निराला पर सबसे बड़े आक्रमण उनके अपने समाज और विशेषकर सम्भ्रांत लोगों द्वारा हुए। लेकिन तब उनके साथ - रैदास थे,कुल्ली थे,चतुरी चमार थे, भिक्षुक थे, मजदूरिन थी !
आज कौन कौन उनके साथ हैं?! यह एक बड़ा सवाल है।और इसका जवाब, भारत में वर्ण व्यवस्था को लेकर चलने वाले उस अंतहीन संवाद में निहित है जो आज दिशाहीन है। तुष्टिकरण का शिकार है।और गणतांत्रिक सत्ता के दुरुपयोग से दूषित है। जहां सत्य को एक तरफ़ से बर्चस्ववादी ताकतों ने और दूसरी ओर से छद्म क्रांति के मुखौटों ने दबा रखा है। ऐसे में इन दोनों से तटस्थ होकर सोचने पर कुछ विचार यूं कौंधते हैं:-
पश्चिम में मानविकी के क्षेत्रों में हुए इधर हाल के महत्वपूर्ण शोधों और उनके निष्कर्षों से काऊ बेल्ट वाले अधिकांश अर्द्ध- प्रबुद्ध अपरिचित रहे हैं।यही कारण है कि जब- तब "निराला" प्रभृति व्यक्तित्व पर अनाप-शनाप बोलते- लिखते रहते हैं। ख़ासकर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान के संदर्भ में इनका ज्ञान बिल्कुल ही भंगुर है।निम्नस्तरीय है।
जिसको हमारे लोग प्रायः Disability समझते हैं पश्चिम उन विकट परिस्थितियों में कभी कभार Special abilities की तलाश कर लेता है।उधर टिसोला का विचार ख़ूब प्रचलित है जो मानता है कि "Anti-social behavior is a trait of intelligence in a world full of conformists."
अरस्तू से लेकर नीत्शे-फ्रायड- फूको-सार्त्र तक सब के सब लांछित थे। लेकिन समाज के लौकिक और वैचारिक अनुबंधों में यदि ये बंध जाते तब शायद सभ्यता वहां न रहती जहां आज है।और शायद इससे बदतर होती।
हमारे यहां " सा विद्या या विमुक्तये" कहने भर को - पढ़ने भर को रहा! आलोचना शास्त्र ने कही भी साहित्य को विमुक्ति के निकष कर नही परखा। बल्कि इससे उलट, कलावादी- रुपवादी बेड़ियों से साहित्य को बांधे रखने की कोशिश की!
निराला का व्यक्तित्व ही था जिसने इस शास्त्रीयता से टक्कर ली।यह पढ़ने भर की बात नही कि छंद के बंधन तोड़े! बहुत बड़ी क्रांति है।मध्य भारत की सबसे बड़ी साहित्यिक क्रांति जिसे अकेले निराला जी ने सफलतापूर्वक निभा लिया।
पिंगल शास्त्र कहीं न कहीं अब्राह्मणों की पहुंच को भी तय करता था। क्योंकि जिसने औपचारिक शिक्षा ( कवि शिक्षा) पायी ही नही वो कहां से रच सकेगा।तिसपर लिखा यहां पद्य में ही जाता था।इस कठोर अनुशासन का प्रमाण प्रतिभा नही हो सकती।यदि होगी भी तो इस युग में तो नही! फलत: इस परंपरा को निराला ने क्षीण कर दिया।अब उनकी वैसी कविताएं जो उस पुराने पैटर्न पर नही दौड़ती वे किसी भी कीमत पर पुराने दिमाग़ को नही जचेंगी!
दूसरी बात कि यदि छंदबद्ध रचनाएं महान् होती हैं तब भी निराला किसी भी आधुनिक हिंदी कवि से बड़े ठहरते हैं। कहीं कहीं अनुप्रास के मामले में तो वे तुलसीदास से भी आगे हैं। जिसपर "शक्तिपूजा"और "तुलसीदास" जैसे दो काव्य ही लीजिए! पता चल जाएगा कि आख़िर में छंद होता क्या है!!
रोला छंद में केवल श्रृंगार ( माधुर्य गुण) की रचनाएं ही होतीं थी जो सफल रुप में नंददास द्वारा प्रवर्तित थी। निराला ने इसी छंद में ओजगुण की कविता रची। "शक्तिपूजा" में भी यह छंद प्रयुक्त है। "तुलसीदास" में जो छंद प्रयुक्त है उस पैटर्न पर लिख सकने में कोई अन्य सफल न हो सका।वह हिंदी साहित्य की महानतम उपलब्धियों में से एक है।
प्रसाद और महादेवी से तुलना का जहां तक तक सवाल है लोगों को प्रसाद और महादेवी की ही निराला और उनके साहित्य पर की गई टिप्पणियां और लेखों को पढ़ लेना चाहिए।
दूसरी बात यह कि निराला केवल छायावादी नही थे।और न ही रहना चाहते थे। यहां तक कि उनकी आरंभिक रचनाओं में भी जागरणबोध शक्तिवंत होकर मौजूद है।आप " जूही की कली" को ही देखिए।कला का जागरण ही तो दिखा रहे हैं और रीतिकालीन प्रयोगों से ख़ुद को अलग करते हुए।वो ' स्वनामधन्य शुक्ल' जी थोड़े दिन और रह जाते तो निश्चित ही कह जाते कि " घनानंद के बाद जबांदानी का ऐसा दावा निराला के यहां दिखाई देता है"!
गंगाप्रसाद पांडेय की निराला पर जो क़िताब है वह अनिवार्य रुप से पठनीय है। वहां निराला के संघर्ष का सजीव चित्रण है।जो बेवकूफ़ उनके संघर्ष को रचनाकारों का सामान्य संघर्ष भर समझते हैं उनकी आंखें इसे पढ़कर खुल जाएंगी!
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तो " निगमकल्पतरोर्गलितंफलं " पर "चोंच मारने वाले शुक" थे।निर्गुण भक्ति रस में ही उनकी रसना डूबी रही।ऐसे व्यक्ति को ठोस जीवन यथार्थ का काव्य भला क्यों रुचेगा। हां, कबीर पर उनका लिखा अवश्य उन्हें महान् बनाता है। लेकिन ताज्जुब की बात है कि कबीर के बाद उनका उत्तराधिकारी उन्होंने क्यों नही खोजा!!?
इसीलिए उन्होंने एक दफ़ा प्रसाद को दूसरे नंबर पर और निराला को तिसरे नंबर पर रखा।एक नंबर पर वे महादेवी जी को मानते थे।अब महादेवी जी भी तो मध्ययुगीन मीरा ही थीं! और हमारे निराला तो वाल्तेयर थे।वे कांग्रेस और पद्मविभूषणादि पुरस्कार बेचने वाली कमीटियों को क्यों भाएंगे!! वे तो प्रतिपक्ष के थे।डा० लोहिया ने "चतुरी चमार" की जो समीक्षा की है वह लघु होकर भी पठनीय है।
आजकल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे ही कुछ परम पंडित दिखाई देने लगे हैं। हालांकि ये भीतर से वर्णाश्रमी रहस्यवाद के समर्थक हैं।इनके साथ ख़ुद को प्रगतिशील और विमर्शवादी समझने वाले फुटकर आलोचकों का भी एक दल शामिल है।जाने अनजाने ये लोग भी निराला के महत्व पर अपनी साधारणीकृत मंशा व्यक्त करते हैं। इन्हें निराला को ध्यानपूर्वक पढ़ना होगा। द्विवेदी जी को तो " मुक्तिबोध " भी समझ में नही आते थे जिसके कारण "कविता के नये प्रतिमान" की रचना करनी पड़ी।यह बात स्वयं नामवर जी ने कही है।अब भला जब मुक्तिबोध नही समझ में आ सकते तब निराला तो दूर की कौड़ी हैं।वो अलग की बात है कि आचार्य द्विवेदी जी ने निराला का पुण्य स्मरण बहुत बेजोड़ ढंग से किया।
बहरहाल मुक्तिबोध की बात चली है तो यह भी जान लेना चाहिए कि निराला ने आगे प्रकट होने वाली मुक्तिबोधीय परंपर की भूमिका तैयार की।यदि "कुकुरमुत्ता" जैसी रचनाएं न रचते तो मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे कवियों को अधिक परेशानी होती।इस संदर्भ में समूची प्रगतिशील कविता और उसके बड़े- महान् रचनाकार -निराला के ॠणी है।शायद यही कारण है कि मुक्तिबोध को छोड़कर शमशेर बहादुर, त्रिलोचन, नागार्जुन सबने उनपर रचनात्मक लिखा। मुक्तिबोध,अहं से ग्रस्त थे। जैसे लोहिया का अहं उन्हें " कुजात गांधीवादी" करार देता था जबकि वे सच्चे गांधीवादी थे( मधु लिमये)!वैसे ही " मुक्तिबोध" कुजात निराला पंथी हैं।
निराला में भी "अहं" का crises है पर दूसरे स्तर पर।वे अंग्रेजी और बांग्ला के प्रभामंडल के बीच अपनी subaltern दृष्टि साधे हुए हैं। हिंदी के किसी पूर्ववर्ती कवि को कभी भी अनादृत नही किया। बल्कि" हिंदी के सुमनों के प्रति" जैसी मार्मिक कविता रचते हैं।वे किसी भी प्रकार के बर्ढचस्ववाद के ख़िलाफ़ थे। साम्यवाद, लेनिन और रुस की औरतों पर उनके लिखे लेख पढ़ें।तब मालूम होगा। अस्मिता का ओजमय विमर्श उनसे सीखना चाहिए।
अस्तु ,अब ज़रा रचनाविधान पर कुछ देख लिया जाए। मैंने कहा कि निराला कहीं कहीं तुलसीदास से भी आगे हैं। हां! बिल्कुल हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी ऐसा माना है कि नाद-योजना और अनुप्रास के सहज संयोजन के मामले में वे कहीं कहीं तुलसीदास के बराबर है।
कुछ उदाहरण देखिए:
" ऐ अटूट पर छूट टूट पड़ने वाले उन्माद"
" अरुण पंख तरुण किरण"
इन शब्दावलियों में सहज आवृत्ति हो गयी है।या एक छंद ही देखिए :-
" कौन तुम शुभ्र-किरण- वशना?
सीखा केवल हंसना- केवल हंसना-
शुभ्र किरण वसना!
चंचल कैसे रुप गर्व-बल
तरल सदा बहतीं कल-कल-कल,
रुप- राशि में टलमल टलमल
कुंद धवल दशना!
अस्तु!कुकुरमुत्ता की इन निम्न पंक्तियों को मुक्तिबोध के "अंधेरे में" जलाइए:- अर्थ प्रकाशित होगा- परंपरा का।कवि परंपरा पकड़ में आ जाएगी-
" मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
जैसे फ़्रायड और लीटन।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
जरूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
सच समझ जैसे रकीब
लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब"
नागार्जुन की व्यंग्य कविताएं कहां से प्रेरित हैं यह जानने के लिए निराला को पढ़ना पड़ता है। देखिए-
" काले-काले बादल छाए, न आए वीर जवाहरलाल
कैसे-कैसे नाग मँडलाए, न आए वीर जवाहरलाल"
यही नही आधुनिक कविता के शिल्प और बिम्ब विधान को भी निराला की देन अपूर्व है।उनकी एक कविता है"वे किसान की नयी बहूं की आंखें" ।आप पाएंगे कि केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे कवियों का रास्ता यही था। इसी ढ़ंग का था। इतना कुछ कहते हुए मैं यह नही कहता कि सबकुछ निराला की नकल है या अनुकरण है। मैं बस यह कहना चाहता हूं कि निराला में जो नयापन है और भविष्य को पढ़ने की जो क्षमता है वह प्रसाद या महादेवी जी या अन्य किसी में भी नही।भला कौन से ऐसे तत्व हैं जो प्रसाद जी या महादेवी जी को आज के, एकदम नये कवि को उनलोगों से जोड़े रखने में सक्षम हैं।मेरी नज़र में कुछ भी नही। फिर भला ये
" श्रृंखला की कड़ियां" क्या भ्रम मात्र हैं।
बड़े रचनाकार के चित्त में विस्तारक शक्ति होती है।युग पर युग बितते हैं पर यह शक्ति संकुचित नही होती।इन अर्थों में निराला,भारत की महानतम मेधाओं में से एक हैं।उनके तथाकथित विक्षिप्त व्यक्तित्व को उनके साहित्य के, विशेष कर उनके गद्य के सापेक्ष रखने पर सच्चाई मालूम हो जाती है। यदि निराला नियति ही हैं तो उनसे बच सकने की औकात भला किसमे है।नियति चक्र तो अटल है।
विडंबना है कि वर्ण-व्यवस्था के धुरविरोधी भी भीतर से परम जातिवादी हैं।और तिसपर तुष्टिकरण की मदिरा की लत लोगों को सच बोलने से डराती है।फलत: तथाकथित सवर्ण भी ऐसे नकलची जाति -विरोधियों के खिलाफ बदनामी के डर से नही बोलते।अतः अनजाने वे इस घातक बुराई का पोषण करते हैं। तुलना के लिए मैं और अधिक उदाहरण देता लेकिन यहां बहुत लंबा पढ़ता कौन है! तिसपर सीमा भी है, अतः इतने में ही संकेत और संदर्भ अटाने पड़े। मेरी विवशता।
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