लूट की तेरी सदी कब तक रहेगी।
आंसुओं की यह नदी कब तक बहेगी।
मुद्दतों से प्रश्न बनकर डटे तो हैं,
जवाबों की मुल्तवी कब तक रहेगी।
कांटों पर लेटा पड़ा है यह ज़माना,
झूठ की यह गुदगुदी कब तक डसेगी।
चोटियों संग जिन्दगी मुमकिन नहीं है,
कभी भी तो पटकनी तुमको खलेगी।
साये में संगीन के कब तक रहोगे,
कब तक यह गुमसुदी तेरी छिपेगी।
फकीरों - सा जब टहल कर देखियेगा,
क्या पता बारूद भी चखनी पड़ेगी
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