मेरे कुछ मित्रों,शुभचिंतकों और कुछ वर्चुअल इंटेलेक्चुअल्स का अरसे से एक यक्ष प्रश्न रहा है कि मैं सनातनी हिंदू हूँ,मुझे भारतीय दर्शन परंपरा और अध्यात्म में रुचि है तब मैं मार्क्सवाद का समर्थक कैसे हो सकता हूँ?
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मेरा ज़बाब:-
कार्ल मार्क्स,ऐंगेल्स सहित अधिकांश शुरूआती विद्वान विचारक जो *कम्युनिस्ट इंटरनेशनल* के संस्थापकों में से,उनमें दो चार को छोड़कर बाकी के ग्राम्शी,सेंट साइमन,फादर डेसमंड टुटु,रोजा लक्जमबर्ग और *कम्युनिस्ट इंटरनेशनल* के तत्कालीन अन्य सभी संथापक सदस्य आस्तिक ही थे । कुछ इस विषय पर मौन थे! मार्क्स द्वारा केवल ईसाई रिलीजन को अस्वीकार करने,चर्च द्वारा तत्कालीन पोप के द्वारा सामंती व्यवस्था का समर्थन करने से कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में एक मुहावरा फिट कर दिया कि :-
"मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के लिये रिलीजन (धर्म नहीं) एक अफीम है"*
जब *कम्युनिस्ट इंटरनेशनल* की पहली और दूसरी बैठकें हुईं,तब भारत अंगेजों का गुलाम था! केवल मानवेंद्रनाथ और रजनी पामदत्त जैसे इंगलिश नागरिक* जरूर उससे जुड़े थे। किंतु रूस में अक्टूबर क्रांति सफल हो जाने से मार्क्स ऐंगेल्स की कुछ घोषणाएं विफल मान ली गईं ! जैसे कि इंग्लैंड, फ्रांस,अमेरिका में कम्युनिस्ट क्रांति पहले होगी,किंतु वह महान क्रांति रूस में पहले कर दी गई!इसके बाद लेनिन और स्टालिन का पूरा जोर क्रान्ति की रक्षा और सामाजिक व आर्थिक सुधारों पर होने से कई महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित रह गये! इसके अलावा तत्कालीन सोवियत संघ को क्रांति की रक्षा के लिये नाजीवाद याने हिटलर से लड़ना पड़ा,जो धर्म और नस्ल दोनों को नाजीवाद के पक्ष में इस्तेमाल कर रहा था! इसलिए वैश्विक स्तर पर कम्युनिस्ट कई धड़ों में बँटते चले गये!
धर्म, विश्वास,श्रद्धा, ईश्वर,अध्यात्म और संस्कृति के महत्वपूर्ण सवाल शेष रह गए! जिसका सार यह है कि मार्क्सवाद धर्म विरोधी नही है, बल्कि हर किस्म के पाखण्ड और साम्प्रदायिकतावाद का विरोधी है! अत: मार्क्सवाद का समर्थक होने के बावजुद मैं अपने सनातन धर्म और संस्कृति से प्यार करता हूँ! इसमें किसी को कोई परेशानी नही होनी चाहिये! अलवत्ता मार्क्सवाद,वैज्ञानिक समाजवाद का दर्शन फॉलो करने पर इंसान खुद अपने आप पूर्ण धार्मिक जैसे होने लगता है!
क्योंकि :-
१. मार्क्स यह कहने का साहस देता है कि गलती को मानो और सुधार करो !
२. मार्क्स कुछ नया सोचने-समझने की दृष्टि देता है!
३. मार्क्स जागतिक विवेक और वैज्ञानिक दृष्टि देता है!
४. मार्क्स वैज्ञानिक आविष्कारों को मानव कल्याण का नजरिया देता है !
५. मार्क्स बिना प्रमाणों के बात नहीं करता और बिना तर्क-सबूत के बात को मानने की हिमायत नहीं करता !
६. मार्क्स बताता है कि सही क्या है और गलत क्या है और इसे सबूत से साबित करता है !
७. मार्क्स दुनिया की बिडम्बनाओं की बात नहीं करता - वह दुनिया को बदलने की बात करता है ! क्योंकि आज तक कोई दर्शन दुनिया को नहीं बदल सका और न किसी धर्म दर्शन ने बदलने की बात की !
८. मार्क्स सामाजिक इतिहास का विश्लेषण करता है और उसके आधार पर भविष्य का रास्ता दिखाता है - आप उस पर चलें या न चलें समाज और इतिहास अपना रास्ता बनाता चलता है - ठीक उसी तरह जैसे नदी अपना रास्ता बनाती है और उसका आधार पानी होता है - समाज का आधार अर्थ-तंत्र होता है जो विकसित होता चलता है, अपना रूप बदलता चलता है और समाज के रूप को बदलता चलता है !
९. मार्क्स दिमाग को साफ करता है और इतिहास के कचरे को बाहर निकाल फेंकता है - इसीलिये मार्क्स के यहाँ समझ का द्वंद्व नहीं है,क्योंकि वह खुद हर चीज को द्वंद्वात्मकता में परखता है, जांचता है, प्रमाणों-सबूतों की कसौटी पर कसता है और तब बात करता है !
१०. मार्क्स ने किसी भी भारतीय उदात्त धर्म दर्शन,वेद,उपनिषद,आगम,निगम अथवा वेदांत दर्शन को न तो पढा़ था और न कभी अफीम कहा! बल्कि मार्क्स ने तो तत्कालीन यूरोपीय चर्च द्वारा ईसाई समाज पर जबरन लादी जा रही भयानक प्रबंचनाओं को लेकर कहा था:-
"मानवीय चेतना के विकास और शोषण से मुक्ति के मार्ग में, रिलीजन (मज़हब) एक अफीम की तरह है"
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