मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

हिंसा का कोई (खास) चेहरा नहीं होता.

 “जहाँ तक नफरत करने वालो की बात है, तो मुझे सिर्फ वही कहना है जो मुन्ना..."

1990 में कश्मीरी पंडितों पर जो कहर बरसा था उसका भुक्तभोगी फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा का परिवार भी था. परन्तु विधु विनोद का नजरिया कश्मीरी पंडितों पर राजनीति करने वालों से अलग है. यह नजरिया हिंदुस्तान टाइम्स में छपे विधु विनोद के लेख में प्रकट होता है. प्रस्तुत हैं इस लेख के कुछ अनुवादित अंश –
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‘शिकारा’ कुछ खो देने की दास्ताँ है
यह नफरत की कहानी नहीं है!
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“शुक्रवार को मैं एक खचाखच भरे थिएटर में दाखिल हुआ. यह उन थिएटरों में से एक था जहाँ मेरी नयी फिल्म ‘शिकारा’ की पहली स्क्रीनिंग हो रही थी. 300 दर्शक, जिनमे ज़्यादातर कश्मीरी थे, खड़े हो गए और तालियाँ बजाने लगे. परन्तु थिएटर में पीछे बैठी एक महिला चिल्लाने लगी कि यह फिल्म उसके दर्द को बयाँ नहीं करती. वह कुछ और ज्यादा चाहती थी. (She wanted more.) मुझ पर आरोप लगाया गया कि एक समुदाय जिसे 30 साल पहले उसके जमीन से निर्वासित कर दिया गया, मैंने उसकी त्रासदी का व्यापारीकरण किया है.
“उस औरत की बात के विषय में मैं काफी दिनों तक सोचता रहा. मैंने महसूस किया उस महिला को जो ज्यादा चाहिए था वह नफरत थी. वह ऐसी फिल्म चाहती थी जो मुसलमानों को दुष्ट साबित करती; वैमनस्य एवं खूनखराबे को और हवा देती. फिल्म से सम्बंधित जिन मुद्दों पर महिला को ऐतराज था उनमे से एक था कि मुस्लिम कलाकारों ने कश्मीरी पंडितों के चरित्र क्यों निभाए.
“तीखे आरोपों और विवादों के बीच मैंने आत्मविश्लेषण किया कि मैं फिल्म बनाते समय क्या काम अलग तरीके से कर सकता था. मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मैं (उस महिला की पसंद) का कहानीकार नहीं हूँ. मैं कभी भी नफरत को मुनाफे के लिए नहीं बेचूंगा.
“मैंने 11 साल पहले 2008 में ‘शिकारा’ पर काम करना शुरू किया था. माँ को श्रधांजलि देने के लिए मैंने यह फिल्म बनायी. माँ (मेरी फिल्म) ‘परिंदा’ का प्रीमियर देखने श्रीनगर से मुंबई आई थी परन्तु कभी वापस न जा सकी. 1999 में ‘मिशन कश्मीर’ की शूटिंग के दौरान माँ मेरे साथ थोड़े समय के लिए कश्मीर गयी थी. वहां उन्होंने अपना घर देखा जिसे militants ने लूट लिया था. हर चीज़ लूट ली गयी थी. लुटे हुए घर को देखने के बावजूद माँ यह कहती रही कि एक दिन सब ठीक हो जायेगा. उन्होंने पड़ोसियों को गले लगाया. वे इस उम्मीद के साथ लौटी कि एक दिन वे वापस आ सकेंगी. परन्तु वह निर्वासित ही 2007 में दुनिया छोड़ गयीं.
“मैं अपनी माँ जैसा ही हूँ. इसलिए जब मैं फिल्म बना रहा था तो मेरे दिमाग पर यह सोच हावी थी कि मेरी फिल्म को हिंसा नहीं भड़कानी चाहिए. मेरी महत्वाकांक्षा थी कि वास्तविकता का सच्चा चित्रण हो परन्तु इससे दर्शक बदला लेने के लिए भड़कें नहीं. इसलिए 19 जनवरी 1990 के दृश्य में जो militants पंडितों के घर जलाने आते हैं उनकी परछाइयां ही दिखाई गयीं हैं. मैंने यह जानबूझ कर किया क्योंकि मैं मानता हूँ हिंसा का कोई (खास) चेहरा नहीं होता.
“मुझे उम्मीद थी कि ‘शिकारा’ के ज़रिये एक बातचीत शुरू होगी. मुझे ख़ुशी है कि ऐसा हुआ. कश्मीर पंडितों ने मुझे असंख्य संदेशों और ईमेल के ज़रिये उनकी आपबीती दुनिया के सामने रखने के लिए धन्यवाद दिया.
“जहाँ तक नफरत करने वालो की बात है, तो मुझे सिर्फ वही कहना है जो मुन्ना ने ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में शानदार लहजे में कहा था -- Get Well Soon!":
Vidhu Vinod chopda...

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