आपातकाल के बाद भारत में यह चलन चल पड़ा कि जो अलगाववादी हैं ,जो मजहबी कट्टरपंथी हैं ,जो नक्सलवादी-माओवादी हैं ,वे ही देशद्रोही हैं। दुर्भाग्य से कभी-कभी कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों को भी देशद्रोह के आरोपों से जूझना पड़ा। हाथ में बन्दूक लेकर जो देश के खिलाफ युद्ध छेड़ेगा वह तो देश का दुश्मन है ही। किन्तु जो देश की बैंकों का अकूत धन डकारकर विदेश भाग जाए ,जो बैंकों का उधार चुकाने से इंकार कर दे , दिवाला घोषित कर दे ,जो सरकार का मुलाजिम होकर भी देश के साथ गद्दारी करे ,जो सरकारी नौकरी पाकर भी मक्कारी करे, जो बिना रिष्वत के कोई काम न करे,जो जातीय आरक्षण के आधार पर सरकारी नौकरी पाकर भी रिस्वतखोरी करे वही धनपशू है! उसे सामाजिक असमानता की शिकायत का हक नहीं!
जो स्वार्थपूर्ण आचरण करे ,जो सरकारी नौकरी में रहकर जातीय दवंगई दिखाए और काम दो कौड़ी का न करे ,उलटे दारु पीकर सरकार को ही गालियाँ दे , जो खुद का इलाज न कर सके और सरकारी डाक़्टर बन जाए , जो 'राष्ट्रवाद' की परिभाषा भी न जाने और मंत्री बन जाए,जो ठेकेदारों के घटिया निर्माण की अनदेखी करे और कमीशन खाये ,जिसकी वजह से पुल ,स्कूल अस्पताल ढह जाएँ ,मरीज मर जाएँ , सड़कें बह जाएँ तो इन अपराधों के लिए भारत में भी चीन की तरह मृत्यु दण्ड क्यों नहीं होना चाहिए ?
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