आरक्षण पाने वालों के असली दुश्मन कौन ?
एक वर्मा जी बहुत बड़े अधिकारी (आरक्षण से लाभान्वित) हैं... आलीशान मकान .. बड़ी गाड़ी.. अच्छा बैंक बैलेंस.. दो बच्चे.. अच्छा और सक्षम परिवार..!
वर्मा जी का एक सगा भाई है.. बहुत ही सामान्य आर्थिक स्थिति.. कच्चा मकान.. लकड़ी के ठेले से मिट्टी ढोकर जीवन यापन करते हैं... एक बेटा है..!
अधिकारी वर्मा जी ने अपने बेटे को कस्बे से शहर के सबसे अच्छे कान्वेंट स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया.. भेजना भी चाहिए.. आखिर शिक्षा ही तो समाज मे जागरूकता पैदा करती है..!
गरीब वर्मा जी ने अपने इकलौते बेटे को मुफ्त दलिया और किताबों के कारण कस्बे के सरकारी स्कूल में एडमिशन करा दिया... आजकल सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से तो सब वाकिफ हैं..!
अब दोनों के बेटे परीक्षा में बैठे... सुविधाओं की बाहुल्यता वाले वर्मा जी के कान्वेंट स्कूल से पढ़े बेटे के नम्बर अच्छे आये और गरीब वर्मा जी के बेटे के नम्बर उससे काफी कम आये...!
अब दोनों ने सरकारी नौकरी के लिये फॉर्म डाला...
अधिकारी वर्मा जी और गरीब वर्मा जी के बेटे के फॉर्म का खर्चा बराबर आया..!
अब जब आरक्षण के लाभ का मौका आया तो आरक्षण के मानक में अधिकारी वर्मा जी के बेटे को वरीयता मिली क्योंकि उसके नम्बर भी ठीक थे.. उसे सरकारी नौकरी मिल गई...!
गरीब वर्मा जी का बेटा अपने बाप के साथ ठेले के काम मे लग गया...!
अब अधिकारी वर्मा जी के घर में दो नौकरी हुई गईं और गरीब वर्मा जी के घर का हाल तो आप समझ ही रहड़ होंगे...!
अब मेरा सवाल ये है कि जब आरक्षण दलितों की आर्थिक स्थिति और उनका जीवन सामान्य बनाने के सहयोग की प्रक्रिया है तो इसमें उस गरीब का हक किसने खाया?
असल में आरक्षण की जरूरत किसे थी?
क्या आरक्षण का ये रूप गरीब वर्मा जी को कभी अधिकारी वर्मा जी के समकक्ष बना पायेगा?
समाज में वंचित, शोषित,आर्थिक कमजोरों के उत्थान के लिए आरक्षण एक वरदान है इसे मैं सहजता से स्वीकारता हूँ और पूर्णतः समर्थन भी करता हूँ..!
लेकिन क्या आज आरक्षण का ये प्रारूप वास्तव में वंचित,शोषित,आर्थिक कमजोर लोगों के उत्थान के उपयोगी साबित हो रहा है?
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