कुछ नगण्य अपवादों को छोड़कर आजादी के बाद से ही अधिकांस चरित्रहीन,धनलोलुप और बदमास लोग ही राजनीति पर काबिज रहे हैं। देश के दुर्भाग्य से ऐंसे लोग सत्ता पाते रहे हैं जो किसी 'क्रांति' के बारे में,स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों के बारे में, शहीद भगतसिंह चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरू, बिस्मिल अशफाक उल्ला जैसे क्रांतिकारियों की सोच और विचारधारा के बारे में कुछ नहीं जानते।
यदि जानते होते तो वे आज 'नमक से नमक नहीं खाते'। प्रगत -एंड्रॉइड सेल फोन और अत्याधुनिक इंटरनेट सहज संचार सुविधाएं सुलभ होने के वावजूद भी भारत की युवा पीढ़ी का शैक्षणिक स्तर इस कदर गिर चुका है कि इक्कीसवीं शताब्दी के इक्कीसवें साल में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा पर राष्ट्रनायकों को आँसू बहाने पड़ रहे हैं!
योग्यता से नही बल्कि जातिय आरक्षण से नौकरी पाये मास्टर साहब हों या रिस्वत देकर नौकरी में आये बुर्जुआ पुत्र/पुत्रियां हों इनमें से अधिकांस नहीं जानते कि इण्डिया 'और भारत में क्या फर्क है ? 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता' किस चिड़िया का नाम है ? *राज्य* की परिभाषा क्या है ? कुछ तो ऐंसे हैं जो धर्म और मजहब का अंतर भी नही जानते! पाणिनी की *अष्टाध्यायी* तो महा पंडितों के अध्यन तक सीमित रह गई है!
यदि देश के मध्यमवर्गीय और बुर्जुवा समाज की सोच ही 'खाप स्तर' की है! इन हालात में इस महान राष्ट्र का तो 'ईश्वर ही मालिक' है।
सामन्ती दौर में कहावत हुआ करती थी कि ''यथा राजा तथा प्रजा ''! लेकिन पूंजीवादी लोकतंत्र में यह सिद्धांत लागू नहीं होता। बल्कि अब तो ज़माना पब्लिक डेमोक्रेसी का है ! इसलिए ''यथा जनता तथा नेता'' वाला सिद्धांत लागू हो रहा है।
सिद्धांतानुसार अब जनता की सोच और रूचि के अनुसार ही राजनीतिक नेता और राजनैतिक दल सत्ता में होंगे। पूँजीवादी लोकतंत्र की यही रीति है ! अत: राजनेताओं की हर गलत बात की आलोचना तो होनी ही चाहिये! किंतु जनताको अपनी आत्मालोचना करते रहना चाहिये! जनता को विधि निषेध का और राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्व का ध्यान अवश्य रखना चाहिये!
क्योंकि *हम सुधरेंगे जग सुधरेगा*
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