगवान कृष्ण से प्रार्थना की जाए, वे अवश्य ही ठीक कर देंगे।
आचार्य ने काठ की एक मूर्ति का मनोहारी श्रृंगार किया और विधिवत उपासना करने के बाद प्रार्थना की कि हे कृष्ण, आप मुझे स्वस्थ कर दें। भगवान ने तथास्तु कहा और आचार्य ठीक हो गए।
कुछ समय बीता। आचार्य फिर से बीमार पड़ गए। इस बार भी उन्होंने पहले की ही तरह काठ की मूर्ति का श्रृंगार किया और पूजा करने के बाद प्रार्थना की कि हे कृष्ण! आप मुझे स्वस्थ कर दें। इस बार प्रार्थना सुन कर श्रीकृष्ण स्वयं ही प्रकट हो गए। और नाराज हो कर कहा कि
" जितना समय और श्रम मूर्ति को सजाने और पूजा-अर्चना करने में लगाया,उससे कम परिश्रम में वैद्य के पास जाया जा सकता था ! आइंदा पूजा पाठ उपासना कर फिर से मुझे परेशान किया,तो मैं तुम्हें वहीं बैकुण्ठ या (गोलोकधाम) बुला लूँगा! फिर तुम्हारी यह बार बार बीमार होने वाली भौतिक देह यहीं छूट जाएगी!"
"न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी"
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