गुरु पूर्णिमा पर देश के विद्द्वत जनों को नमन …!
सभी' दर्शनों' मतों और सभ्यताओं पर सरसरी नज़र डालने से ही स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है कि दुनिया के तमाम धर्म-मजहब और पंथ किसी न किसी प्राचीन कबीले या सभ्यमानव समूह द्वारा तत्कालीन दौर की आवश्यकताओं के मद्देनजर स्थापित किये गए जाते रहे होंगे . कबीलों के मुखिया या उस कबीले में उपलब्ध आध्यत्मिक चेता और उदात्त चरित्र के जिन व्यक्तियों ने अपने पूर्वजों के सार्थक अनुभवों को अपनी तात्कालिक -लौकिक -पारलौकिक और सामूहिक जिजीविषा के अनुभवों को कबीले के कल्यार्थ संहिताबद्द किया होगा वे 'गुरु' कहलाये ,और उनके जिन उत्तर्वर्तियों ने इस मानवीय विधा को सातत्य प्रदान किया होगा वे 'शिष्य' कहलाने लगे . याने गुरु शिष्य परम्परा का प्राकट्य सार्वभौम और सर्वकालिक है . भारत में यह परम्परा 'वेदों ' से ही प्रारम्भ हो चुकी थी . उपनिषद कल में यह'गुरु-शिष्य 'परम्परा परवान चढ़ी और आज तक बरकरार है .
'भारत'में आषाढ़ की पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा ' के रूप में मनाया जाता है . यह महर्षि व्यास की पूजा -अर्चना के लिए भी सुविदित है . मैंने ' भारत ' की जगह हिन्दू' जानबूझकर नहीं लिखा, क्योंकि 'हिन्दू' शब्द की उत्पत्ति अर्वाचीन है और यह संज्ञा सूचक नाम समस्त भारतीयों के लिए था , जिसे पश्चिम एशिया से आये यायावरों या हमलावरों और खास तौर से तुर्कों और फारसियों ने दिया था . जबकि 'गुरु पूर्णिमा ' के मनाये जाने की परम्परा पांच हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है . जैसा कि जर्मन दार्शनिक मक्स्मूलर ने निर्धारित किया है कि दुनिया का सबसे प्राचीन ग्रंथ ' ऋग्वेद ' है और चूँकि इस में उपलब्ध मन्त्रों के 'मंत्रदृष्टा ' ऋषियों ' को ही कालान्तर में 'गुरु ' माना गया है . चूँकि महर्षि वेद व्यास ने चारों वेदों , अठारह पुराणों,सेकड़ों उपनिषदों,आरण्यकों और ब्राह्मण ग्रंथों का पुन्रसम्पादन किया था और वे श्रीमद्भागवत-पुराण तथा 'महाभारत ' के रचनाकार थे अतएव उनकी विराट शिष्य मण्डली ने उनकी विराट' साहित्यिक धरोहर ' को अक्षुण बनाए रखने के लिए 'गुरु -शिष्य ' परम्परा को सुध्रुढ़ बनाया . उन्हें पांडवों के वंशजों का राज्याश्रय प्राप्त था और उनके महान क्रन्तिकारी तपोनिष्ठ पुत्र 'शुकदेव ' का मार्ग दर्शन प्राप्त था .
भारत में वैदिक वाङ्ग्य्मय के अलावा अधिकांस धार्मिक ,आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य का सृजन गैर ब्राह्मण कवियों ,संतों ,ऋषियों और समाज सुधारकों ने ही किया है . ऋषि नारद दासी पुत्र थे जिन्होंने 'नारद संहिता ' की रचना की थी . महर्षि बाल्मीकि अपनी जवानी के दिनों में 'रत्नाकर डाकू ' थे जो ' मरा-मरा ' के कहते -कहते ' कविकुल गुरु ' हो गए . ऋषि अगस्त , विश्वामित्र ,जाबाली और काग्भुसुंड में से कोई भी ब्राह्मण नहीं था किन्तु ये तमाम 'गुरु जन ' समस्त भारत की जनता के न केवल पथ प्रदर्शक अपितु वन्दनीय भी थे और आज भी है . महर्षि वेद व्यास की माँ 'सत्यवती' एक मछुआरे की बेटी थी जो कुँआरे में ही
' पराशर ' के पुत्र की माता बनी थी . पराशर भी ब्राह्मण नहीं थे वे शैव मत के अनुयाई होकर 'वाम मार्गी' थे जो कि'कन्या पूजन ' के लिए कुख्यात थे . ब्राह्मण या वैष्णव परम्परा और दर्शन तो इस अघोरपंथी कर्मकांड के विरुद्ध था. अतः यह बहुत स्पष्ट है कि महर्षि वेद व्यास 'ब्राह्मण' कतई नहीं थे . भले ही उनका समग्र ज्ञान भण्डार किसी को ब्राम्हण वादी लगता हो किन्तु यह तथ्यान्वेषण अकाट्य है . जिस पुस्तक को लोग ब्राम्हण वादी कहा करते हैं ,जिसे लेकर आधनिक समाज में भी अलगाव की कोशिशें की जातीं रहीं हैं, जो 'मनु स्मृति ' के नाम से प्रसिद्ध है , उसके रचनाकार और उद्घाटक'स्वायम्भुव मनु ' इक्ष्वाकु वंश केप्रतापी क्षत्रिय राजा थे जिनकी रानी 'शतरूपा थी . उन्होंने अपनी रचना में तत्कालीन'भारतीय ' समाज के लिए कुछ दिशा निर्देश और आचार-विचार संपादित किये थे . जो अधिसंख्य भारतीय यथावत पालन करते चले जा रहे हैं . इस पुस्तक को भले ही ब्राह्मण वादी कहा जाता है किन्तु यह किसी ब्राह्मण की कृति नहीं है . भारतीय [हिन्दू ] परम्परा में मनु को भी ऋषि तुल्य याने'गुरु ' माना गया है .
भारतीय स्थापित मूल्यों को जाने बिना ही कुछ लोग भारत के 'संत साहित्य ' या कहें भारतीय दर्शन से प्रेरित मेथोलाजी ' में विद्द्य्मान 'अप्रिय ' प्रशंगों और मान्यताओं को ब्राह्मण वादी बताकर उस सत्य को भी ध्वस्त करते आये हैं जो अधिकांस गैर ब्राह्मणों द्वारा ही स्थापित किये गए हैं . कुछ लोग कबीर को शायद इसलिए मुफीद मानते हैं कि वे हिन्दू-मुसलमान दोनों की खिल्ली उड़ाते थे . कबीर ने तत्कालीन समाज की कुरीतियों और शोषण कारी ताकतों का मान मर्दन किया है , वे वेदों और कुरआन का भी सम्मान नहीं करते थे क्योंकि वे पढ़े -लिखे नहीं थे और वेद तो क्या वे 'गायत्री मन्त्र ' भी नहीं पढ़ सकते थे . चूँकि वे सभ्रात्न्त वर्ग से इतर अधिसंख्य जनता के जैसे थे और उसी की भाषा में बात करते थे अतएव जन-मानस में छा गए . घोर ब्राह्मण विरोधी कबीर ने भी अपना 'गुरु ' बनाया और ब्राह्मण को ही बनाया और जिद से धोखे सेगंगा घाट पर रात के अँधेरे में सीढ़ियों पर लेटकर ,स्वामी रामानन्द' के पैरों की ठोकर खाकर कबीर ने दीक्षा ली' . रामानंद के मुख से निकले शब्द 'राम-राम' को ही तो कबीर ने आजीवन गुरु माना .कबीर ने 'गुरु' को भगवान् से भी बड़ा बताया है ;-
गुरु गोविन्द दोउ खड़े ,काके लागुन पाय ;
बलिहारी गुरु आपकी , गोविन्द दियो मिलाय . .
जो लोग कबीर को जनवादी ,प्रगतिशील मानकर उन्हें चने के झाड पर चढ़ाकर 'वर्ण -संघर्ष ' की चेष्टा करते आये हैं उन्हें शायद ये सब मालूम ही न हो . कबीर आज दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय 'गुरु' हैं और उनके शिष्यों की तादाद भारत में करोड़ों में है , जब 'गुरु परम्परा ' ब्राह्मण वादी है तो इसतथाकथित ब्राह्मणवादी ' परम्परा का अनुशरण क्यों किया जा रहा है ? गीता 'श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकली और वेद व्यास ने अपने विराट ग्रन्थ' महाभारत ' के भीष्म पर्व ' में उसे यथावत उद्दृत किया है या संपादित किया है . भगवान् श्रीकृष्ण 'पिछड़े वर्ग याने 'यादव' वंश के थे और वेद व्यास 'वर्णशंकर ' समाज से थे. ये दोनों ही ब्राह्मण नहीं थे फिर क्यों लोग'भगवद गीता ' को ब्राह्मण वादी मानते हैं ?पुरातन पंथी या सामंतवादी ठप्पे के डर से हमारे प्रगतिशील साहित्यकार और विचारक भी सच लिखने और कहने से बचते हैं ,क्या कोई मार्क्सवादी गीता को पढ़े बिना बता सकता है किवो तो ब्राह्मण वादी सिद्धांतों की पोथी है ? मनुस्मृति के आद्द्योपांत पढ़े बिना ही उसके कुछ उद्धरण पेश कर उसे 'अवांछनीय ' पुस्तक करार कर दिया गया और हमारे प्रचंड क्रान्तिकारी विचारक 'हंस जैसी पत्रिकाओं में उस पर निरंतर हल्ला बोलते रहते हैं . क्या यह जातीय पक्षधरता और अन्याय नहीं है ?
ज्ञान केवल ब्राह्मणों की बपौती नहीं है और अतीत का सब कुछ जो साहित्य उपलब्ध है वो सब ब्राह्मणों के द्वारा ही नहीं रचा गया . दक्षिण भारत में ,महारष्ट्र में और आंध्र में अनेकों सुप्रसिद्ध विचारक ,संत कवि और साहित्य कार हुए हैं जो ब्राह्मण नहीं थे किन्तु वेदों ,पुराणों , रामायण , महाभारत पर उनकी टीकाएँ संसार भर में प्रसिद्ध हैं . वेशक आज भारत में जो कुछ भी मानवीय है ,प्रगतिशील है वह निसंदेह प्रजातंत्र के रूप में सर्वमान्य है और यह भारत में फ्रांसीसी क्रांति ,अमेरिकन क्रांति और ब्रिटेन की पूँजीवादी क्रांति का 'सारतत्व ' है . लेकिन इसके कुछ नैतिक और राजनैतिक मूल्य मध्ययुगीन भारत में 'बौद्ध और जैन ' युग से पूर्व 'महाजनपदों ' के रूप में विद्द्य्मान थे. इन नए पंथों के आगमन के बाद भारत 'अहिंसा' की 'अँधेरी सुरंग में चल पड़ा और जब बाहर निकला तो देखा की वो तो गुलाम हो चूका है . भारतीय इतिहास की इन भयंकर भूलों पर किसी का ध्यान शायद न गया हो किन्तु अंग्रेजों को ये सब मालूम था अतएव भारत की जनता को बाँटने-लड़ाने के लिए भारतीय वाङ्ग्मय-आगम-निगम - पुराणोंऔर उसके खास रक्षकों याने ब्राह्मणों को गैर ब्राह्मणों की दुर्दशा का कारण घोषित किया और हर समाज और जात से इन अंग्रेजों ने अपने बफादार तैयार भी किये . इन्ही चापलूसों को उन्होंने इस्तेमाल कर देश को बाँटने का काम किया . अंग्रेज तो बचे खुचे भारत को भी कई और टुकड़ों में बांटने के लिए प्रयासरत थे किन्तु 'महात्मा गाँधी ' और तत्कालीन धर्मनिरपेक्ष नेतत्व की बदौलत मामला शांत किया गया .
भारत में निसंदेह प्रगतिशील तत्व जर्मन ,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा के माध्यम से ही आये . किन्तु उससे पहले भारत में फारसी और उर्दू इंकलाबी भाषा थी जिसने शहीद भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारियों को तराशा इन भाषाओँ के बरक्स हिन्दी और उसकी जननी 'संस्कृत ' केवल अतीत के गुणगान में लगी रही , दुनिया बहुत आगे निकल गई और भारत के 'गुरु ' केवल पाद पूजन करवाने में लगे रहे . राजनीतिग्य और विचारक अपनी प्रगतिशीलता का शौर्य दिखाने के लिए 'ब्राह्मणवाद' के काल्पनिक तराने गाते रहे . इसीलिये आज भारत की खुद की कोई राह नहीं है . पहले वो सामन्तवाद के पैरों में कुचला जाता रहा ,अभी पूँजीवाद के शिकंजे में कराहता हुआ ओउंधे मुँह पड़ा है . अब तो समाजवादी समाज और जनवादी जनतंत्र के लिए आज के गुरुओं को सोचना चाहिए .
श्रीराम तिवारी
१ ४ - डी , एस-४ स्कीम -७ ८
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें