बहुत बदगुमानी महक रही है इन दिनों राजनीति की वासंती फिजाओं में । सीमाओं पर बारूदी गंध भी बढ़ रही है। फासिज्म का उदार चेहरा अब बिकराल होने लगा है। समस्त राष्ट्र एक ही मुठ्ठी में समा गया है। यह किसी से छिपा नहीं है। राजनीतिक खुरचन याने दिल्ली राज्य की मामूली सी सत्ता के लिए बिकट बेहयाई का दौर है।
चाल -चरित्र - चेहरा जैसें आकर्षक शब्द अब शब्दकोश में भी पनाह मांग रहे हैं। जिन्हे अपनी नीति -सिद्धांत या पुरषार्थ पर भरोसा नहीं वे अब सुन्दर किन्तु खिलंदड़ सबलाओं को जरा ज्यादा ही अपने विजय रथ पर शिखंडी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। नाकारा और दलबदलुओं को गले लगाया जा रहा है . अतीत में जिन्होंने सत्तू बांधकर कांग्रेस मुक्त भारत का या किसी खास मकसद का अभियान चला रखा था वे किसी अज्ञात कोप भवन में उसाँसे भर रहे हैं। टीवी ,फिल्म ,व्यापार ,व्यवसाय , विज्ञापन ,मॉडलिंग चिकित्सा या एयर होस्टेस ही नहीं अब तो खास तौर से राजनीति के मंच पर प्रमुखता से नारी सौंदर्य के बलबूते सत्ता हथियाने का चलन हो चला है। वेशक साहित्य में भी सत्ता पुरुष्कृत निरीह प्राणी अब 'नारीवादी विमर्श' से हटकर उसकी देहयष्टि के बरक्स रीतिकालीन हो रहे है।
शासक वर्ग जब नीतियों या कार्यक्रमों से जन समर्थन नहीं जुटा पाता तो वह फ्यूहरर की भाँति 'प्रहसन' अभिनीत कर अपना लक्ष्य साधने लगता है। चूँकि नारी पात्र तो इस काम में नैसर्गिक रूप से निष्णांत है। इसलिए शासक वर्ग इन दिनों पूँजी की ताकत से बाजारीकरण वाले समाज की हर बिकाऊ चीज की तरह नारी पात्रों को भी प्रमुखता से रंगमंच पर पेश कर रहा है। साहित्य,कला और संगीत जब 'आम आदमी' के लिए न होकर खास लोगों के लिए होने लग जाए ,नारी सौंदर्य जब सत्ता की क्रीत दासी बन जाए तो राष्ट्र की धमनियों में लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की त्रिवेणी नहीं बहती। राष्ट्र के भृष्ट अवयवों में फासिज्म का कीड़ा कुलबुलाने लगता है।
यदि किसी लेखक ,साहित्यकार ,कवि या कलाकार को देश या दुनिया में यह परिदृश्य नहीं दिखता तो वह 'स्वान्तःसुखाय' के स्वप्नलोक में सद्गति के लिए अभिशप्त है। क्रांतिकारियों की नजर में तो वह नितांत दया का पात्र है। जो पतनशील अधोगामी व्यवस्था को सुधारने की या उसमें पैबंद लगाने की बात करता है वह साहित्यकार नहीं बल्कि भड़भूँजा है। उसे तो साइकल पंचर की दूकान ,कपडे रफू करने की दूकान खोल लेना चाहिए । बकौल गुलजार ' पिलंबर हो जाना चाहिए ! दरसल जो शाब्दिक - अभिव्यंजना साहित्य या कला के तूणीर से व्यवस्था के मर्म को भेद डाले उसे ही वास्तविक जनोन्मुखी या क्रांतिकारी सृजन कहा जा सकता है। वही राष्ट्र का नवनिर्माण करेगा। वही प्रगतिशील -जनवादी साहित्य ही राष्ट्र के भूत -भविष्य और वर्तमान का साक्षी बन सकता है।
सृजनात्मक विचलन को लेकर मैंने आपातकाल में भी एक कविता लिखी थी। जो ९० के दशक में प्रकाशित मेरे प्रथम काव्य संग्रह -अनामिका में भी प्रकाशित हुई थी। लगभग बीस साल पहले मेरा यह पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था। उसमें सन्निहित एक 'लम्बी कविता' की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं ।
मौसम मस्ती चाँद सितारे ,कनक कामिनी कंगना।
प्यार -मोहब्बत दगा -बफा , या सुरा - सुंदरी ललना।।
कुंठित कवि को बहुत सहज है , इन विषयों पर लिखना।
देश समाज की कातर करुणा ,जिन अंधों को नहीं देखना।।
कर सकते हो करो कलम से , कवि -दुराचार का मर्दन।
नहीं चलेगा नव युग में ये ,नायिका -नख -शिख वर्णन। ।
श्रीराम तिवारी
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