यदि प्रस्तुत पोस्ट को ठीक से पढ़ समझ लिया तो वर्तमान भारतीय राजनीति के इतिहास का सार समझने में आसानी रहेगी:-
1964 में हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि पं.जवाहरलाल नेहरू सफल राजनेता नहीं हो सके क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे.
ऐसा प्रतीत होता है, जैसे लोगों के जीवन की रक्षा के उपाय करने हैं, वैसे ही भाषा के सामाजिक व्यवहार के, जिसमें राजनीतिक व्यवहार शामिल है, के संरक्षण की फौरी ज़रूरत आ पड़ी है.
27 मई से बेहतर और क्या अवसर हो सकता है इस खोए हुए स्वभाव को हासिल करने के स्रोत तक जाने का? यह जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु की तिथि है.
नेहरू की मृत्यु की खबर सुनकर आज़ाद भारत में उनकी समाजवादी राजनीति के सबसे बड़े विरोधी राजा राजगोपालाचारी ने कहा, ‘मुझसे 11 साल छोटे, राष्ट्र के लिए मुझसे 11 गुना अधिक महत्त्वपूर्ण और राष्ट्र के मुझसे 1100 गुना प्यारे नेहरू अचानक हमारे बीच से चले गए हैं और मैं… यह सदमा झेलने के लिए ज़िंदा बचा हुआ हूं…’
आगे उन्होंने कहा, ‘ एक प्यारा दोस्त चला गया है, हमारे बीच का सबसे सभ्य व्यक्ति. ईश्वर हमारे लोगों की रक्षा करे.’
राजाजी ने 1959 में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की थी और उन्हें सच्चे अर्थों में नेहरू का ईमानदार दक्षिणपंथी या कंज़र्वेटिव आलोचक कहा जा सकता है. आर्थिक नीतियों और आधुनिकता की अवधारणा को लेकर भी वे नेहरू के सख्त आलोचक थे. फिर भी वे नेहरू के महत्त्व को पहचानते थे.
अपनी पार्टी की स्थापना के पहले उन्होंने कहा था, ‘मुझे इससे अधिक संतोष और किसी बात का नहीं कि मैं आम तौर पर जिसे श्री नेहरू पर आक्रमण कहा जाता है, उससे बचता हूं . यही भारत के वर्तमान और भविष्य के हित में है… यह ईश्वर की कृपा है कि इस समय भारत में एक एक ऐसा भला शख्स है, ठीक ही लोग जिसे अपना आदर्श मानते हैं…’
नेहरू खुद व्यक्तिपूजा के सख्त खिलाफ थे लेकिन राजाजी की तरह ही मुक्तिबोध ने 1957 में ‘दूनघाटी में नेहरू’ नामक निबंध में लिखा, ‘व्यक्तित्व-पूजा के धिक्कार के इस युग में भी, तरुण लोग अगर पंडित नेहरू में अपनी झलक देख लेते हों, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है! एक बार मुझसे एक बीस साला नौजवान ने पूछा कि नेहरूजी रात में क्या सोचते-सोचते सो जाते होंगे.’
नेहरू का सौभाग्य था कि प्रायः उनके आलोचक भी उनकी तरह ही सभ्य और शालीन थे. कह सकते हैं, जैसा खुद नेहरू ने कहा था कि वे सबके सब गांधी युग के लोग थे जिनके आचरण की पहली शर्त ही थी सभ्यता.
कभी-कभी यह इस कदर हावी हो सकती थी कि आपको राजनीतिक तौर पर अवरुद्ध कर दे. आखिर हीरेन मुखर्जी ने नेहरू के बारे में यह कहा ही था कि वे उस तरह सफल राजनेता नहीं हो सके क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए जो असभ्यता चाहिए, नेहरू उसके सर्वथा अयोग्य थे.
केसी कालकुरा ने अपने एक लेख में 1952 की लोकसभा की एक बहस का वर्णन किया है जब नेहरू का सूरज तप रहा था. यह बुदाराजू राधाकृष्ण की तेलुगु में लिखी जीवनी का एक अंश है. बुदाराजू स्नातक कक्षा के छात्र थे और अपने शिक्षक सर्वपल्ली गोपाल के कहने पर दिल्ली भ्रमण के दौरान लोकसभा की बहस देखने गए.
नेहरू सरकारी बेंच पर थे. …बहस के दौरान एक सदस्य उठा और उसने कहा, ‘अगर सरकार मेरे अलावा किसी संस्थान या विश्वविद्यालय को 4 करोड़ रुपये दे सके तो बिना किसी अपेक्षा के मैं हर बाधा के बावजूद आणविक विज्ञान/ऊर्जा में अपने देश को आगे ले जा सकूंगा.’
यह सदस्य थे वैज्ञानिक साहा. नेहरू फौरन उठ खड़े हुए और बड़े क्रोध में उन्होंने कहा, ‘जिस देश ने अहिंसा के रास्ते आज़ादी हासिल की हो वह ऐसे मूर्खतापूर्ण विचार कबूल नहीं कर सकता.’ सकता-सा छा गया और किसी ने एक लफ्ज कुछ न कहा.
इसके बाद नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सभा का एक पत्र पढ़ा, जिसमें एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन की तैयारी के शिष्टमंडल के नेतृत्व के लिए साहा का नाम प्रस्तावित किया गया था. नेहरू ने प्रस्ताव का समर्थन किया. लेकिन लोकसभा अध्यक्ष ने किंचित हास्य के साथ पूछा कि आखिर माननीय सदस्य हैं कहां!
लोगों का ध्यान साहा के ‘वॉक आउट’ पर नहीं गया था. नेहरू ने अध्यक्ष मावलंकर से आधे घंटे का वक्त मांगा और फिर साहा के साथ सदन में प्रवेश किया. साहा ने कहा, ‘यह बिल्कुल मुनासिब न होगा कि एक मूर्ख संयुक्त राष्ट्र संघ में इस महान देश का प्रतिनिधित्व करे.’
नेहरू खड़े हुए, ‘मैंने उन्हें मूर्ख नहीं कहा है बल्कि उनके विचार को मूर्खतापूर्ण कहा है. संसदीय प्रक्रियाओं के बारे में जो लिखा है उसके मुताबिक़ मूर्ख शब्द तो असंसदीय है लेकिन मूर्खतापूर्ण नहीं. वैसे भी अगर मेरे जैसे मूर्ख ने उनके लिए ऐसे शब्द कह दिए तो क्या यह न्यायपूर्ण है कि साहा जैसा महान व्यक्ति उन्हें इतनी तरजीह दे?’
नेहरू का एक जिम्मा अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद और संसद में भारी बहुमत के रहते हुए भारत की राजनीति में संसदीय आचरण को दृढ़ करने का भी था.
संसदीय व्यवहार, यानी संवाद के लिए हमेशा प्रस्तुति और अल्प से अल्पमत को पूर्ण सम्मान. संसदीय जनतंत्र का निर्वाह सबसे कठिन कार्य है क्योंकि इसमें बहुमत के बावजूद सत्ता पक्ष को अपने ऊपर संयम रखने की जिम्मेदारी होती है.
नेहरू ने इसके बारे में कहा, ‘हमने संसदीय जनतंत्र जानबूझकर अपनाया सिर्फ इसलिए नहीं कि पहले भी कमोबेश हम इसी तरह सोचते थे बल्कि इसलिए भी कि यह हमारी प्राचीन परंपराओं के मेल में था, ठीक वैसी नहीं जैसी वे थीं बल्कि नई परिस्थितियों और देशकाल के हिसाब से परिवर्तित रूप में.’
संसदीय जनतंत्र के लिए, नेहरू के मुताबिक़ ‘सबसे अधिक ज़रूरत सहकारिता की है, आत्मानुशासन की है, आत्म संयम की है…’ ध्यान रहे यह नियंत्रण, संयम वे बहुमतधारी सत्ता पक्ष के लिए कह रहे हैं, विपक्ष के लिए नहीं.
एक वाकया उनके पुराने मित्र और बाद में विरोधी हो गए आचार्य कृपलानी द्वारा संसद में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का है. संख्या के हिसाब से आचार्य कहीं नहीं ठहरते थे. लेकिन नेहरू ने प्रस्ताव पर पूरी बहस ध्यान से सुनी, एक के बाद एक आक्रामक वक्तव्य सुने.
उन्होंने प्रस्ताव की खिल्ली नहीं उड़ाई बल्कि गंभीरतापूर्वक सारे आरोपों और आक्रमणों का उत्तर दिया.
संसदीय आचरण का मतलब सिर्फ संसद में व्यवहार की संहिता से नहीं है. वह संपूर्ण राजनीतिक व्यवहार में है. आप अपने पद, अपनी शक्ति का किसी भी तरह लाभ न उठाएं. अगर आप किसी काम को ठीक भी समझते हैं लेकिन वह राजनीतिक सामाजिक व्यवहार में किसी प्रकार का संदेह पैदा करे तो उसे छोड़ने में हिचकिचाहट न दिखलाएं.
एक विस्मृत प्रकरण 1957 के आम चुनाव के पहले का है. सतारा में शिवाजी की प्रतिमा के अनावरण के लिए नेहरू को कुछ लोगों ने बुलाया था. इस पर विवाद उठ खड़ा हुआ. उन्हें अनेक पत्र भेजे गए और कहा गया कि वे इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि भारत की खोज नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने शिवाजी का चित्रण ठीक तरीके से नहीं किया है.
श्रीपाद अमृत डांगे ने भी इसी आशय की आपत्ति दर्ज की. नेहरू चाहते तो इन सबको दरकिनार कर कार्यक्रम में जा सकते थे. लेकिन एक तो उन्होंने आलोचकों को धैर्यपूर्वक जवाब दिया, बतलाया कि जब वे जेल में किताब लिख रहे थे उनके पास सीमित स्रोत थे और बाद के संस्करणों में उन्होंने संशोधन किया है.
डांगे को उन्होंने अलग से ख़त लिखा और पूछा कि क्या वे सचमुच उनके बारे में ऐसा ही सोचते हैं. अपनी तरफ से तर्क देने के बाद भी नेहरू ने कार्यक्रम में जाने से मना कर दिया. कारण यह दिया कि चुनाव के ठीक पहले इस कार्यक्रम में जाने का मतलब एक विशेष वर्ग को रिझाने से लगाया जा सकता है और यह मर्यादासंगत आचरण न होगा.
नेहरू की छवि एक अभिजात व्यक्ति की बनाई गई है जो बहुत शानोशौकत से रहता था. नेहरू सुरुचिपूर्ण जीवन जीते थे जिसमें आडंबर कतई न था. उनकी सादगी उनके समकालीनों में मशहूर थी.
एक किस्सा याद आता है. इंदिरा यूरोप में थीं. उनके खर्च के लिए नेहरू जो रकम भेजते थे वह कोई ख़ास नहीं थी और वह उनकी किताबों की रॉयल्टी से ही आती थी. नेहरू ने अपनी बेटी को लिखा कि मैं तो मोतीलाल का बेटा था लेकिन तुम ठहरी जवाहरलाल की बेटी, सो इसी से काम चलाना पड़ेगा.
नेहरू की शालीनता का एक पक्ष विनम्रता और आत्मलोप का भी था. वह विनम्रता भारत की खोज के इस अंश में देखी जा सकती है,
‘भारत की खोज- आखिर मैंने क्या खोजा है? यह मेरे लिए अत्यंत अहंकारपूर्ण होता कि मैं उसे अनावृत करने का और यह पता करने का दावा करूं कि वह आज क्या है और अत्यंत प्राचीनकाल में क्या था? वह 40 करोड़ स्वतंत्र पुरुष और महिला व्यक्ति हैं, हरेक एक दूसरे से अलग, हरेक अपनी निजी विचार और भावना की दुनिया में लीन. अगर आज यह ऐसा है तो कितना और कठिन है मनुष्यों की उस अनगिनती पीढ़ियों के बहुलतापूर्ण अतीत को समझ पाना. फिर भी कुछ ऐसा है जो उन्हें एक दूसरे से बांधे हुए था और अभी भी जोड़े हुए है…’
एक खोजी,अन्वेषक हमेशा आश्चर्यचकित होने को प्रस्तुत रहता है. विनम्रता साहस के बिना नहीं. यह कारण था कि गांधी ने 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए उनका नाम प्रस्तावित करते हुए कहा,
‘बहादुरी में उनसे कोई आगे जा नहीं सकता.
वतन से मोहब्बत के मामले में उनसे भला कौन मुकाबला कर सकता है?
वे निश्चित रूप से अतिवादी है जो अपनी परिस्थितियों से बहुत आगे सोच सकते हैं. लेकिन वे विनम्र हैं और… व्यावहारिक…
वे एक स्फटिक की तरह शुभ्र और पवित्र हैं , वे एक निडर और निर्दोष शूरवीर हैं. राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है.’
जिसके हाथों गांधी ने अपने प्रिय भारत को सौंपकर सुरक्षित माना था,इन शब्दों के कोई 70.साल बाद यह पवित्र,शुभ्र,निडर और निर्दोष शूरवीर नेहरू, गांधी के ही शब्दों में उनके ‘हिंद का जवाहर’" जब विदा हुआ तो गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी राजाजी ने ठीक ही कहा, ‘ईश्वर अब हमारे लोगों की रक्षा करे.’
जय हिंद
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