जिनका नैतिक और चारित्रिक पतन हो चुका हो -ऐंसे साधू-सन्यासी अथवा राजनेता नहीं चाहिए !
बचपन में किसी विद्द्वान से सुना था "जब सिकंदर स्पार्टा ,एथेंस को विजित कर मकदूनिया से अपनी शानदार अजेय फ़ौज के साथ विश्व विजय के लिए प्रस्थान करने लगा तो अपने गुरु अरस्तु के पास आशीर्वाद लेने गया । उनसे दिशा निर्देश भी लिये! गुरु ने तत्कालीन ज्ञात विश्व के कुछ खास देशों के नाम लेते हुए सिकंदर से उन्हें फतह करने के कुछ सुझाव दिये,साथ ही उन देशों से उसे कुछ खास उपहारों लाने की तमन्ना व्यक्त की।
अरस्तु ने कहा - हे सिकंदर महान ! जब तुम चीन फतह करो तो रेशम के थान,ढेर सारा कागज़ और मार्शल आर्ट के लिए प्रसिद्ध शाओलिन प्रशिक्षित जवान साथ में लाना। जब तुम अरब को फ़तेह करो तो ऊंट ,खजूर और अरबी घोड़े साथ लाना । फारस फ़तेह करो तो सुंदरी ललनाएं,मखमली कालीन सूखे मेवे और पवित्र *जिन्दवेस्ता*ग्रन्थ साथ लाना। जब उज्बेगिस्तान,बख्त्रिया मंगोलिया तुर्क्मेनियाँ फ़तेह करो तो उत्तम कोटि के घोड़े,जावांज लड़ाके और धारदार फौलादी शमशीरें साथ लाना। और यदि हिन्दोस्तान जा सको और उसे फतह कर सको तो वहाँ से :
"गंगा जल ,भगवद्गीता और कोई एक सिद्ध महात्मा योगी साथ लेते लाना। "
मुझे नही मालूम कि यह सच है या कि गप्प ! सिकंदर ये सब मांगें पूरी कर पाया या नहीं ये तो इतिहासकारों के शोध का विषय है!किन्तु इसके प्रमाण अवश्य हैं की सिकंदर को भारत में सिर्फ शुरुआत में ही आंशिक सफलता मिली थी! बाद में पंजाब और मालवा विजित करने के दौर में उसके सैनिक जब विद्रोह करने पर उतारू होने लगे और सिकंदर स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गया,तो उसका दिग्विजय स्वप्न अधूरा ही रह गया। मायूस होकर घायल सिकंदर सन्निपात की अवस्था में जब मकदूनिया वापिस लौटने लगा तो भारत से वे वांछित वस्तुएं शायद नहीं ले जा सका जो उसके गुरु 'अरस्तु' को प्रिय थीं । इस घटना से यह अवश्य ही स्थापित होता है कि अरस्तु द्वारा बनाई गई मांग पत्र सूची में उल्लेखित और भारत से मंगाई जाने वालीं वस्तुओं की महिमा का बखान तत्कालीन यूनान तक अवश्य ही पहुंचा होगा।
निसंदेह ये वस्तुएं इक्कीसवीं शताब्दी में भी भारत और भारत से बाहर दुनिया भर में जा वसे हिन्दुओं के लिए आज भी उतनी ही पावन और पूज्य हैं।
लेकिन आज के कुछ ढोंगी पाखंडी - कपटी और धूर्त लोग - 'साधु' के वेश में तिजारत करने वाले धंधेबाज बन बैठे हैं। आधुनिक युग के 'सिद्ध महात्मा योगी' देश का उद्धार करने के बजाय 'शिष्याओं का उद्धार' करने में जुटे हैं । किसी के पास देश -विदेश में ११ हजार करोड़ की संपदा ,किसी के पास ८ हजार करोड़ के आश्रम,फ़ार्म हॉउस ,किसी के पास सैकड़ों सुन्दरियों की फौज, किसी के पास श्रद्धालुओं के नाम पर हजारों लफंगों,शोहदों और भृष्ट तत्वों का असंवैधानिक लवाजमा है। किसी के पास मंदिर -मठ की जागीर है । किसी के पास राजनैतिक नेताओं और पार्टियों का हुजूम और किसी के पास ईश्वरीय सन्देश का विशेषाधिकार।
ये परजीवी हरामखोर आयकर नहीं देना चाहते! कोई सर्विस टेक्स नहीं देना चाहते यदि धरम मजहब की आड़ में हथियारों की तश्करी करें ,मादक पदार्थों की तश्करी करें, आसाराम, नारायण साईं की तरह भ्रस्ट बनियों और स्मगलरों के अबैध कारोबार में हवाला घोटाला करें और किसी ज़िंदा मानव को मारकर उसकी खोपड़ी का चूरा बेचकर "आयुवर्धक औषधि ' बेचें तो किसी सरकार और क़ानून को हक नहीं कि इनसे किसी तरह की पूंछतांछ कर सकें।
यदि पुलिस क़ानून ने या किसी पीड़ित या पीडिता ने प्रतिकार किया तो उसे नास्तिक, विधर्मी ,विदेशी और न जाने किस-किस सर्वनाम से विभूषित करेंगे। इन अधार्मिक व्यक्तियों का काले धन और [अ]धर्म स्थलों पर इतनी संपदा और स्वर्ण भण्डार है कि देश को आगामी दस साल तक की बजट में एक पाई न तो विश्व बेंक से लेनी पड़े और न ही देशी-विदेशी पूँजीपतियों के आगे 'पूँजी निवेश 'की चिरोरी करनी पड़े! अपने पापों को छिपाने के असफल प्रयासों में नाकाम ,ये नापाक बदमाश तत्व बड़ी चालाकी से राजनैतिक गटरगंगा रूपी अशुचिता का दुष्प्रचार कर जनता का गुस्सा सीधे सादे राजनैतिक नेताओं और खास तौर से धर्मनिरपेक्ष दलों और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की ओर मोड़ देते हैं।
इन धनाड्य -बाबाओं ,समपन्न मठों - चमाचम पीठों , मजहबी -पंथिक धर्म स्थलों और धार्मिक- पारमार्थिक संस्थाओं को राष्ट्र और राष्ट्र की जनता से लगातार तन-मन -धन समर्पित किया जाता रहता है किन्तु इनकी ओर से राष्ट्र को या जनता को केवल 'आध्यत्मिक प्रवचन के नाम पर बाचिक - लफ्फाजी और पारलौकिक विषवमन ' ही दिया जाता रहता है। प्राकृतिक आपदाएं , धर्म स्थलों पर अनपेक्षित भीड़ का ' सामूहिक वैकुंठवास' या देश में बढ़ती महंगाई गरीबी अशिक्षा शोषण और व्यवस्थागत दोषों से उत्पन्न जागतिक-सामाजिक समस्याओं बाबत इनके पास कोई निदान या समाधान नहीं है। उल्टे उन्हें कई बार नकली भोगी ,ढोंगी और सुरा सुन्दरी का तलबगार पाया गया है।
चूँकि सिकंदर और उसके क्षत्रपों के हमलों का मुकाबला करने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य थे उनके साथ महान अर्थशास्त्री राजनीति विद आचार्य चाणक्य थे,जिनका राष्ट्र स्वाभिमान चरित्र,अनुशासन और विवेक का अप्रितिम योगदान था। इसीलिये खब्ती सिकंदर यहाँ से जीतकर नहीं पिटकर गया था! दरसल सिकंदर महान नही था, बल्कि आचार्य चाणक्य महान थे, जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को महान शक्तिशाली बनाया!
आज के (कु)संत झासाराम ,अमुक भारती अमुक निर्मल बाबा ,ढिमुक फॉदर, अमुक गाजी, ढिमुक मौलाना और उनके लाखों अंधभक्त हैं जो यदि सिकंदर के समय होते और उसके हाथ लगते तो समूचा फारस,समस्त रोमन साम्राज्य और सारा यूनान यों ही चुटकियों में फतह कर लेता!
आसाराम जैसे ऐय्यास 'धार्मिक-ठगों' और उसके समर्थकों ,हमदर्दों के बारे में कुछ भी लिखना ,कहना या सुनना अब केवल 'निन्दारस-अभिलाषा'नहीं बल्कि यह तो अब राष्ट्रीय शर्म की विषय वस्तू हो चूका है । ये पाखंडी साम्प्रदायिक उन्मादी वर्ग जितना काइयां और चालाक है ,उसके 'स्टेक होल्डर्स ' उससे भी कहीं ज्यादा धूर्त और चालाक हैं। कुछ तो इस वर्ग को सत्ता का साधन भी बना लेते हैं। हो सकता है कि इनसे जुड़े हुए कुछ लोग आपराधिक पृवृत्ति के न हों । किन्तु जब तक वे खुलकर अपने 'गुरु-घंटालो 'को सरे आम जूते नहीं लगाते तब तक न तो समाज और देश का उद्धार संभव है और न हीं वे खुद बेदाग साबित होंगे। आशाराम के साथ तो सबके -सब 'दो-नम्बरी' और नापाक किस्म के हैं। सवाल है कि इन बदमाशों में खास तौर से उस ख़ास समाज के ही लोग अधिक क्यों हैं जिससे आसाराम का सामाजिक सम्बन्ध है. इस अधिकांस करप्ट और 'नव-धनाड्य 'वर्ग में - सटोरिये ,वकील ,आश्रम इंचार्ज - सूरत से लेकर दिल्ली तक आसाराम के सजातीय लोग ही क्यों हैं ? यदि आसाराम का लड़का नारायण साइ निर्दोष हैं तो पुलिस और क़ानून के सामने आकर अपना पक्ष कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं रखता ? अपने पापों पर पर्दा डालने के लिए ये -महा हत्यारे, बलात्कारी रात दिन एक ही रट लगाए रहते हैं कि "माँ -बेटे"के इशारे पर सरकार परेशान कर रही है। यदि आसाराम और उसकी 'गेंग' को लगता है कि वे 'निर्दोष' हैं तो सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा क्यों नहीं करते जहां उनकी पैरवी 'साइ राम जेठमलांनी खुद कर रहे हैं.
स्वामी रामदेव जैसे लफ्फाज और ढोंगी हैं जो जनता को ठगते हैं ,इनके आश्रमों से लड़के-लडकियाँ गायब हो जाएँ और यदि पुलिस -क़ानून अपना काम कर्रें तो ये लोग कभी सोनिया गाँधी ,कभी राहुल गाँधी और कभी दिग्विजयसिंह या गहलोत पर भौंकने लगते हैं। उनके इस अनर्गल अशालीन विषवमन पर अब जन-प्रतिक्रिया होने लगी है। आजकल जहां भी रामदेव जाते हैं उनको महिलायें चूड़ियाँ भेंट करतीं हैं ,युवा और छात्र रामदेव को काले झंडे दिखाते हैं. मीडिया भी अब उन्हें ज्यादा भाव नहीं देता। उनकी 'राख -भभूत' वाली अचूक औषधियाँ" भी बाजार में पडी -पडी सड़ रहीं हैं। वे जो 'बन्दर -कुन्दनी 'आसन वगैरह अपने नाम से पेटेंट करने को उद्दत रहते हैं वे तो इंसान अनादिकाल से ही करता ही आ रहा है. दर्शल बाबा रामदेव को अपनी लोक्ख्याती का रोग लग चूका है ,वे भारतीय संविधान का ककहरा भी नहीं जानते किन्तु राजनीति में 'चाणक्य' की भूमिका चाहते हैं। वे अर्थशाश्त्र ,समाज् शाश्त्र या दर्शन शाश्त्र में से किसी भी विषय में दीक्षित नहीं हैं केवल शीर्शाशन ,लोम-विलोम या बंदरों जैसी उछल-कुंद के दम पर भारत -भाग्य विधाता बन जाने के सपने देखते रहते हैं। राजनीतिज्ञों की तरह चाटुकारों -चापलूसों से घिरे स्वामी रामदेव बार -बार पतन के गर्त में गिर रहे हैं।
जब रामदेव के आश्रम में किसी का अपहरण हो जाता है और अन्य संदेहास्पद गतिविधियों की छानबीन के लिए पुलिस दविश देती है तो रामदेव का भाई फरार क्यों हो जाता ? उनके भरोसेमंद आचार्य - जी पर जो आरोप लगे हैं उन पर कोर्ट में सफाई देने के बजाय उत्तराखंड सरकार या केंद्र सरकार से रहम की उम्मीद क्यों की जाती है ? यदि रामदेव कुछ गलत नहीं करते और उनके 'पतंजलि योग पीठ' में या उनके औद्दोगिक साम्राज्य में कुछ भी गैर कानूनी नहीं है तो किस बात पर वो इतने डर-डर कर अरण्य रोदन करते फिर रहे हैं ? वे खुद ही कहते फिरते हैं कि केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार मुझे फंसाने की कोशिश कर रही है। "मुझे सेक्स स्केंडल में भी फँसाया जा सकता है " या "उन्हें फ़साने में किसी विदेशी महिला और उनके बेटे का हाथ है" उनका यह घटिया वयान अब एक बचकाना जुमला बन चूका है, इस सफ़ेद झूंठ को बोलते वक्त रामदेव की आँखे खुद-ब -खुद बंद क्यों हो जाया करती हैं?
रामदेव कुछ दिनों पहले कहा करते थे कि "मैं भारत स्वाभिमान संघ के मंच से देश का उद्धार करूंगा। देश भर में इस मंच के ५०० उम्मीदवार खड़े किये जायंगे। कांग्रेस ,भाजपा दोनों भृष्टाचार में लिप्त हैं। ये दोनों ही अमेरिका परस्त हैं। हमारे राज में स्वदेशी का सम्मान होगा। विदेशों में जमा काला धन वापिश लाया जाएगा। देश में गरीबों को न्याय मिलेगा। सभी को रोटी-कपड़ा -मकान मिलेगा।" इत्यादि . . . इत्यादि। देश के पढ़े-लिखे नौजवान ,माध्यम वर्ग और स्वभाव से धर्मभीरु नर-नारी रामदेव के झांसे में आते चले गए। जब तक वे केवल योग गुरु थे ,मुझे भी ठीक लगते थे ,जब उन्होंने भृष्टाचार मुक्त भारत की बात की तो वे अधिकांस सभ्रांत वर्ग के 'आइकान' बन गए। किन्तु ज्यों ही उन्होंने भारत स्वाभिमान के सिद्धांत को तिलांजलि देकर 'नमो' और 'संघ परिवार' के चरणों में समर्पण किया , वे देश की सक्रीय राजनीति का एक दिग्भ्रमित पक्ष बन कर रह गए हैं ।
हालांकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है। किन्तु जो लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही सरमायेदारों और लुटेरों का एजेंट समझते हैं उनको अब स्वामी रामदेव यदि शोषक शासक वर्ग के साम्प्रदायिक पाले में नज़र आ रहे हैं तो वे गलत नहीं हैं । इतना ही नहीं पहले की बनिस्पत रामदेव अब ज्यादा साम्प्रदायिक और तदनुरूप साम्प्रदायिक राजनीती के धुरंधर भी सिद्ध हो चुके हैं। अब यदि धर्मनिरपेक्ष ताकतें रामदेव को स्वामी या बाबा मानने के बजाय 'नेता' मानकर उनके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करे तो रामदेव को कपडे नहीं फाड़ना चाहिए। जो साम्प्रदायिक नेता सरकार को गालियाँ देते हैं , विदेशी आक्रमण कारियों के खिलाफ आवाम को राम-रावण युद्ध का - "विजय रथ रूपक " पढ़ाते हैं। दुश्मन से जीत सकने का माद्दा इन कलुषित मानसिकता के स्वयम्भू 'बाबाओं और स्वामियों में कैसे संभव हो सकता है। ये तथाकथित सन्यासी एक ओर तो अपने आप को संसार से परे सन्यासी बताते हैं दूसरी ओर जब -तब किसी खास नेता या दल की निंदा करते रहते हैं। क्या यह संतों ,साधुओं या आचार्यों का आदर्श है ?ये कामुक किस्म के धन लोभी अ-धार्मिक ठग पाकिस्तान,चीन और अमेरिका के खिलाफ दहाड लगाकर युद्धोन्माद की कोशिश करंगे। किन्तु जब कुर्बानी की बात आयेगी तो दूम दवाकर दडवे में छिप जायेंगे। भगवा वेशधारी पाखंडी स्वामी ,बाबा - सभी जनता में अंध श्रद्धा और धर्मान्धता का वीज वपन करते रहते हैं।
ये नैतिक रूप से पतित ,नीति विहीन ,धार्मिक पाखंड के पहरुए - देश का ,समाज का और नेताओं का मार्ग दर्शन क्या खाक करेंगे ? तात्पर्य यह है की आज का भारत अपने अतीत के भारत से और ज्यादा दैन्य स्थति में पहुँच चूका है। भारतीय समाज में अनेक विद्रूपताओं के वावजूद कुछ पवित्र प्रतीक अवश्य थे। जिनपर भारत के विवेकवान लोगों को गर्व था। आज चाणक्य जैसी वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टी की जरुरत है न की हिटलर -मुसोलनी के फासिजम से सरावोर नेताओं की , या वर्तमान दौर के ढोंगी ,व्यभिचारी -धर्मं -मजहब के ठेकेदारों की ।
गंगा को गंदा करने में पाकिस्तान या चीन का नहीं बल्कि भारतीय जनता जनार्दन का ही हाथ है. खास तौर से हिन्दू समाज ही गंगा समेत तमाम नदियों को गंदा करने के लिए जिम्मेदार है। अब यदि भारतीय न्यापालिका का आदेश है की मूर्तियों को गंगा में न बहायें तो ये तथाकथित हिन्दू श्रद्धालुओं की जिम्मेदारी है की अपनी पवित्र नदियों को 'मरने ' से बचाएं।
इसी तरह जब धर्म -मजहब के नाम पर कोई शातिर बाबा ,स्वामी, या धर्मगुरु जब भोली -भली जनता को खास तौर से महिलाओं को फांसने या ठगने का जाल बुनता हो तो सुधि जनों की जिम्मेदारी है की उसे जेल भेजने में क़ानून की मदद करे। कुकर्मी आसाराम और उसके लफंगे ऐय्यास बदमाश लड़के नारायण साई को बचाने के लिए कुछ निर्लज्ज महिलायें और कुकर्मी भक्त भी मीडिया के सामने दिखाई देते हैं ये देश के नाम पर कलंक हैं। जो पीड़ित महिलायें और सेवक इन पापियों के पापों का भंडाफोड़ रहे हैं उनको पूरा सम्मान और सुरक्षा मिलनी चाहिए। गनीमत है की अभी कोई सिकंदर ,कोई गजनी ,कोई गौरी भारत पर आक्रमण करने नहीं आ रहा है किन्तु आधुनिक सूचना एवं संचार क्रांति के दौर में जबकि भारतपर अपने पड़ोसियों की नापाक नज़रों हों। यह नितांत जरुरी है की नैतिक मूल्यों और प्राकृतिक सम्पन्नता का संरक्षण सुनिश्चित किया जाए।
इतिहासकार बताते हैं की वह असमय ही भरी जवानी में भारत से मकदूनिया लौटते वक्त म्रत्यु को प्राप्त हो गया था। उसके सेनापति सैल्युकास ने भारत के पश्चिम मैं इरान ,अफगानिस्तान और ईराक इत्यादि - सिकंदर के विजित क्षेत्रों को अपने काबू में करने की असफल कोशिश जरुर की थी किन्तु मगध के नवोदित सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु विष्णुगुप्त चाणक्य के निर्देश पर सैल्युकास के पुत्र फिलिप्स को पराजित कर उसकी बहिन 'हेलेन' से शादी कर ,यूनान और मकदूनिया को भारत की ताकत से रूबरू जरुर कराया था। यूनानी दार्शनिक और सिकंदर के गुरु अरस्तु से भारतीय दर्शन शाष्त्री और चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु चाणक्य बेशक तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि का धनी था। उसने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त से 'भारतवर्ष ' राष्ट्र की एकता स्थापित करने की मांग ही की थी जिसे उसके शिष्य ने पूरा करने का भरपूर प्रयास किया था।
विष्णुगुप्त चाणक्य ने केवल 'अर्थशास्त्र ' ही नहीं लिखा बल्कि 'चाणक्य नीति' सहित अन्य अनेक प्रगतिशील वैज्ञानिक तथ्यों का प्रतिपादन भी किया था। जब तक उसके सिधान्तों को चन्द्रगुप्त ने माना तब तक भारत का दुनिया में बोलबाला रहा। जब चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को छोड़कर जैन धर्म धारण कर लिया तो विदेशी ताकतों ने फिर सर उठाया और उसके पुत्र विम्बीसार को अपयश का भागीदार होना पडा। चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाकर भले ही दुनिया भर में 'धम्म चक्र प्रवर्तन' की ध्वजा फहराई हो किन्तु उसके निधन के बाद भारत छिन्न -भिन्न होने से नहीं बचा। दुर्भाग्य से भारत की जनता और खास तौर से 'हिन्दू समाज' ने चाणक्य के उपदेशों को लाल कपडे में पोथी की तरह बांधकर पूजा तो की किन्तु उन सूत्रों और सिद्धांतों को राजनीती,समाज और लोक व्यवहार में प्रयुक्त करने की जहमत नहीं उठाई। एक तरफ विदेशी आक्रान्ता भारत विजय के लिए भयंकर आक्रमणों का सिलसिला बनाए चले गए और दूसरी ओर भारत के राजे -रजवाड़े ,सामंत ऐय्यासी में डूबते -उतराते रहे। भारतीय समाज में 'चमत्कार को नमस्कार ' का बाहुल्य बढ़ता चला गया। विज्ञान के आविष्कार,सामजिक परिशकारन ,राष्ट्र निर्माणकारी नीतियां सब लोप होते चले गए। राज्य -समाज के सारे उपक्रम केवल राज्य कृपा तक सीमित रह गए. समाज में धर्मांध बाबाओं ,पाखंडी साधुओं , धनाड्य मठाधीशों और 'भिक्षु ' पृवृत्ति के लोगों का कारवाँ बढ़ता चला गया। इसी कारण भारत को दुहरी -तिहरी गुलामी कई सदियों तक झेलनी पड़ी। स्वामी विवेकानंद को अपने अमेरिका प्रवास के दौरान कहना पडा -" भारत को ज्ञान ,धर्म ,अध्यात्म की नहीं रोटी की जरुरत है "
वर्तमान दौर की राजनीती की आलोचना जायज हो सकती है ,उसमें किये जा रहे सुधारों का स्वागत है ,न्यायपालिका ,मीडिया और देशभक्त लोगों के सकारात्मक प्रयास वन्दनीय हैं. किन्तु राजनीती की कुरूपता से ज्यादा भयावह समाज में व्याप्त धर्मान्धता ,जातीयता ,क्षेत्रीयता नितांत निंदनीय है। धर्म-मजहब के ठिकानों पर हो रहे व्यभिचार ,शोषण उत्पीडन और पूंजीवादी लूट की खुली छूट और गलाकाट प्रतियोगिता से समाज और देश को बचाने के लिए आज फिर किसी कार्ल मार्क्स ,किसी चाणक्य की किसी विचारधारा की जरुरत है।
सोचो ! सिकंदर यदि रस्ते में न मरता और मकदूनिया में जाकर अपने गुरु को उसकी मनचाही भेंट दे देता तो भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। यदि वो योगी आसाराम स्वामी रामदेव या भीमान्नद जैसा हुआ होता तो यूनान की क्या दुर्गति हुई होती ? गंगाजल ,तुलसी की माला और गीता तो जरुर वहां पहुंची होती , क्योंकि जब सिकंदर के सेनापति सेलुकस को हराकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसकी बहिन 'हेलेन ' से शादी की तो स्वाभाविक है की इन महत्वपूर्ण और पवित्र वस्तुओं को यूनान भेजे जाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई होगी। चन्द्रगुप्त के गुरु कौटिल्य चाणक्य भी यही चाहते होंगे की आर्यावर्त याने भारतवर्ष याने हिन्दुस्तान की गरिमा दुनिया में जाज्वल्यमान हो। किन्तु चाणक्य ने ११ हजार करोड़ की संपदा या अपनी कुटिया में 'वारांगनाओं' का अन्तःपुर नहीं वसाया था। वे किसी सेक्स स्केंडल में नहीं फँसे थे। रामदेव को और अन्य बाबाओं ,या हिन्दू साम्प्रदायिक नेताओं को यदि चाणक्य बनने का गुमान हो तो सत्ता सुन्दरी रुपी विष कन्या का सेवन करने से बचना होगा। शोषण की पूंजीवादी शक्तियों के हाथ का खिलौना बनने के बजाय देश के मेहनतकशों -मजदूरों और किसानों के बीच जाकर अपने आपको तपाना होगा। देश में किसी खास नेता का समर्थन या विरोध नहीं बल्कि जन-कल्याणकारी वैकल्पिक नीतियों के अनुसन्धान के साथ -साथ प्रजातांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का संवर्धन भी करना होगा। तभी कोई स्वामी ,कोई योगी ,कोई अष्टाबक्र ,चाणक्य या समर्थ रामदास बन पायेगा। राष्ट्र का मार्ग दर्शक बनने के लिए इस सूत्र पर अमल भी जरूरी है।
"यथा चित्तं तथा वाचो ,यथा वचस्तथा क्रिया,
चित्ते -वाचि क्रियाणाम ,साधुनाम च एकरूपता"
श्रीराम तिवारी
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