सोमवार, 8 नवंबर 2021

:-मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ *रचना* का नाम 'ईश्वर 'है !

 

डेढ़ सौ साल पहले जब नीत्से ने कहा था कि ''ईश्वर मर चुका है '' तब ये फेस बुक ,ट्विटर और वॉट्सअप नहीं थे! वरना साइंस पढ़े -लिखे और साइंस को ही आजीविका बना चुके धर्मांध सपोले उस महानतम् दार्शनिक 'नीत्से' को भी डसे बिना नहीं छोड़ते।
आज चाहे आईएसआईएस, तालिबान,ISI या अलकायदा के खूंखार जेहादी हों ,चाहे पाकिस्तान प्रशिक्षित कश्मीरी आतंकी हों ,चाहे जैश ए मुहम्मद सिमी के समर्थक हों या जिन्होंने दाभोलकर,पानसरे ,कलबुर्गी और अखलाख को मार डाला ऐंसे स्वयम्भू कट्ररपंथी हिंदुत्ववादी हों ये सबके सब 'नीत्से' की स्थापना के जीवन्त प्रमाण हैं।
मानव सभ्यता के इतिहास में बेहतरीन मनुष्यों द्वारा आहूत उच्चतर मानवीय मूल्यों को धारण करने की कला का नाम 'धर्म' है !मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर' है। भारतीय वांग्मय के 'धर्म' शब्द का अर्थ 'मर्यादा को धारण करना' माना गया है। जबकि दुनिया की अन्य भाषाओं में 'मर्यादा को धारण करना'याने 'धर्म' शब्द का कोई वैकल्पिक शब्द ही नहीं है। जिस तरह मजहब-रिलिजन इत्यादि शब्दों का वास्तविक अर्थ या अनुवाद 'धर्म' नहीं है। उसी तरह 'परमात्मा या ईश्वर जैसे शब्दों का अभिप्राय भी अल्लाह या गॉड कदापि नहीं है।
कुरान के अनुसार ''अल्लाह महान है और मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं तथा अल्लाह ही कयामत के रोज सभी मृतकों के उनकी नेकी-बदी के अनुसार फैसले करता है।"इसी तरह बाईबिल का 'गॉड'भी अलग किस्म की थ्योरी के अनुसार पूरी दुनिया का निर्माण महज ६ दिनों में करता है और अपने 'पुत्र' (ईसा) को शक्ति प्रदान करता है की धरती के लोगों का उद्धार करे।
जबकि गीता,वेद, उपनिषद प्रस्थानत्रयी का कहना है की 'आत्मा ही परमात्मा है' ''तत स्वयं योग संसिद्धि कालेन आत्मनि विन्दति'' या ''ॐ पूर्णमदः पूर्णम् इदम पूर्णात् पूर्णम् उदच्चते। पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम एव अविष्य्ते" याने प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य अपनी पूर्णता को प्राप्त करना है! अर्थात अपने मूल स्वभाव के जनक परम परमात्मा में समाहित हो जाना है।
इस उच्चतर दर्शन को श्रेष्ठतम मानवीय सामाजिक मूल्यों से संगति बिठाकर जो जीवन पद्धति बनाई गयी उसे 'सनातन धर्म' कहते हैं। कालांतर में स्वार्थी राजाओं ,लोभी बनियों और पाखण्डी पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए धर्मको शोषण-उत्पीड़न का साधन बना डाला। उन्होंने इस परम पवित्र धर्म को जात -पांत ,ऊंच -नीच घृणा अहंकार और अनीति का भयानक कॉकटेल बना डाला जिसे सभी लोग अब 'अधर्म' कहते हैं। इस अधर्म में जब अंधराष्ट्रवाद और धर्मान्धता का बोलवाला हो गया तब कार्ल मार्क्स ने उस 'अधर्म' को अफीम कहा था! वे अपने गुरू हेगेल के उटोपियाई आदर्शवाद को शुद्ध भाववादी काल्पनिक दर्शन मानकर ही धर्म-मजहब को अफीम कहने को बाध्य हुए होंगे! :-श्रीराम तिवारी !

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