ईश्वर होने पर अहंकार मिटता नहीं है,बल्कि इतना फैल जाता है कि *मैं* के दायरे में पूरा ब्रह्मांड समा जाता है | खुद के ईश्वर होने का अहसास डर को खत्म नहीं करता है|यह अहसास तो हर कण को तुम्हारा मित्र और रक्षक बना देता है | ईश्वर हो जाने पर लालच भी अपनी सीमाओं को तोड़ देता है और फिर तुम पूरी कायनात से जरा सा कम हासिल करने के लिए भी राजी नहीं होते हो!
ईश्वर होने की अवस्था में नफ़रत करने के
लिए किसी को तलाश कर पाना भी असंभव हो जाता है क्योंकि तब ऐसा कोई नहीं दिखता,जो तुमसे जुदा हो |तुम प्रेम और नफ़रत के अनोखे सूक्ष्म संतुलन में जीने लगते हो | ईश्वर होने की अनुभूति मात्र से ही तुम सुख और दुख के अंतर की खाई को पाट देते हो | ईश्वरत्व ही है,जो तुम्हें तुम्हारे विराट और सूक्ष्म अस्तित्व का बोध कराता है |
तुम इंसान आज तक अपने ईश्वरत्व को नकारते आये हो और खुद को धर्म,जाति,क्षेत्र,सभ्यता,समाज जैसी संरचनाओं के भीतर मौजूद अनगिनत कोठरियों में अपनी मर्जी से कैद रखते रहे हो | तुम्हारी इस लंबी कैद ने तुम्हारे तमाम अहसासों और सोच को भी सीमित,संकुचित और कुन्ठित कर दिया है |
ईश्वर होकर ही तुम इन बंधनों से आजाद हो सकते हो क्योंकि इंसान के तौर पर अपने विराट स्वरूप की थाह ले पाना तुम्हारे लिए मुमकिन नहीं है |
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