॥#मुनीम_साहब॥•
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हमारे यहाँ एक मुनीम साहब थे, जोड़ घटाने में अत्यंत निपुण। बाबूजी उनको समाधानी कहते थे, ऐसा नही है कि वे हर समस्या का समाधान करना जानते थे, लेकिन उनसे मिलकर समस्याग्रस्त व्यक्ति शांति का अनुभव करता था।
इसका कारण मात्र इतना था कि यदि किसी व्यक्ति ने अपनी किसी समस्या का ज़िक्र उनसे किया तो मुनीम साब तुरंत बताते की वे स्वयं उस समस्या से बहुत लम्बे समय से जूझ रहे हैं। यदि कोई उनके पास रोता हुआ पहुँचता तो मुनीम साहब उसकी बात सुनते-सुनते उससे भी अधिक ज़ोर से रोने लगते थे, मुनीम साहब को रोता देखकर वो व्यक्ति अपना रोना भूलकर उनको चुप करने में व्यस्त हो जाता था।
एक दिन मैंने जिज्ञासावश उनसे पूछा की वे ऐसा क्यों करते हैं ?
मुनीम साहब बोले- आदमी को समाधान से ज़्यादा तसल्ली, दूसरे की समस्या से मिलती है। अधिकतर लोगों को अपने दर्द की दवाई नहीं बल्कि हमदर्द चाहिए होता है, हमदर्दी दिखाने से उस पीड़ित व्यक्ति को लगता है की वो अकेला नहीं है जो कष्ट से जूझ रहा है, सम पीड़ा का भाव उसको चिंतामुक्त करते हुए आनंद से भर देता है।
मैंने कहा- लेकिन इससे उनकी समस्या तो समाप्त नहीं होती, वो तो जैसी की तैसी बनी रहती है।
वे बोले- ये ऐसे लोग हैं की इनको समस्याग्रस्त रहने में सुख मिलता है, आप इनकी एक समस्या का समाधान कर दो, तो ये तत्काल दूसरी समस्या पर अपना सिर पिटने लगेंगे।
मुझे अपनी बात से सहमत होते ना देखकर वे मुझे समझाने की नियत से बोले- अच्छा एक बात बताओ, परेशानी समाप्त होने से इंसान को क्या मिलता है ?
मैंने कहा- सुख मिलता है।
मुनीम साहब बोले- इंसान इतना मट्ठर हो गया है की अगर उसकी परेशानी तत्काल समाप्त कर दी जाए तो उसको सुख नहीं, बल्कि दुःख मिलता है। इसलिए किसी की परेशानी तुरंत समाप्त नहीं करनी चाहिए, टुंगा-टुंगा ( तरसा कर ) के समाप्त करनी चाहिए। क्योंकि आदमी की बुद्धि इतनी मोटी हो गई है की उसको पता ही नहीं चलता की वो सुखी है या दुखी ? इसलिए हम जैसे समाधानी पहले सामने वाले के दुःख को बढ़ाते हैं उसके बाद उसको जहां का तहाँ वापस लाकर खड़ा कर देते हैं, तब सामने वाले को लगने लगता है की वो सुखी है।
अपने तर्क से मुझे राज़ी होते ना देखकर मुनीम साहब बोले- तुम्हारी समझ में ऐसे नहीं आएगा हम तुमको इसका प्रैक्टिकल करके दिखाते हैं। और वे मुझे अपने साथ गल्ला मंडी में ले गए, पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हुए एक अपरिचित व्यक्ति से उन्होंने नमस्कार करते हुए पूछा- क्यों भाई ज़िंदगी में सुख है ?
उस अपरिचित ने रुखाई से कहा- पता नहीं !
उन्होंने फिर पूछा- तो क्या तुम्हारी ज़िंदगी में दुःख है ?
उस व्यक्ति ने कुछ सोचते हुए कहा- पता नहीं !
इतना सुनना था की मुनीम साहब ने उस आदमी का झोला छुड़ाया और दौड़ लगा दी ! सरे आम अपने झोले को चोरी होते देखकर वह आदमी चीखते हुए मुनीम साहब के पीछे भागा, मुनीम साहब आगे-आगे और वो आदमी रोते कलपते हुए उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा था ! मुनीम साहब उस आदमी को क़रीब १५ मिनिट तक गोल-गोल दौड़ाते रहे और फिर ग़ायब हो गए।
वो आदमी थककर एक जगह बैठ गया और दहाड़ें मारते हुए कहने लगा- मैं लुट गया, बर्बाद हो गया। जब वो रोते-रोते भी थक गया और एकदम हताश, बेहाल हो गया तब मुनीम साहब आए और उसका झोला बहुत सम्मान से उसे वापस करते हुए बोले- लो अपना झोला और अब बताओ ज़िंदगी में सुख है ?
उस आदमी ने झोले को लपककर अपनी छाती से चपेटते हुए कहा- हाँ, बहुत सुख है बाबू साब, भगवान आपका भला करे। उसने झुक कर मुनीम साहब के पैर पड़े और वहाँ से चलता बना।
मुनीम साहब ने मेरी ओर गर्व से देखते हुए पूछा- बात समझ में आयी ? हमने इसी का झोला, इससे छुड़ाकर, इसी को वापस किया तो इसको जीवन में सुख का अहसास हुआ। नहीं तो इसे पता ही नहीं था की जीवन में सुख है या दुःख ? छोटे भैया, याद रखो यदि तुम इंसान को सुख देना चाहते हो तो पहले उसका सुख छुड़ाकर उसको दुखी करो। ये सिद्धांत है जितना बड़ा दुःख उतना ही बड़ा सुख।
मेरे किशोर मन को अपनी बात समझने का प्रयास करते देख मुनीम साहब बोले- तुम अभी छोटे हो तुमको यह बात अभी समझ में नहीं आएगी, कष्ट में बड़ी शक्ति होती है। ये इंसान को तोड़ता भी है और जोड़ता भी है। जब तक कष्ट बना रहता है तब तक आदमी कष्ट देने वाले से जुड़ा रहता है, कष्ट समाप्त होते ही रिश्ते भी समाप्त हो जाते हैं, कष्ट के रिश्ते इष्ट के रिश्ते के जैसे होते हैं।
अचानक मुनीम साहब “तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना”.. इस गाने को गुनगुनाते हुए पान की दुकान की ओर बढ़ गए।
साभार ~#आशुतोष_राना
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