भारत की वर्तमान छल-छदम की और सामाजिक राजनैतिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। यहाँ गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए 'भाई लोग' अपनी अपनी पार्टी की महानता का बखान किया करते हैं!
ऐन केन प्रकारेण जब-तब आम सभाओं में नौटंकी पेश करते रहते हैं।
यहाँ 'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के कोई आरक्षण की दुहाई देता है,कोई चुनावी जीत केलिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को हमेशा जिन्दा रखने के लिएर एक पैर पर खडा है! उन्होंने सारे बहुजन समाज क [Educate,Agitate,Orgenize] करने के बजाय एससी/एसटी को वोटों का भंडार बना डाला है।
उन्होंने शोषित-दलित उत्थानके बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी निजी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से भारतीय समाज में विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे लोगोंने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना लिया गया है। इन हालात में किसी सकारात्मक क्रांति या कल्याणकारी राज्य की कोई समभावना नहीं है।
अतएव वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो 'यूटोपियाई पूँजीवाद ' ही बेहतर है ! स्मरण रहे कि भारत के एक प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया 10 हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने कुछ वर्ष पहले अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं थीं। किंतु इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को अपने बलबूते पर अपनी आजीविका निर्वहन और हैसियत निर्माण का सुझाव दिया था,तद्नुसार उनके बेटे ने कोचीन में ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी की! यह नौकरी हासिल करने के लिए भी उसे तकरीबन ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने उसे घर से चलते वक्त जो ७०० रूपये दिए थे, उसमें से एक पैसा खर्च नही किया! वे पैसे तथा अपनी कमाई के पैसे जब ढोलकिया को सौंपे तो पिता ने अपनी कंपनी का डायरेक्टर बना दिया! कहने का तात्पर्य यह है कि 'खुद स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति देश के नेता बनते हैं या प्रधानमंत्री बनते हैं तो उनके हाथों में यह देश ज्यादा सुरक्षित होगा और ज्यादा गतिशील और विकासमान होगा! लेकिन भारतीय लोकतंत्र पर ऐंसे लोग काबिज हैं, जिन्होंने जिंदगी में कभी खुद कमाकर नही खाया!
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