मार्क्स-एंगेल्स की यह विश्वप्रसिद्ध सैद्धांतिक स्थापना कि सामंतवाद के गर्भ से पूँजीवाद का जन्म होता है और यह कुटिल पूंजीवाद ही सामंतशाही को खा जाता है! इस थ्योरी को तो दुनिया ने देखा-सुना-जाना और माना भी है! इसी तरह मार्क्स की यह स्थापना कि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा जो पूंजीवाद को खा जायेगा ! यह सिद्धांत अभी कसौटी पर खरे उतरने के लिए बहरहाल बहु प्रतीक्षित है !
किन्तु यह एक दिन यह अवश्य सच होकर रहेगा ! क्योंकि अधुनातन वैज्ञानिक भौतिक-अनुसंधानों की रफ्तार तेज होने,संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अति-उन्नत होते जाने, लोकतान्त्रिक,अभिव्यक्ति सम्पन्न उदारवादी पूंजीवाद के लचीलेपन ने पूँजीवाद को दीर्घायु तो बना दिया है,किन्तु अमरत्व पीकर तो कोई भी नहीं जन्मा! एक दिन आएगा तब ये लूट खसोट की व्यवस्था,उत्पादन के साधनों पर राज्य का अर्थात जनता के सामूहिक स्वामित्व का बोलवाला होगा!तब तक दुनिया में द्वंदात्मकता का सिद्धांत अमर रहेगा! भले ही तब हो सकता है कि दुनिया साम्यवादी व्यवस्था का कोई और विकल्प खोज ले !
किंतु दुनिया में कल्याणकारी राज्य का स्वरूप वैसा नही होगा, जो सोवियत संघ में था या जो आज चीन,क्यूबा,वियतनाम,उत्तर कोरिया और बैनेजुएला में है ! वह व्यवस्था जो भी होगी इन सबसे बेहतर और सबसे मानवीकृत ही होगी ! साम्यवाद से नफरत करने वाले चाहें तो उसे कोई और नाम देकर तसल्ली कर सकते हैं .किन्तु बिना सोचे समझे, बिना जाने-बूझे पूंजीवाद रुपी कुल्हाड़ी का बेंट बन जाने से अच्छा है कि अपेक्षित जन-क्रांति को एक अवसर अवश्य प्रदान करें!
यह सर्वविदित है कि एक बेहतर शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन, जाति-विहीन समाज व्यवस्था के हेतु से दुनिया भर के मेहनतकश निरंतर संघर्षरत हैं ,इस संघर्ष को विश्वव्यापी बनाये जाने कि जरुरत है .अभी तो सभी देशों और सभी महाद्वीपों में अलग-अलग संघर्ष और अलग-अलग उदेश्य होने से कोई दुनियावी क्रांति कि संभावना नहीं बन सकी है .इस नकारात्मक अवरोधी स्थिति के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं वे 'सभ्यताओं का संघर्ष ', आर्थिक मंदी ' 'लोकतंत्र 'के मुखौटे पहनकर दुनिया भर के प्रगतिशील जन-आंदोलनों कि भ्रूणह्त्या करते रहे हैं .जिस तरह कंस मामा ने इस आशंका से कि मेरा बधिक मेरी बहिन कि कोख से जन्म लेगा सो क्यों न उसको जन्मते ही मार दूं ? इसी प्रकार पूंजीवादी वैश्विक-गंठजोड़ बनाम विश्व बैंक,भ्र्स्टाचार की भित्ति पर उगी नवसंगठित कार्पोरेट सेक्टर रूपी अमरबेलि जैसी साम्राज्यवादी ताकतों ने कभी अपने पूंजीवाद-रुपी कंस को बचाने के लिए ;कभी चिली,कभी क्यूबा कभी भारत,कभी बेनेजुएला कभी सोवियत संघ ,कभी वियतनाम और कोरिया इत्यादि में जनता की जनवादी-क्रांतियों की जन्मते ही हत्याएं कीं हैं!
हालाँकि श्रीकृष्ण बचनाम्रत जैसे भगवद गीता रूपी साम्यवादी क्रांति के सूत्र भी दुनिआ में अजर अमर हैं! अत: पूंजीवाद रुपी कंस को एक दिन यमलोक जाना ही होगा!
पूंजीवादी साम्राज्यवाद अपने विरुद्ध होने वाले शोषित सर्वहारा के संघर्षों की धार को भौंथरा करने के लिए समाज के कमजोर वर्ग के लोगों में अपनी गहरी पेठ जमाने की हर सम्भव कोशिश करता है .पहले तो वह संवेदनशील वर्गों में आपस का वैमनस्य उत्पन्न करता है ,फिर उन्हें लोकतंत्र के सपने दिखाता है ,जब जनता की सामूहिक एकता तार-तार हो जाती है तो क्रांति की लौ बुझाने के लिए फूंक भी नहीं मारनी पड़ती .पूंजीवाद का सरगना अमेरिका है ;वह पहले सद्दाम को पालता है कि वो ईरान को बर्बाद कर दे ,जब सद्दाम ऐसा करते-करते थक जाए या पूंजीवादी केम्प के इशारों पर नाचने से इनकार कर दे तो कभी रासायनिक हथियारों के नाम पर ,कभी ९//-११ के आतंकी हमले के नाम पर सद्दाम को बंकरों से घसीटकर फाँसी पर लटका दिया जाता है .आदमखोर पूंजीवाद पहले तो अफगानिस्तान में तालिबानों को पालता है ,ताकि तत्कालीन सोवियत सर्वहारा क्रांति को विफल किया जा सके ,यही तालिबान या अल-कुआयदा जब वर्ल्डट्रेड सेंटर ध्वस्त करने लगें तो 'सभ्यताओं के संघर्ष' के नाम पर लाखों निर्दोष इराकियों ,अफगानों तथा पख्तूनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है . भले ही इस वीभत्स नरसंहार में हजारों अमेरिकी नौजवान भी बेमौत मारे जाते रहेँ. इन पूंजीपतियों कि नजर में इंसान से बढ़कर पूँजी है ,मुनाफा है ,आधिपत्य है ,अभिजातीय दंभ है .
पूंजीवादी साम्राज्यवाद कभी क्यूबा में ,कभी लातीनी अमेरिका में , कभी मध्य-एशिया में और कभी दक्षिण- एशिया में गुर्गे पालता है .हथियारों के जखीरे बेचने के लिए बाकायदा दो पड़ोसियों में हथियारों कि होड़ को बढ़ावा देता है जब दो राष्ट्र आपस में गुथ्म्गुथ्था होने लगें तो शांति के कबूतर उड़ाने के लिए सुरक्षा-परिषद् में भाषण देता है .जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता उसे वो धूल में मिलाने को आतुर रहता है .व्यपारिक ,आर्थिक प्रतिबंधों कि धौंस देता है .
दक्षिण एशिया में भारत को घेरने कि सदैव चालें चलीं जाती रहीं हैं .एन जी ओ के बहाने ,मिशनरीज के बहाने ,हाइड एक्ट के बहाने अलगाववाद ,साम्प्रदायिकता और परमाण्विक संधियों के बहाने भारत के अंदर सामाजिक दुराव फैलाया जाता है . बाहर से पड़ोसियों को ऍफ़ -१६ या अधुनातन हथियार देकर , आर्थिक मदद देकर भारत को घेरने कि कुटिल-चालें अब किसी से छिपी नहीं हैं .
जो कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व हैं वे अमेरिकी नाभिनाल से खादपानी अर्थात शक्ति अर्जित करते हैं . अधिकांश बाबा ,गुरु और भगवान् अमेरिका से लेकर यूरोप तक अपना आर्थिक-साम्राज्य बढ़ाते हैं .ये बाबा लोग नैतिकता कि बात करते हैं .देश कि व्यवस्था को कोसते हैं किन्तु पूंजीवाद या सरमायेदारी के खिलाफ ,बड़े जमींदारों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते .कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक अपने-अपने धरम मजहब को व्यक्तिगत जीवन से खींचकर सार्वजनिक जीवन में या राजनीति में भी जबरन घसीट कर देश कि मेहनतकश जनता में फ़ूट डालने का काम करते हैं .प्रकारांतर से ये पूंजीवाद कि चाकरी करते हैं .पूंजीवाद ही इन तत्वों को खाद पानी देता है इसीलिये आम जनता के सरोकारों को -भूंख ,गरीबी ,महंगाई ,बेरोजगारी ,लूट ,हत्या ,बलात्कार और भयानक भ्रष्टाचार इत्यादि के लिए किये जाने वाले संयुक्त संघष -को वांछित जन -समर्थन नहीं मिल पाता.यही वजह है कि शोषण और अन्याय कि व्यवस्था बदस्तूर जारी है .देश कि आम जनता को ,मजदूर आंदोलनों को चाहिए कि राजनैतिक -आर्थिक मुद्दों के साथ - साथ जहाँ कहीं धार्मिक या जातीय-वैमनस्य पनपता हो ,धर्मान्धता या कट्टरवाद का नग्न प्रदर्शन होता हो ,देश की अस्मिता या अखंडता को खतरा हो ,वहां-वहां ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वर्ग-संघर्ष की चेतना से लैस होकर प्रभावशाली ढंग से मुकबला करें .कौमी एकता तथा धर्म-निरपेक्षता की शिद्दत से रक्षा करें .किसी भी क्रांति के लिए ये बुनियादी मूल्य हैं ,पूंजीवादी-सामंती ताकतें इन मूल्यों को ध्वस्त करने पर तुली हैं और यही मौजूदा दौर की सबसे खतरनाक चुनौती है .इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की एकता और उसके सतत संघर्ष द्वारा ही सक्षम हुआ जा सकता है. .
श्रीराम तिवारी
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