वास्तव में कबीर साहब की रचनाओं में इतने मे विभिन्न मतों की चर्चा दिख पड़ती है और उनमें से वह और वे इस प्रकार आकृष्ट समझ पढ़ते हैं कि उन्हें किसी एकमत विशेष का अनुयायी मान लेना उचित नहीं ठहरता है।_
_एक दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में स्मरण रखने योग्य वह यह है कि कबीर साहब ने कभी दार्शनिक होने का दावा नहीं किया है और न उन्होंने किसीभी सिद्धान्त का प्रतिपादन किसी ऐसे ढंग से करके, उसका कहीं स्पष्ट निरूपण हो किया है। इसलिए यह अनुमान करना उचित नहीं कि उन्होंने शांकराद्वैत वेदान्त की बातें बतलाई है, तथा रामानुजीय मतका अनुसरण किया है। उनकी ऐसी उक्तियों को एकत्र कर उनके आधार पर औपनिषदिक विचारधारा के साथ संगति बिठाना भी उचित नहीं इसमें सन्देह नहीं कि ये बहुश्रुत रहे होंगे और विविध मतों के अनुयायियों के साथ सत्संग कर के उन्होंने उनकी अनेक बातें किसी न किसी रूप में ग्रहण कर ली होंगी तथा उन पर ऐसे कतिपय स्पष्ट वाक्यों का प्रभाव दिखलाया जा सकता है।_
_श्री चतुर्वेदी जी के उपर्युक्त विचारों से दो तथ्य सामने आते हैं। एक यह कि कबीर साहब के दार्शनिक सिद्धांत यत्र-तत्र से संग्रहीत थे। दूसरे वे किसी दार्शनिक परम्परा से जुड़े हुए नहीं थे। प्रथम कथन के सन्दर्भ में यह बात विचारणीय है। कबीर कोई सामाजिक उपदेशक नहीं थे और न उनका कृतित्व कोई भानुमती का पिटारा जिसमें उन्होंने अपने अनुसार उपयोगी विचारों का संग्रह कर लिया हो। इतना तो हैं कि किसी भी व्यक्ति पर तत्कालीन विचारधाराओं के प्रभाव को एकदम तो नहीं नकारा जा सकता लेकिन किसी भी व्यक्ति द्वारा एकदम उद्देश्य वहीं होकर चौराहे पर खड़े खड़े विभिन्न विचारधाराओं को आत्मसात करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चतुर्वेदी जी कबीर को दार्शनिक विचार धाराओं से दूर रखते हुए उनके दार्शनिक व्यक्तित्व को एकदम अस्वीकार करते हैं। यहां यह समझ में नहीं आता कि विद्वान लेखक का दार्शनिक से तात्पर्य क्या है ? यदि उनका दार्शनिक से तात्पर्य किसी दर्शन को पढ़कर उसे क्रमबद्ध रूप में व्यक्त करने वाले व्यक्ति से है तो उसके साथ हमारी भी सहमति है कि कबीर दार्शनिक बिल्कुल नहीं थे। उनका अभीष्ट कोई विशेष दर्शन ग्रंथ लिखना नहीं था।_
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