यह किसी प्रगतिशील या क्रांतिकारी कवि के बोल-बचन नहीं हैं। बल्कि किसी भक्त कवि ने ही यह साहित्यिक काव्यात्मक निषेध व्यक्त किया है। यदि कोई भाषा और उसका साहित्य जनता के दुःख दर्द पर मौन है यदि शोषण उत्पीड़न के खिलाफ कोई शब्द ही इन सम्मेलन आयोजकों के पास पास नहीं है तो काहे का सम्मेलन और काहे की भाषा और काहे का साहित्य ? साहित्य समाज का दर्पण हो या न हो किन्तु अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ,भाषा के विकास के लिए - शासकों का लोकतांत्रिक आचरण जरुरी है ! भाषा विमर्श में सहमति और सहिष्णुता जरुरी है । इस तरह के प्रस्ताव यदि प्रस्तुत विश्व हिंदी सम्मेलन में पारित किए जाते तो कोई और बात होती।
हिंदी -हिन्दू - हिन्दुस्तान ,ये शब्द भले ही आज 'भारत' राष्ट्र की पहचान बन चुके हैं ,किन्तु भारतीयता और राष्ट्रवाद का ढपोरशंख बजाकर देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का दोहन कर,सत्ता हस्तगत करने वाले वर्तमान तथाकथित 'हिन्दी प्रेमी शासकों' को स्मरण रखना चाहिए कि 'हिंदी -हिन्दू-हिन्दुस्तान ' जैसे शब्द तो यवन- अरबी-फारसी विद्वानों द्वारा ही गढ़े गए हैं। इन मुगलकालीन शब्दों का उदभव अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह संस्कृत , पाली -प्राकृत इत्यादि भाषाओँ से नहीं हुआ है। ये संज्ञाएँ न तो संस्कृत भाषा के तत्सम् शब्द हैं ,न ही इनका जन्म द्रविड़ परिवार की भाषाओँ के धातुइ -विचक्षण से हुआ है। दरसल इन शब्दों के सृजन ,प्रचलन और लोकमान्यकरण की प्रक्रिया में उर्दू -फारसी लेखकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सिंध इण्ड , इण्डस ,हिन्द , हिन्दोस्ताँ ,हिंदवी से आगे वर्तमान 'हिन्दी ' तक की महायात्रा में सिर्फ विदेशी यायावरों की महती भूमिका रही है। इसलिए यह महा कृतघ्नता ही होगी कि जब इन शब्दों के विमर्श की बात हो तब उर्दू -फारसी के अवदान को और उस सचाई को भी नकार दिया जाए ,जिसे गंगा -जमुनी तहजीव कहते हैं।
वेशक संस्कृत वांग्मय ,पाली,प्राकृत ,द्रविण भाषा परिवार और अन्य भारतीय भाषाओँ की अपनी विशिष्ठ साहित्यिक -सांस्कृतिक समृद्धि दुनिया में वेमिशाल है। इन सभी का विस्तृत इतिहास और भूगोल है। आज जिस 'हिन्दी' भाषा ने भारत की तीन-चौथाई धरती पर अपना सिक्का जमा रखा है , वह आजादी के ६८ साल बाद भी देशी काले शासकों की क्रीत दासी मात्र है। गांधी जी ,टंडन जी , पंत जी और मदनमोहन मालवीय जैसे अनेक महामनाओं की बदौलत ,जिसे भारतीय संविधान में राजभाषा का दरजा तो प्राप्त है किन्तु आज भी वह देश के राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर पर हेय दॄष्टि से देखी जाती है। राजभाषा के या हिंदी साहित्य के किसी भी नवीन -विमर्श में ,नूतन सरकारी आयोजन में ,अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जाता है। जबकि हिन्दी की चिंदी ज्यों की त्यों बरक़रार रहती है। सरकारी दफ्तरों में,सार्वजनिक उपक्रमों में और विभिन्न सरकारी -अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों में राजभाषा अधिकारी के नामपर जिन लोगों को नौकरी मिलती है ,जिनकी रोजी -रोटी चलती है वे हिंदी की चिंदी करने में सबसे आगे हैं। हिन्दी का प्रचार -प्रसार तो वे करने से रहे किन्तु खुद की दो-चार 'सस्ता-साहित्य' किस्म की दो चार किताबें छपवाकर ,दो -चार अपने बड़े साहब की बीबी की घटिया कवितायें छापकर , साल में एक बार हिन्दी सप्ताह ,या हिन्दी पखवाड़ा या हिन्दी की काव्य गोष्ठी आयोजित करवाकर वे हिंदी की सेवा करते हैं। खर्चों का बिल सरकारी खजाने के हवाले। रामजी की चिड़िया ,रामजी का खेत ,खाओ प्यारी चिड़िया भर-भर पेट। किसी भी हिंदी अधिकारी को एक लाख रुपया महीना से कम वेतन -भत्ते नहीं मिलते । कुछ तो विभाग में केवल पुस्तक पढ़ने या गप्प मारने के बाद भी बड़े नामचिन्ह हो जाते हैं। कुछ सेवा निवृत्ति उपरान्त हिंदी की दूकान खोलकर भी बैठ जाते हैं। उनसे यदि पूँछो कि उदभिज ,स्वेदज ,अण्डज और जरायुज इन चार हिंदी शब्दों का आपस में रिस्ता बताइये तो वे आएं-बाएं करने लगेंगे ! जबकि ये चारों शब्द भारतीय वांग्मय के मेरुदण्ड हैं। सम्मेलन में तो खास तौर से ' हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान' वाली सोच -समझ के ही ग्यानी पहुंचे होंगे ! यदि वे कार्ल मार्क्स ,एंगेल्स ,हीगेल ,गैरी बाल्डी , रूसो , वाल्ट्येर या वड्सवर्थ को नहीं जानते हों तो कोई बात नहीं किन्तु उन्होंने महापंडित राहुल सांकृत्यायन या डॉ सर्व पल्ली राधाकृष्णन को या 'भारतीय दर्शन' को तो अवश्य ही पढ़ा होगा ! यदि वह भी नहीं पढ़ा तो आसाराम जैसे 'संत' को तो अवश्य ही सुना होगा। बस उसी अंदाज के हिंदी शब्दों को ही समझ बूझ लें तो बड़ी गनीमत और सम्मेलन सफल मान जाएगा।
यह सर्वज्ञात है कि किसी भी उत्तरआधुनिक विमर्श को,किसी भी प्रगतिशील विमर्श को , स्वाधीनता संग्राम के किसी भी विमर्श को पढ़िए उसमें जो भाषा -साहित्य है वही 'हिंदवी' ही भारत की असली राष्ट्रभाषा हो सकते है। और यह भाषा उर्दू-फ़ारसी शब्दों ,देशज शब्दों , जन संवेदी क्रांतिकारी आचरण से लवरेज है यदि इस पर कोई चर्चा नहीं की गयी तो फिर कहाँ पडेगा की -
उस भजन को गाना न चहिये ,जिस भजन में राम का नाम न हो ! अर्थात उस विमर्श में जाना न चईये जहाँ 'जनता की आवाज न सुनी जाती हो !
श्रीराम तिवारी
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