एक दिन स्वामी जी के दर्शनार्थ भारतवर्ष के सर्वमान्य संत, साधु समाज के भूषण, तपोमूर्ति महान वीतरागी महापुरुष श्री स्वामी रामसुखदास जी महाराज आये। स्वामी जी ने उन संत की प्रतिष्ठा के अनुरूप आसन दिया और स्वागत करवाया। थोड़े समय तक सत्संग हुआ, पश्चात श्री रामसुखदास जी अपने आसन से उठे और स्वामी जी के चरणों में अपना सिर रख दिया यह कहते हुए कि जब तक आप अपना वरद हस्त मेरे सिर पर नहीं रख देंगे तब तक मैं सिर नहीं उठाऊंगा।
स्वामी जी जो अपने को तृणादपि सुनीच समझने वाले, संत के व्यवहार को देखकर अवाक रह गए। बहुत विनय की तब भी सिर नहीं उठाया तब स्वामी जी ने अपने प्रधान शिष्य महान्त श्री हरिदास जी से कहा “इत्र लाइये” और अपनी दोनों हथेलियों में इत्र लगाकर श्री रामसुखदास जी के सिर पर यह कहते हुए हाथ रख दिए कि मैं आपको आशीर्वाद देने लायक नहीं हूँ। आपकी सेवा कर रहा हूँ सिर की चम्पी (मालिश) किये दे रहा हूँ।
मैं उस समय वहां था। उपरोक्त घटना को देखकर अब समझा कि स्वामी जी मेरे गुरुदेव भगवान के संबंध में कहे जाने वाले सभी विशेषण सत्य हैं। क्योंकि संत की महिमा को, उनके स्तर के कोई संत ही समझ सकते हैं, सामान्य व्यक्ति नहीं। कहावत भी है, “खग जाने खग ही की भाषा”।
श्री स्वामी जी के संबंध में परमार्थ पथ के पथिक सभी ग्रहस्थ, विरक्त महानुभावों की अत्यंत उत्कृष्ट गरिमामयी मान्यता रही है। अनुभवी भक्तों ने यह तथ्य पूर्णतया सप्रमाण स्वीकार किया है कि श्री स्वामी जी श्री जानकी जी के अग्रज, श्री जनक सुनैना जी के दुलारे लाल श्री प्रेम मूर्ति लक्ष्मीनिधि जी के अवतार थे जो जगत के कलिमल ग्रस्त जीवो को मिथिला रस का रसास्वादन कराकर भव पार करने के लिये साथ ही अपने बहनोई श्री राम जी को हर्ष प्रदान करने के लिये श्री राम हर्षण दास जी के रूप में अवतरित हुए थे।
श्री सीता जी के अग्रज स्वामी जी कितने उदार और कितने समर्थ थे कि पोड़ीं की श्री सीताराम विवाहोत्सव समैया में घोषणा कर दी कि जो भी जन प्रभु के इस महोत्सव में आए हुए हैं उन्हें निश्चय ही प्रभु श्री सीताराम जी के दिव्य साकेत धाम की प्राप्ति होगी। एक बार भगवत भक्तों के बीच परम समर्थ श्री स्वामी जी ने यह भी कहा था कि जो भी जन मुझ दास के माध्यम से प्रभु श्री सीताराम जी से जुड़े हैं ऐसे शिष्य और उन शिष्यों के शिष्यों को अब इस मायिक जगत में लौट कर नहीं आना है। उपरोक्त कथन के अनुसार श्री स्वामी जी के शिष्य, प्रशिष्य अपनी दिव्य वैष्णवीय परंपरा को समृद्ध और विवर्धित करते हुए स्वयं तो पार होंगे ही असंख्य भव ग्रस्त जीवो को पार लगाएंगे।
श्री स्वामी जी महाराज इस जगत में जब तक रहे जल में कमल की तरह रहे। उनके भगवत् प्रेम मय विशुद्ध अंतःकरण में काम, क्रोध, लोभ जैसे प्रबल विकारों का स्पर्श भी नहीं हुआ। सामान्य व्यक्ति अपने कलुषित मन से उन्हें ना समझ पाये यह बात और है।
स्वामी जी एक बार रीवा में अत्यंत समर्पित परिवार श्री प्रकाश नारायण जी के गृह में निवास कर रहे थे। प्रकाश नारायण जी की रूपवती युवा पत्नी तथा मन्नी जी आदि चार पुत्रियां जो जन्म से ही अपने गुरुदेव श्री स्वामी जी की पवित्र कृपा भरी दृष्टि से पलीं थीं, श्री स्वामी जी की सेवा में सब समय लगी रहतीं थीं। श्री स्वामी जी संपूर्ण नारी जगत में अपनी अनुजा श्री सिया जी का दर्शन करने वाली सुदृढ़ स्थिति में स्थित रहते थे।
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