शनिवार, 30 अप्रैल 2022

हिंदू परम्परा का आधार

 हालांकि मैं छुआछूत नही मानता,किंतु बतौर मेडिकल प्रिकाशंस किसी भी संभावित संक्रामक रोग के मरीज से, मैं पर्याप्त दूरी बनाकर रखूंगा, क्योंकि मेरे डॉक्टर ने मुझे यही जताया है! किंतु जो लोग छुआछूत के विरोधी हैं उनसे एक सवाल है, कि वे यह बताएं कि किसी कोरोना पॉजिटिव्स इंसान को देखकर उसे गले से लगाएंगे या उससे निर्धारित दूरी बनाकर रखेंगे ? यदि कोई हास्पिटालाइज रहा है तो उसे पहले क्वारेंटाइन में रहने का प्रयास करेंगे या सरकार और मेडीकल कौंसिल के साफ सफाई के निर्देशों की निंदा करेंगे या नियमों का पालन करेंगे या कोरोना ग्रस्त से भरत मिलाप करेंगे?

हमें सचाई से दूर नहीं भागना चाहिये,जिस तरह कोरोना वायरस महामारी में छुआछूत सामाजिक पाप नही है! इसी तरह अतीत में समय समय पर बीमारियों और संक्रमणों से बचने के लिये जो स्वच्छता और सामाजिक दूरी के मापदंड निर्धारण किये गये थे,वही कालांतर में जातीय छुआछूत के विकृत सामाजिक आधार बनते चले गए!
कर्म के आधार पर बनी चातुर्वर्ण व्यवस्था हजारों साल तक ठीक ठाक चलती रही है।
जो लोग भारतीय सनातन दार्शनिक परंपरा के अध्येता हैं,वे बखूबी जानते हैं कि ऋग्वेद के *पुरुष सूक्त* में वर्णित आर्य सनातन वर्ण व्यवस्था,अत्यंत महत्वपूर्ण,वैज्ञानिकता से ओतप्रोत विकासशील व्यवस्था हुआ करती थी । तदनुसार वर्ण व्यवस्था की तुलना पुरुष रूपी *ब्रह्म* से की गई है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में ब्राह्मण वर्ण की तुलना ब्रह्म पुरुष के सिर से की गई है,जो चिंतन,मनन,शिक्षण - प्रशिक्षण और पूजा पाठ करने कराने का कर्म करे,उसे ही ब्राह्मण कहा गया!
जो बलिष्ठ बहादुर थे,जो सर्व समाज की कबाहर-भीतर रक्षा करते थे,वे क्षत्रिय वर्ण के तौर पर *ब्रह्म पुरुष*की भुजाओं से उत्पन्न माने गये!जो खेती कास्तकारी गौ पालन लेन दैन खरीद फरोख्त करते थे,वे वणिक या वैश्य कहलाए!
जो सर्व समाज की सेवा चाकरी करते थे, उनकी तुलना साक्षात ब्रह्म के पैरों से की गई और उन्हें शूद्र कहा गया! चूंकि सेवाकार्य को सबसे श्रेष्ठ कार्य माना गया है,अतः पूजा पाठ में आर्य या सनातनी हिंदू शूद्र वर्ण रूपी ब्रह्म के चरणों की आराधना करता है,परमपुरुष के चरणों को नमन ही प्रमुख रुप से हिंदूओं की परम्परा का आधार रहा है! सम्मानित शूद्र वर्ण को *क्षुद्र जाति* में कब कैसे धकेल दिया गया यह शोध का विषय है।और उन कारणों के निदान की समीक्षा भी होनी चाहिए!
कालान्तर में विदेशी आक्रमणकारियों ने भारतीय समाज की कुछ खामियों के चलते यहां 'फूट डालो राज करो' सिद्धांत को लागू किया। उन्होंने किसानों को मजूरों से अवर्ण को सवर्ण से लड़ा दिया!जबकि गीता के अनुसार :-
"विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तनि, शुनिचैव स्वापाके च, पंडित: समदर्शिन:"
अर्थात हिंदू धर्म संस्कृति में सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि सब प्राणी बराबर हैं,यदि लोक में या शास्त्रीय आचरण में मामूली सामाजिक असमानता है,तो वह परिस्थितिजन्य कारणों से बाध्यता मूलक सामाजिक व्यवहार मात्र है!

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