एक भ्रम है कि हिन्दुओ ने इस्लामी आक्रांताओं के सामने बड़ी आसानी से घुटने टेक दिये।
सचाई यह है कि इस्लाम को सबसे कड़ी टक्कर अगर कहीं मिली, तो हिंदुस्तान में मिली।।
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इस्लाम धार्मिक रूप से अरब में पैदा हुआ। वही उनका सैन्य संगठन बना और उन्होंने अपना विस्तार शुरू किया। सबसे पहले हमला सीरिया में हुआ। महज एक साल, याने 636 ईसवीं में सीरिया जीत लिया गया।
अगले साल याने 637 में इराक ने घुटने टेके, और 643 में उन्होंने फारस को जीत लिया। याने दस साल लगे, मिडिल ईस्ट को जीतने में, और उनकी सीमा भारत से आ लगी। इस वक्त मध्य भारत मे हर्षवर्धन का राज्य था।
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सन 650 आते आते मध्य एशिया याने अभी का उज्बेकिस्तान, ताजीकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान मंगोलिया जीता। याने तुर्कमान, उज्बेक, औऱ मंगोलों की लड़ाकू नस्लों को जीतने में उन्हें 8 साल लगे।
सन 700 तक उन्होंने उत्तर अफ्रीका जीत लिया था, कोई 40 साल लगे। मिस्र, बेबीलोन, एलेक्जेंड्रिया आदि एक एक , दो दो साल की लड़ाइयां लगी। 711 तक वे स्पेन और फ्रांस में घुसकर लड़ रहे थे।
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इसके मुकाबले सिंध कोई 75 सालों तक अरबों के धावे झेलने के बाद गिरा। हिन्दू/बौद्ध अफगानिस्तान को जीतने में 200 साल लगे। मामला दसवी शताब्दी तक खिंचता रहा।
सिंध में कासिम के जीतने के बाद भी 300 साल तक सिंध और मुल्तान के अलावे कहीं और अरब राज बैठ नही सका, जबकि धावे होते रहे।
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महमूद गजनवी के धावे भी, लूट के अलावे कोई "स्थायी राज" कायम नही कर सका। इसके लिए डेढ़ सौ साल बाद 1192 में मोहम्मद घोरी को जीत का इंतजार करना पड़ा। ठीक उसी मैदान में जहां वह 1191 में उसी पृथ्वीराज से हारकर भागा था।
यह पहले मुस्लिम धावे के 400 साल बाद होता है। आप दुनिया मे कहीं भी इतिहास उठाकर देखें। मुस्लिम वारियर्स को इतना तगड़ा, इतना लंबा रेजिस्टेंस कहीं नही मिला।
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मुस्लिम आक्रांता अंत मे जीते, तो उसका कारण उनकी एकता, उनकी भूख, उनके हथियार और उनका जोश था।
इस्लाम बराबरी का धर्म है, हिन्दू गैर बराबरी पर आधारित। तो हिंदुस्तान में प्रजा के एक बड़े हिस्से को, आक्रमणों या युद्धों से मतलब नही था। वो आम तौर पर प्रिविलेज लेने वालों याने राजाओं और सामन्तो का सरदर्द था। कोउ नृप होय, हमे क्या फायदा?
मुस्लिम, बेहद गरीब इलाको से आये थे। भारत का धन और लूट एक बड़ा मोटिवेशन था। यह राजाओं के खजाने, और मन्दिरो से मिलता था। इस लूट का बंटवारा भी बराबरी से होने की व्यवस्था होती। पैसा बड़ा मोटिवेशन था।
उन वारियर्स की युद्ध कला, हथियार, घोड़े, कवच, भाले, और कमीनगी शार्प थी। इधर भारतीय राजे, बाहरी दुनिया से बेखबर थे। अंध विश्वासों, ज्योतिष औऱ पुरोहितों पर यकीन करते।
दाहिर की सेना बस इसलिए हार मानकर भाग गई थी, क्योकि देवी मां के मंदिर का छत्र गिर गया था। वह छत्र गिराने के लिए कासिम ने स्पेशल अरेंजमेंट किये थे।
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इतिहास को चेप्टर, कोर्स, सन, एग्जाम, गर्व, नफरत, ब्लेम, क्रेडिट की मंशा से न पढ़ा जाए तो एक बेहद दिलचस्प दृष्टिकोण पैदा होता है। आप स्टेडियम में बैठे दर्शक की तरह मैच देखते हैं। उसका आनंद और सीख लेते हैं।
और पाते हैं कि इस वक्त जो घट रहा है, वह भी इतिहास का एक पन्ना है। यह पन्ना मिटेगा नही, फटेगा नही। तो आज हम भारत के लोग फिर आपस मे विभाजित होने, दीन दुनिया की सचाइयों से बेखबर होने, गैरबराबरी का समाज बनाने, और अंधे आत्मगर्व में डूब जाने की गलती न दोहराएं।
ताकि आज इतिहास के जिस पन्ने पर, हम और आप बैठे हैं, कम से कम उस पैराग्राफ में तो यह देश न हारे।
साभार श्रीराम तिवारी जी
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