मेरा आब्जरवेशन बताता है कि कोई सभ्य सुशिक्षित साहित्यकार,लेखक,कवि अपने लेखन या कथन में यदि कभी मेगास्थनीज,वर्नी,इलियट, फाह्ययान,ह्वेनसांग,जरथ्रुस्त,पायथागोरस,पियरे, कन्फुशियस,लाओत्से,सुकरात,अरस्तु,प्लेटो,
अलबरूनी,गैलिलियो शैक्सपियर, लाओत्से बायरन,नीत्से,दिकार्ते,रूसो,वाल्टेयर हीगेल, मार्क्स,कांट,ग्राम्सी ब्रेख्त,नेरुदा,ज्यां पाल सात्र,जार्ज बर्नार्ड शॉ,या हर्वर्ट स्पेंशर को उद्घरत करता है,तो आम तौर पर उसे पढ़ा लिखा विद्वान और प्रगतिशील कहा जाता है!
किंतु यदि वही विचार या ज्ञान कदाचित हम वेद,स्म्रति उपनिषद,आरण्यक, प्रस्थान त्रयी, भगवदगीता,पाणिनी की अष्टाध्याई कौटिल्य या जो संदर्भ किसी भारतीय आगम और नैगम ग्रंथ से लिया गया हो,वेदव्यास,बाल्मीकि,कालिदास, आदि शंकराचार्य,माधवाचार्य-किसी भी भारतीय अध्यात्मवादी भाववादी विद्वान से उद्धृत किया गया हो,तो कुछ कूड़ मगज लोग उस पर नाक भों सिकोड़ने लगते हैं! कुछ लोग उस संदर्भ के वैज्ञानिक प्रमाण मागने लगते हैं,जैसे कोई नालायक वेशर्म संतति,अपने मां बाप से खुद के होने का प्रमाण मांगने लगे! कुछ लोग पुराणों शास्रों के वे अंश उद्धृत करने लगते हैं,जिन पर बहस करते करते युग- युगांतर बीत गये!
क्रूर धर्मांध बर्बर हमलावर शासकों ने,भारत की पूर्ववर्ती समस्त अपार ज्ञान सम्पदा को बार बार नष्ट किया और जलाया,अविश्वसनीय बनाया है! इसके बावजूद इस महान भारतीय सभ्यता और संस्कृति का जो थोड़ा सा अंश बच गया उसको अपने जातिवादी,हीनताबोध पीड़ित नकारात्मक तत्व और पाश्चात्य दर्शन के लग्गू भग्गू लोग आदर्श मानकर अपनी हांके चले जा रहे हैं!
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