रविवार, 4 जुलाई 2021

‛नदी के द्वीप....

 पिछले कई दिनों के अज्ञातवास के दौरान कुछ किताबें पढ़ी लेकिन जिस पुस्तक ने मेरी चेतना व चिंतन धारा के समक्ष कई गवाक्ष खोल दिये, जिसने मुझे भीतर से मथकर रख दिया, जिसे पढ़ते हुए गहरे चिंतन में डूब गया और उस चिंतन से मन की हजार पीड़ाओं के गुब्बारों में एक निर्भार सा अनुभव हुआ और एक अलग ही जीवनदृष्टि का बोध हुआ।अज्ञेय की ऐसी ही एक पुस्तक की संक्षिप्त चर्चा यहां करना चाहूंगा।

ओरेगॉन एपिसोड के बाद अमेरिका से लौटकर आचार्य रजनीश ने अपनी पुस्तक ‛books i have loved’ में अपनी सबसे अधिक प्रिय पुस्तकों की सूची में ‛नदी के द्वीप’ को भी स्थान दिया है।इसे विशुद्ध मेडिटेशन की किताब बताया है और उन्होंने तो यहां तक कहा कि अगर ये किताब अंग्रेजी में होती तो अवश्य इसको नोबल प्राइज मिलता लेकिन आचार्य रजनीश को ये ज्ञात नही था कि उनके कहने से बहुत पहले ही अज्ञेय ने ‛island in the stream’ नाम से इस पुस्तक को अंग्रेजी में अनुदित कर दिया था।
खैर!
अज्ञेय की ‛नदी के द्वीप’ संरचना व शिल्प की दृष्टि से ‛शेखर-एक जीवनी’ से बिल्कुल भिन्न पुस्तक है।जहां ‛शेखर-एक जीवनी’ विकसनशील पाठकों को सम्बोधित करके लिखी गई है वहीं ‛नदी के द्वीप’ विकसित, प्रगल्भ, संस्कारवान पाठकों को लक्ष्य करके लिखी गई है इसलिए इस पुस्तक के सभी पात्र भीतर से विकसित है और उनके केवल आत्म का उदघाटन होता है।इस आत्म का उदघाटन अज्ञेय ने इस संश्लेषित व विकसित दृष्टि से किया है कि वो संवेदना की गहराई में प्रेम का पुनराविष्कार हो जाता है।
इस पुस्तक में अज्ञेय फ्रायड व जुंग के मनोविज्ञान से एक सीढ़ी ऊपर चढ़ गए हैं क्योंकि भुवन, रेखा व गौरा जैसे पात्र प्रेम में अहंकार का विसर्जन करते हैं और उस आत्म की प्राप्ति व उसको उदघाटित करते हैं इसलिए कभी भी एक दूसरे पर कोई अभियोग नही चलाते।वे असाधारण प्रेमी है इसलिए उनकी दृष्टि में प्रेम हासिल करने का नाम नही देने का नाम है और प्रेम के एक नये भाव जगत की सृष्टि व उसका निरूपण पाठकों के सम्मुख करते हैं।
इस उपन्यास में अज्ञेय की चिंतन-धारा का प्रमुख अंग व्यक्ति, उसका भाव जगत, उसकी संवेदना व उसका सामाजिक व प्रेमल आदर्श रहा है।इसके सभी पात्र नदी के द्वीप की तरह है, जो स्थिर नही होते, नदी निरन्तर उनका भाग्य गढ़ती चलती है, द्वीप अलग-अलग होकर भी निरन्तर घुलते व पुनः बनते रहते हैं-नया घोल, नये अणुओं का मिश्रण, नई तलछट, एक स्थान से मिटकर दूसरे स्थान पर जमते हुए नए द्वीप और ये द्वीप अपने आप में एक मुक्त व स्वतंत्र इकाई है, सभी बन्धनों से रहित, एक-दूसरे को मुक्त करते हुए, एक-दूसरे के निज की रक्षा करते हुए, एक-दूसरे के सौंदर्य बोध को अंकुरित व प्रस्फुटित करते हुए। शायद यही प्रेम का सर्वोच्च आदर्श है कि वो अपने प्रेमी को तमाम बन्धनों से मुक्त करे।
इस प्रेम व मुक्ति के समानांतर उनके भीतर एक वेदना है जो उनको मांजती है, एक पीड़ा है जो उनको व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा व स्थितप्रज्ञ, जिसे आचार्य रजनीश ने साक्षी भाव की संज्ञा दी है इसलिए इस पुस्तक को उन्होंने विशुद्ध मेडिटेशन की किताब कहा है।
इस किताब को पढ़ते हुए भीतर एक हूक सी उठती रही, न जाने कितनी बार किताब बन्द करके रुंधे हुए गले को साफ करने के लिए पानी पीना पड़ा और बहुत बार आंखों ने किताब के परकों को गीला कर दिया।
आपके घर की लाइब्रेरी में ये किताब अवश्य होनी ही चाहिए क्योंकि एक प्रगल्भ पाठक की यात्रा में ऐसी पुस्तकें मील का पत्थर हुआ करती है।

सौजन्य: श्री मुदित मिश्र

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