भगवान कृष्ण के जीवन से सीखा जा सकता है कि संसार के साथ कैसे व्यवहार करना है, तो राम के जीवन से सीखा जा सकता है कि परिवार के साथ कैसे व्यवहार करना है। और यह भी सत्य है कि संसार की सबसे प्राचीन इस आर्य सभ्यता ने परिवार के साथ व्यवहार करना भगवान राम से ही सीखा है।
भगवान राम अपने युग के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे! स्वयं विष्णु के अवतार थे! पर जब जब परिवार पर विपदा आयी, वे सामान्य गृहस्थ की भांति फूट फूट कर रोये। वे वन में छोटे भाई भरत से मिले तो लिपट कर इतना रोये कि भरत मिलाप मुहावरा हो गया। पिता की मृत्यु का समाचार पाया तो बच्चों की भांति बिलख कर रोये। पत्नी का हरण हुआ तो असहाय की भांति पेंड़ पौधों से लिपट कर रोये, और उन्हें ढूंढ लेने के लिए पूरी धरती नाप दी। युग के सबसे बड़े साम्राज्य से टक्कर लेने अकेले ही चल दिये, और समुद्र तक को बांध दिया... जब लक्ष्मण को शक्ति लगी, तो खर-दूषण और कुम्भकर्ण को मारने वाले परमप्रतापी श्रीराम भूमि पर बैठ उनका शीश अपनी जंघा पर रख कर तड़पने लगे। यह अपने परिवार के प्रति उनकी निष्ठा थी, उनका समर्पण था।
यदि केवल न्याय की दृष्टि से देखें तो राजमाता कैकई पर राजद्रोह का आरोप बनता था, उनकी एक भूल के कारण अयोध्या के सम्राट की मृत्यु हुई थी, भावी सम्राट चौदह वर्ष के लिए वनवासी हुए थे, और साम्राज्ञी को वर्ष भर का अपहरण भोगना पड़ा था। पर अयोध्या लौटने के बाद राम उनकी चरणों में लोट गए। कोई क्रोध नहीं, कोई दुर्भाव नहीं... कैकई के निर्णय से हुई क्षति उस परिवार की व्यक्तिगत क्षति थी, और सबने बिना किसी चर्चा के ही उनको क्षमा कर दिया।
वनवास केवल राम का हुआ था, पर भोगा पूरे परिवार ने था। महलों में पली सीता जिद्द कर के पति के साथ गईं और बन बन भटकीं। लक्ष्मण को अपने भइया के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं था, सो उन्होंने वन में राम से अधिक तपस्या की। भरत अयोध्या में रह कर भी वनवासी ही रहे। उर्मिला और मांडवी ने परिवार के साथ रह कर भी चौदह वर्ष का वियोग सहन किया। और पिता! उन्होंने तो पुत्र के प्रेम में स्वयं की ही आहुति दे दी। चौदह वर्ष के दुखों को काटने में पूरा परिवार साथ खड़ा था। दशरथ कुल के हर व्यक्ति में रामत्व था, हर व्यक्ति राम था।
और जब धराधाम पर अपनी लीला पूरी कर लेने के बाद राम सरयू के जल में उतरे तो उनके साथ सब उतर गए। भरत, शत्रुघ्न, उर्मिल, मांडवी, श्रुतिकीर्ति, सारे मित्र, अधिकांश नगरवासी... जैसे साथ रहने के लिए ही सब आये थे, गए तो सब चले गए... कितना अद्भुत है यह! मुँह से अनायास ही निकलता है; फैमिली हो तो वैसी हो!
इस देश में अब भी अधिकांश परिवार वैसे ही होते हैं। इस परम्परा ने परिवार के साथ खड़ा होना वहीं से सीखा है। हमारे आसपास हमेशा ऐसे समाचार घूमते हैं कि एक भाई की मृत्यु होने पर दूसरे की भी हो गयी। बेटे के साथ माँ चली गयी, पुत्र के पीछे पिता चला गया... यह परिवार का मोह है, यह परिवार का जोड़ है।
किसी मित्र ने बताया कि आज फैमिली डे है। दुनिया परिवार के लिए भले एक दिन निर्धारित करे, पर दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का भाव देने वाले भारत के लिए जीवन की हर सांस परिवार के लिए है।
अखंड भारत सनातन संस्कृति
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