पंडित नेहरू की पुण्यतिथि पर उनकी वसीयत का काव्यात्मक रूप —-
अपने भीतर की परतों को मैं धीरे धीरे खोल रहा हूँ
मुझे ग़ौर से सुनना तुम मैं पंडित नेहरू बोल रहा हूँ।
एक लाड़ला पुत्र मानकर मुझको ख़ूब दुलार दिया
चाहे मैं कुछ भी कर जाऊँ ये क़र्ज़ चुकाना मुश्किल है
भारत की ख़ातिर ही धड़के हर पल ये मेरा दिल है
जीवन पथ पर चलने में सब साथी मेरे साथ रहे
सब ख़ुशियाँ भी बाँटी हमने और रंजोग़म भी साथ सहे
अब जो मैं तुमसे कहता हूँ बस मेरी वही वसीयत है
इसमें कुछ पुण्य कमाने की न मंशा है,न नीयत है
ना रस्मों की कुछ ख़्वाहिश है, मत इनका बोझ उठाना तुम
मैं देह त्याग दूँ जहां कहीं बस मुझको वहीं जलाना तुम।
लेकिन ये उम्मीद मुझे है इतना तो कर पाओगे
मेरी सभी अस्थियों को तुम इलाहाबाद पहुँचाओगे
चंद अस्थियों को देना गंगा के बहते पानी को
शेष अस्थियों का क्या हो तुम सुन लो मेरी ज़बानी वो
गंगा में भस्म बहाने का न धर्म से कोई लेना है
गंगा का मुझ पर क़र्ज़ा है मुझको वो वापस देना है
मेरी यादों के काग़ज़ पर अब भी बचपन की रेखा है
जब रुत बदलीं, मौसम बदले गंगा को मैंने देखा है
गंगा तो ऐसी नदिया है जो जनमानस पर छाई है
गंगा ने ही जनमानस में ख़ुशियों की किरण जगाई है
गंगा प्राचीन सभ्यता की भारत में एक निशानी है
वो बदली हो या ठहरी हो, अमृत गंगा का पानी है
मैंने गंगा को देखा है अलसुबह मुस्कुराती थी वो
जाड़ों में सिमटी सिमटी सी ख़ामोश बहे जाती थी वो
देखी है उसकी उछल कूद है उसकी ताक़त याद अभी
वो जीवन भी दे सकती है वो कर सकती बरबाद सभी
वो याद दिलाती है मुझको अपने प्राचीन निशानों की
उस पर्वत शिखर हिमालय की उन हरे भरे मैदानों की
मैं छोड़ चुका अब रस्मों को,रीति को और रिवाजों को
सब बंधन-बेड़ी तोड़ो तुम मैं कहता सभी समाजों को
जो आगे बढ़ने से रोके मत खुद को उसमें जकड़ो तुम
मत छोड़ो अपनी परम्परा अधुनातन राहें पकड़ो तुम
है फ़ख़्र मुझे मैंने कितनी समृद्ध विरासत पाई है
मेरे मन में इसकी ख़ातिर श्रद्धा भी ख़ूब समाई है
मेरी अस्थि की भस्म एक मुट्ठी में जाकर भर लेना
फिर इलाहाबाद में बहती जो गंगा में अर्पित कर देना
वो सागर में मिल जायेगी जिसका भारत पर पहरा है
जिसकी ख़ातिर मेरे मन में श्रद्धा का सागर गहरा है
जो बच जाएगी भस्म उसे ऊँचाई पर लेकर जाना
फिर उसको अपने हाथों से बिखरा कर ही वापस आना
वो मिट्टी में,खेतों में और खलिहानों में मिल जाएगी
वो भारत का हिस्सा बनकर भीतर तक ही खिल जाएगी
भावों की एक तराज़ू पर अपने शब्दों को तोल रहा हूँ
मुझे ग़ौर से सुनना तुम मैं पंडित नेहरू बोल रहा हूँ।
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