दुनिया में जितने भी धर्म-मजहब एवं पंथ विद्यमान हैं ,और मानव सभ्यता के जितने भी भाववादी दर्शन - विचार एवं पूजा पद्धतियाँ विद्यमान हैं, सभी में मानवीय मूल्यों की वेशकीमती ढेरों स्थापनाएँ मौजूद है।सभी धर्म -मजहबों में इंसानियत के अनगिनत मोती बिखरे पड़े हैं। सभी धर्म-मजहब के संस्थापकों में उदात्त चरित्र -धर्मयोद्धाओं ने हर युग में विश्व -कल्याण के लिए महान त्याग और बलिदान किये है। फिर वे पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किये जा सकते ! प्रथम दृष्टया कोई भी धर्म-दर्शन पंथ जब तक व्यक्तिगत रूप से आचरित है और विशुद्ध मानवतावादी है तब तक वह पूरा का पूरा त्याज्य नहीं हो सकता।
कोई घोर नास्तिक या तर्कवादी अथवा पदार्थवादी भी इससे सहमत नहीं हो सकता कि 'मंदिर-मस्जिद तो सिर्फ बैर ही कराते हैं और उन्मत्त मधुशालायें तो मानों मानवता की निर्झरणी ही हैं '। गो कि हरिवंशराय बच्चन जी का रूपक भले ही सार्थक हो किन्तु युक्तियुक्त तार्किक सिद्धांत अकदपि नहीं। इससे भी कदापि सहमत नहीं हुआ जा सकता कि 'जब तक मंदिर -मस्जिद आबाद रहेंगे ,तब तक धरती पर केवल शैतान ही आबाद रहेंगे ! और इससे भी किंचित सहमत होना सम्भव नहीं कि 'धर्म-मजहब केवल पाखंड और अफीम है '!
वेशक धर्म- मजहब का बेजा दुरूपयोग हुआ है और इस दौर में तो कुछ ज्यादा ही हो रहा है। किन्तु जब यह आश्थावाद सापेक्ष रूप से किसी एक स्टेज पर भटकाव की दशा को प्राप्त हो सकता है ,तो तर्कवाद,पदार्थवाद और वैज्ञानिकता के बिलकुल भी नहीं भटकने की गारंटी कौन देगा ? अनीश्वरवादी -भौतिकवादी दर्शन भी तो समय - समय पर यथार्थ के धरातल पर दुरूस्तीकरण का मुँहताज हुआ करता है। वास्तव में विज्ञान के आविष्कारों ने धरती और ब्रम्हाण्ड के स्थूल को समझने में जो चमत्कार प्रस्तुत किया है ,वह दुनिया के सभी धर्म -मजहब और आध्यात्मिक दर्शन पर भारी पड़ने लगा है। वास्तव में आध्यात्मिक तत्व -चिंतन ने तो मनुष्य के अंतस को समझने का और मानवीय जीवन को आनंदमय बनाने का काम किया है। लेकिन इस उत्तर आधुनिक और भूमंडलीकरण के दौर में संसार के धर्म-मजहब साइंस का दुरूपयोग कर पूंजीवाद के चाकर हो चुके हैं
वेशक मार्क्सवादी सिद्धांत यद्द्पि पूर्णतः वैज्ञानिक ,वैश्विक और मानवतावादी है.अंततः वह पूर्णरूपेण मान्य भी होना ही चाहिये।किन्तु भारत के वैदिक सिद्धांतों के संदर्भ में अथवा दुनिया के अन्य प्राचीन धर्म -दर्शनों के संदर्भ में मार्क्सवाद से संगति बिठाने का ऐतिहासिक कार्यभार अभी भी बाकी है। वास्तव में दोनों ही छोर पर पर्याप्त सुधार की बहुत गुंजाइस है। अन्य धर्म-मजहब और भाववादी दर्शनों के बारे में तो मैं दावा नहीं करूंगा , किन्तु भारतीय वेदान्त ,और षड्दर्शन के सापेक्ष मार्क्सवाद की 'धर्म मजहब एक अफीम है ' वाली स्थापना से कोई बैर नहीं है। चूँकि संसार के इस सबसे प्राचीन वैदिक दर्शन के सूत्रकारों -मन्त्र दृष्टाओं ने अपनी स्मृति व सर्जनात्मक मेधा शक्ति से मानव सभ्यता की प्रारम्भिक कई सहस्त्राब्दियों तक केवल आदिम -प्राकृतिक साम्यवादी निष्कलंक साम गान ही किया है। उन्होंने वेद प्रणीत सूत्रों -संहिताओं में इहलौकिक -भौतिकवादी, जड़वादी - अनीश्वरवादी मन्त्रों की भरपूर रचना की है। इसमें तो धर्म या मजहब की अफीम रंचमात्र नहीं है। उसमें साम्प्रदायिकता भी नहीं रत्ती भर नहीं है। यह तो इस धरती पर मेधावी मानवों द्वारा मानव सभ्यता की उषा काल का निष्कलंक उदयगान कहा जाना चाहिए।
भारतीय वैज्ञानिक अध्यात्म चिंतन में पौराणिक कर्मकांड और मिथ का निवेश भले ही 'अबूझ' और अकारथ हो। किन्तु उसका मूलस्वरूप और चिंतन विशुद्ध भौतिकवादी,वैज्ञानिक तथा शुद्ध प्रकृतिवादी ही है। यह प्राच्य दर्शन और आध्यात्मिक साहित्य प्रकृति के प्रति मानवीय कृतज्ञता व्यक्त करने के विचार से उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवाद और वैज्ञानिक भौतिकवाद से इसका कोई विरोध नहीं है। दरसल धर्मांध समूहों स्वार्थी गुरूघंटालों मठाधीशों ,अंध -धार्मिक संस्थानों और निहित स्वार्थी राजनैतिक संगठनो ने प्राचीन भारतीय दर्शन की दुर्गति की है। प्राच्य साहित्य का सत्यानाश किया है। इस मानवतावादी ,जन-कल्याणकारी और विश्व कल्याणकारी प्राच्य भारतीय दर्शन और अध्यात्म को पथभृष्ट करने,उसको अमानवीय बनाने में विदेशी हमलावरों की खासी भूमिका रही है।
हजारों सालों की गुलामी ने प्राचीन भारतीय ब्रह्म विद्या और अध्यात्म दर्शन को हर किस्म के नव वैज्ञानिक अनुसन्धान और वैज्ञानिक भौतिकवादी मूल सिद्धांतों से पदच्युत किया है । वीसवीं सदी से लेकर अब तक के कूपमंडूक स्वयंभू प्रगतिशील विचारकों और अध्यात्म ज्ञान से वंचित अंग्रेजीदां इतिहासकारों ने मूर्खतापूर्ण व्याख्याएँ ही प्रस्तुत कीं हैं। उन्होंने पाश्चात्य रिलीजन्स-मजहब की तरह हिन्दू धर्म अर्थात भारतीय वैदिक दर्शन को भी मार्क्सवाद के सामने प्रतिदव्न्दी बनाकर खड़ा कर दिया । इस हिमालयी भूल के लिए ,प्रगतिशील लेखक ,विचारक ,चिंतक और वामपंथी कतारों का पूर्वाग्रह तो जिम्मेदार हैं ही ,किन्तु जिन्हे भारतीय वांग्मय और दर्शन के अलावा मार्क्सवाद का ककहरा भी नहीं मालूम, वे हिंदुत्व की राजनीति के ठेकेदार भी इस अधः पतन और पराभव के लिए बराबर के साझीदार हैं। गुलामी की कड़वाहट से ग्रस्त ये प्राच्य विद्या विशारद वेद प्रणीत सिद्धांत अर्थात वैज्ञानिक हिन्दू धर्म को ,लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति में घुसेड़कर यूरोपियन - अरेबियन सभ्यताओं की नकारात्मक नकल किये जा रहे हैं।
इसी तरह कुछ मार्क्सवादी चिंतक भी किसी तत्ववेत्ता आध्यात्मिक दार्शनिक की तरह धर्म-मजहब के अखाड़े में मल्ल युद्ध पर उतारू हो जाते हैं। वे गाहे -बगाहे भारतीय षड दर्शन ,अध्यात्म को कर्मकांड के साथ नथ्थी कर लिया करते हैं। वे भाववादी दर्शन की बारह पसेरी धान गड्मड् करते रहते हैं। कभी -कभी तो बड़े -बड़े दिग्गज कामरेड भी अपनी हास्यापद अज्ञानता को वैज्ञानिक -तार्किक विद्वत्ता ही समझ बैठते हैं। वे मार्क्स -लेनिन की उन शिक्षाओं को भूल जाते यहीं कि "हमें अपनी भूलों से निरतंर सीखते हुए आगे बढ़ना है ' और यह भी कि '' व्यवस्था की खामियों और उनकी वजहों का स्यापा ही नहीं पढ़ते रहना है ।'' इस संदर्भ में मार्क्स और भारतीय अध्यात्म दर्शन की साम्यता दृष्टव्य है ;-
"न बुध्दिभेदम जनयेदज्ञानाम कर्मसङ्गिनाम् ,जोषयेतसर्वकर्माणि विद्वान्युक्तसमाचरन् "[गीता]
भारत में जो लोग साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के विरुद्ध यदा -कदा अपनी भड़ास निकल लिया करते हैं, , धर्म-मजहब या मानवीय मूल्यों पर हल्ला बोलकर अपनी उथली प्रगतिशीलता झाड़ते रहते हैं , जिन बौद्धिक पाहुनों के हाथों से आतंक और धर्मान्धता के साँप तो मरते नहीं ,लेकिन लठ्ठ लेकर धर्म-मजहब पर जरूर टूट्ते रहते हैं।उनसे अनुरोध है कि वे अपनी वैज्ञानिक भौतिकवादी सोच को तनिक भारत की प्राच्य सोच के अनुरूप ढाल लें। जिसे मार्क्स ने भी माना है। इस संदर्भ में 'आदिशंकराचार्य बनाम मंडन मिश्र का सम्वाद ' सबसे जीवंत प्रमाण है । हम चाहे जिस किसी भी धर्म - मजहब पर टीका-टिप्पणी करते रहें लेकिन यदि उसके मूल ग्रन्थ और सिद्धांतो सूत्रों का सांगोपांग अध्यन नहीं किया तो हम आलोचना के हकदार कैसे हो सकते हैं ? वेशक हम कबीर ही बन जाए। किन्तु जहाँ तक इस तरह के किसी अर्ध अशिक्षित व्यक्ति द्वारा किसी भी धर्म-मजहब और खास तौर से वैदिक सिद्धांतों की मार्क्सवादी आलोचना के प्रश्न का सवाल है तो इसके लिएउसे सबसे पहले संस्कृत भाषा -व्याकरण व खास तौर से वैदिक संस्कृत का समुचित अभ्यास बहुत जरुरी है। यदि किसी ने वेद , उपनिषद ,आरण्यक , संहिताएं और पुराण इत्यादि का अध्यन नहीं किया तो वह भारतीय प्राच्य विद्या विशारद नहीं हो सकता। जो लोग भारतीय धर्म-दर्शन को भी 'अफीम' समझते हैं ,वे कम से कम भगवद गीता और पाणिनि की अष्टाध्याई का संगोपनाग अध्यन अवश्य करें। तभी मार्क्सवाद के नजरिये से प्राच्य दर्शन को समझा जा सकता है।
पुरातन भारतीय वांग्मय पढ़ने के दो फायदे हैं। एक तो वर्तमान में जो बाबावाद ,सम्प्रदायवाद और पाखंड उन्माद चल रहां है वह खुद खत्म हो जाएगा । दुसरे प्रगतिशील वामपंथी चिंतन को जन-जन तक पहुँचाने में आसानी होगी। अध्येता को यह जानकर अचरज होगा कि हिन्दू अर्थात वैदिक दर्शन और सभ्यता के इतिहास का हर दौर चीख-चीख कर कह रहा है ''जीवमात्र का कल्याण हो ! 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' इस धरती से बुराइयों का अंत हो ! इंसानियत का बोलवाला हो ! शैतान का नाश हो ! अमन -चैन और खुशहाली का विस्तार हो !''
लेकिन इसके विपरीत इस धरती पर कुछ ऐंसे भी धर्म - मजहब है जो केवल मानवता का और इस धरती का नाश करना ही अपना उत्सर्ग समझ बैठे हैं। ऐंसे ही धर्म-मजहब के भरोसे सदियाँ बीत गयीं हैं , किन्तु हिंसा और शोषण का सिस्टम अन्वरत जारी है। इनके सापेक्ष जब वैदिक दर्शन आधरित हिन्दू धर्म की तुलना की जाती है तो श्रोता-पाठक यह खोजकर चकित रह जाता है कि किसी भी हिन्दू या आर्य ने अमेरिका,रोम ,फ़्रांस,ईरान,अरब या जर्मनी पर हमला नहीं किया। प्रारम्भ में धर्मसंस्थापन या मजहब की स्थापना करते हुए जिस आसुरी अर्थात शैतानी ताकत को परास्त करने का सपना देखा गया , वह सपना अभी भी अधूरा है। अमानवीयता,शोषण ,अन्याय और शैतान की खुरापात आज भी न केवल सही सलामत है ,बल्कि उत्पीड़न -दमन के काल सर्प रुपी अनगिनत जहरीले फन एक साथ अभी भी जहर उगल रहे हैं। शैतान का या शोषण की ताकतों का अभी तक बाल भी बांका नहीं हुआ है। धर्म-मजहब की वामियों से निकले नए-नए आतंकी सपोले केवल इंसानियत को ही डस रहे है !
प्रत्येक सभ्य समाज और मूल्यों की समुन्नत सांस्कृतिक दुनिया के लोगों द्वारा सभी धर्म-मजहब के लोगों को बहुत आदर सम्मान भी मिलता रहा है। धर्म -मजहब जब तक वैयक्तिक रहा ,जब तक उसे राज्याश्रय या राजनीति से दूर रखा गया तब तक उसे समाज के हर हिस्से में वैश्विक मान्यता और समादर प्राप्त होता रहा। किन्तु धर्म-मजहब को जब किसी खास कौम के लिए ,किसी खास कबीले के लिए,किसी खास साम्राज्य के लिए इस्तेमाल किया गया ,तब वह धर्म-मजहब ही समाज और इंसानियत के लिए एक नशा एक अफीम बन गया। हिंसक राजनीति का औजार बनाया गया । जब उसे युद्ध या व्यापार का हिस्सा बनाया गया ,जब धर्म मजहब को सत्ता या पावर की सीढी बनाया गया तो धर्म -मजहब भयानक -कालरा, ईलुफंजा जैसी वैश्विक महामारी बन गया!पजीवादी वर्गीय समाज में दक्षिणपंथी अनुदारवादी कंजरवेटिव और प्रतिक्रियावादी लोग 'धर्म-मजहब' की अफीम खुद भी खाते हैं और आवाम को भी खिलाते रहते हैं। दुनिया के हर देश में और हर कौम में कुछ लोग परम्परागत पैदायशी धर्मभीरु हुआ करते हैं। वे धर्म -मजहब की चटनी -आचार का मुरब्बा बनाकर खुद तो खाते ही हैं और सरमाएदारी की कुशल चाकरी के लिए 'शोषित -सर्वहारा' वर्ग को भी खिलाते रहते हैं। श्रीराम तिवारी
कोई घोर नास्तिक या तर्कवादी अथवा पदार्थवादी भी इससे सहमत नहीं हो सकता कि 'मंदिर-मस्जिद तो सिर्फ बैर ही कराते हैं और उन्मत्त मधुशालायें तो मानों मानवता की निर्झरणी ही हैं '। गो कि हरिवंशराय बच्चन जी का रूपक भले ही सार्थक हो किन्तु युक्तियुक्त तार्किक सिद्धांत अकदपि नहीं। इससे भी कदापि सहमत नहीं हुआ जा सकता कि 'जब तक मंदिर -मस्जिद आबाद रहेंगे ,तब तक धरती पर केवल शैतान ही आबाद रहेंगे ! और इससे भी किंचित सहमत होना सम्भव नहीं कि 'धर्म-मजहब केवल पाखंड और अफीम है '!
वेशक धर्म- मजहब का बेजा दुरूपयोग हुआ है और इस दौर में तो कुछ ज्यादा ही हो रहा है। किन्तु जब यह आश्थावाद सापेक्ष रूप से किसी एक स्टेज पर भटकाव की दशा को प्राप्त हो सकता है ,तो तर्कवाद,पदार्थवाद और वैज्ञानिकता के बिलकुल भी नहीं भटकने की गारंटी कौन देगा ? अनीश्वरवादी -भौतिकवादी दर्शन भी तो समय - समय पर यथार्थ के धरातल पर दुरूस्तीकरण का मुँहताज हुआ करता है। वास्तव में विज्ञान के आविष्कारों ने धरती और ब्रम्हाण्ड के स्थूल को समझने में जो चमत्कार प्रस्तुत किया है ,वह दुनिया के सभी धर्म -मजहब और आध्यात्मिक दर्शन पर भारी पड़ने लगा है। वास्तव में आध्यात्मिक तत्व -चिंतन ने तो मनुष्य के अंतस को समझने का और मानवीय जीवन को आनंदमय बनाने का काम किया है। लेकिन इस उत्तर आधुनिक और भूमंडलीकरण के दौर में संसार के धर्म-मजहब साइंस का दुरूपयोग कर पूंजीवाद के चाकर हो चुके हैं
वेशक मार्क्सवादी सिद्धांत यद्द्पि पूर्णतः वैज्ञानिक ,वैश्विक और मानवतावादी है.अंततः वह पूर्णरूपेण मान्य भी होना ही चाहिये।किन्तु भारत के वैदिक सिद्धांतों के संदर्भ में अथवा दुनिया के अन्य प्राचीन धर्म -दर्शनों के संदर्भ में मार्क्सवाद से संगति बिठाने का ऐतिहासिक कार्यभार अभी भी बाकी है। वास्तव में दोनों ही छोर पर पर्याप्त सुधार की बहुत गुंजाइस है। अन्य धर्म-मजहब और भाववादी दर्शनों के बारे में तो मैं दावा नहीं करूंगा , किन्तु भारतीय वेदान्त ,और षड्दर्शन के सापेक्ष मार्क्सवाद की 'धर्म मजहब एक अफीम है ' वाली स्थापना से कोई बैर नहीं है। चूँकि संसार के इस सबसे प्राचीन वैदिक दर्शन के सूत्रकारों -मन्त्र दृष्टाओं ने अपनी स्मृति व सर्जनात्मक मेधा शक्ति से मानव सभ्यता की प्रारम्भिक कई सहस्त्राब्दियों तक केवल आदिम -प्राकृतिक साम्यवादी निष्कलंक साम गान ही किया है। उन्होंने वेद प्रणीत सूत्रों -संहिताओं में इहलौकिक -भौतिकवादी, जड़वादी - अनीश्वरवादी मन्त्रों की भरपूर रचना की है। इसमें तो धर्म या मजहब की अफीम रंचमात्र नहीं है। उसमें साम्प्रदायिकता भी नहीं रत्ती भर नहीं है। यह तो इस धरती पर मेधावी मानवों द्वारा मानव सभ्यता की उषा काल का निष्कलंक उदयगान कहा जाना चाहिए।
भारतीय वैज्ञानिक अध्यात्म चिंतन में पौराणिक कर्मकांड और मिथ का निवेश भले ही 'अबूझ' और अकारथ हो। किन्तु उसका मूलस्वरूप और चिंतन विशुद्ध भौतिकवादी,वैज्ञानिक तथा शुद्ध प्रकृतिवादी ही है। यह प्राच्य दर्शन और आध्यात्मिक साहित्य प्रकृति के प्रति मानवीय कृतज्ञता व्यक्त करने के विचार से उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवाद और वैज्ञानिक भौतिकवाद से इसका कोई विरोध नहीं है। दरसल धर्मांध समूहों स्वार्थी गुरूघंटालों मठाधीशों ,अंध -धार्मिक संस्थानों और निहित स्वार्थी राजनैतिक संगठनो ने प्राचीन भारतीय दर्शन की दुर्गति की है। प्राच्य साहित्य का सत्यानाश किया है। इस मानवतावादी ,जन-कल्याणकारी और विश्व कल्याणकारी प्राच्य भारतीय दर्शन और अध्यात्म को पथभृष्ट करने,उसको अमानवीय बनाने में विदेशी हमलावरों की खासी भूमिका रही है।
हजारों सालों की गुलामी ने प्राचीन भारतीय ब्रह्म विद्या और अध्यात्म दर्शन को हर किस्म के नव वैज्ञानिक अनुसन्धान और वैज्ञानिक भौतिकवादी मूल सिद्धांतों से पदच्युत किया है । वीसवीं सदी से लेकर अब तक के कूपमंडूक स्वयंभू प्रगतिशील विचारकों और अध्यात्म ज्ञान से वंचित अंग्रेजीदां इतिहासकारों ने मूर्खतापूर्ण व्याख्याएँ ही प्रस्तुत कीं हैं। उन्होंने पाश्चात्य रिलीजन्स-मजहब की तरह हिन्दू धर्म अर्थात भारतीय वैदिक दर्शन को भी मार्क्सवाद के सामने प्रतिदव्न्दी बनाकर खड़ा कर दिया । इस हिमालयी भूल के लिए ,प्रगतिशील लेखक ,विचारक ,चिंतक और वामपंथी कतारों का पूर्वाग्रह तो जिम्मेदार हैं ही ,किन्तु जिन्हे भारतीय वांग्मय और दर्शन के अलावा मार्क्सवाद का ककहरा भी नहीं मालूम, वे हिंदुत्व की राजनीति के ठेकेदार भी इस अधः पतन और पराभव के लिए बराबर के साझीदार हैं। गुलामी की कड़वाहट से ग्रस्त ये प्राच्य विद्या विशारद वेद प्रणीत सिद्धांत अर्थात वैज्ञानिक हिन्दू धर्म को ,लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति में घुसेड़कर यूरोपियन - अरेबियन सभ्यताओं की नकारात्मक नकल किये जा रहे हैं।
इसी तरह कुछ मार्क्सवादी चिंतक भी किसी तत्ववेत्ता आध्यात्मिक दार्शनिक की तरह धर्म-मजहब के अखाड़े में मल्ल युद्ध पर उतारू हो जाते हैं। वे गाहे -बगाहे भारतीय षड दर्शन ,अध्यात्म को कर्मकांड के साथ नथ्थी कर लिया करते हैं। वे भाववादी दर्शन की बारह पसेरी धान गड्मड् करते रहते हैं। कभी -कभी तो बड़े -बड़े दिग्गज कामरेड भी अपनी हास्यापद अज्ञानता को वैज्ञानिक -तार्किक विद्वत्ता ही समझ बैठते हैं। वे मार्क्स -लेनिन की उन शिक्षाओं को भूल जाते यहीं कि "हमें अपनी भूलों से निरतंर सीखते हुए आगे बढ़ना है ' और यह भी कि '' व्यवस्था की खामियों और उनकी वजहों का स्यापा ही नहीं पढ़ते रहना है ।'' इस संदर्भ में मार्क्स और भारतीय अध्यात्म दर्शन की साम्यता दृष्टव्य है ;-
"न बुध्दिभेदम जनयेदज्ञानाम कर्मसङ्गिनाम् ,जोषयेतसर्वकर्माणि विद्वान्युक्तसमाचरन् "[गीता]
भारत में जो लोग साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के विरुद्ध यदा -कदा अपनी भड़ास निकल लिया करते हैं, , धर्म-मजहब या मानवीय मूल्यों पर हल्ला बोलकर अपनी उथली प्रगतिशीलता झाड़ते रहते हैं , जिन बौद्धिक पाहुनों के हाथों से आतंक और धर्मान्धता के साँप तो मरते नहीं ,लेकिन लठ्ठ लेकर धर्म-मजहब पर जरूर टूट्ते रहते हैं।उनसे अनुरोध है कि वे अपनी वैज्ञानिक भौतिकवादी सोच को तनिक भारत की प्राच्य सोच के अनुरूप ढाल लें। जिसे मार्क्स ने भी माना है। इस संदर्भ में 'आदिशंकराचार्य बनाम मंडन मिश्र का सम्वाद ' सबसे जीवंत प्रमाण है । हम चाहे जिस किसी भी धर्म - मजहब पर टीका-टिप्पणी करते रहें लेकिन यदि उसके मूल ग्रन्थ और सिद्धांतो सूत्रों का सांगोपांग अध्यन नहीं किया तो हम आलोचना के हकदार कैसे हो सकते हैं ? वेशक हम कबीर ही बन जाए। किन्तु जहाँ तक इस तरह के किसी अर्ध अशिक्षित व्यक्ति द्वारा किसी भी धर्म-मजहब और खास तौर से वैदिक सिद्धांतों की मार्क्सवादी आलोचना के प्रश्न का सवाल है तो इसके लिएउसे सबसे पहले संस्कृत भाषा -व्याकरण व खास तौर से वैदिक संस्कृत का समुचित अभ्यास बहुत जरुरी है। यदि किसी ने वेद , उपनिषद ,आरण्यक , संहिताएं और पुराण इत्यादि का अध्यन नहीं किया तो वह भारतीय प्राच्य विद्या विशारद नहीं हो सकता। जो लोग भारतीय धर्म-दर्शन को भी 'अफीम' समझते हैं ,वे कम से कम भगवद गीता और पाणिनि की अष्टाध्याई का संगोपनाग अध्यन अवश्य करें। तभी मार्क्सवाद के नजरिये से प्राच्य दर्शन को समझा जा सकता है।
पुरातन भारतीय वांग्मय पढ़ने के दो फायदे हैं। एक तो वर्तमान में जो बाबावाद ,सम्प्रदायवाद और पाखंड उन्माद चल रहां है वह खुद खत्म हो जाएगा । दुसरे प्रगतिशील वामपंथी चिंतन को जन-जन तक पहुँचाने में आसानी होगी। अध्येता को यह जानकर अचरज होगा कि हिन्दू अर्थात वैदिक दर्शन और सभ्यता के इतिहास का हर दौर चीख-चीख कर कह रहा है ''जीवमात्र का कल्याण हो ! 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' इस धरती से बुराइयों का अंत हो ! इंसानियत का बोलवाला हो ! शैतान का नाश हो ! अमन -चैन और खुशहाली का विस्तार हो !''
लेकिन इसके विपरीत इस धरती पर कुछ ऐंसे भी धर्म - मजहब है जो केवल मानवता का और इस धरती का नाश करना ही अपना उत्सर्ग समझ बैठे हैं। ऐंसे ही धर्म-मजहब के भरोसे सदियाँ बीत गयीं हैं , किन्तु हिंसा और शोषण का सिस्टम अन्वरत जारी है। इनके सापेक्ष जब वैदिक दर्शन आधरित हिन्दू धर्म की तुलना की जाती है तो श्रोता-पाठक यह खोजकर चकित रह जाता है कि किसी भी हिन्दू या आर्य ने अमेरिका,रोम ,फ़्रांस,ईरान,अरब या जर्मनी पर हमला नहीं किया। प्रारम्भ में धर्मसंस्थापन या मजहब की स्थापना करते हुए जिस आसुरी अर्थात शैतानी ताकत को परास्त करने का सपना देखा गया , वह सपना अभी भी अधूरा है। अमानवीयता,शोषण ,अन्याय और शैतान की खुरापात आज भी न केवल सही सलामत है ,बल्कि उत्पीड़न -दमन के काल सर्प रुपी अनगिनत जहरीले फन एक साथ अभी भी जहर उगल रहे हैं। शैतान का या शोषण की ताकतों का अभी तक बाल भी बांका नहीं हुआ है। धर्म-मजहब की वामियों से निकले नए-नए आतंकी सपोले केवल इंसानियत को ही डस रहे है !
प्रत्येक सभ्य समाज और मूल्यों की समुन्नत सांस्कृतिक दुनिया के लोगों द्वारा सभी धर्म-मजहब के लोगों को बहुत आदर सम्मान भी मिलता रहा है। धर्म -मजहब जब तक वैयक्तिक रहा ,जब तक उसे राज्याश्रय या राजनीति से दूर रखा गया तब तक उसे समाज के हर हिस्से में वैश्विक मान्यता और समादर प्राप्त होता रहा। किन्तु धर्म-मजहब को जब किसी खास कौम के लिए ,किसी खास कबीले के लिए,किसी खास साम्राज्य के लिए इस्तेमाल किया गया ,तब वह धर्म-मजहब ही समाज और इंसानियत के लिए एक नशा एक अफीम बन गया। हिंसक राजनीति का औजार बनाया गया । जब उसे युद्ध या व्यापार का हिस्सा बनाया गया ,जब धर्म मजहब को सत्ता या पावर की सीढी बनाया गया तो धर्म -मजहब भयानक -कालरा, ईलुफंजा जैसी वैश्विक महामारी बन गया!पजीवादी वर्गीय समाज में दक्षिणपंथी अनुदारवादी कंजरवेटिव और प्रतिक्रियावादी लोग 'धर्म-मजहब' की अफीम खुद भी खाते हैं और आवाम को भी खिलाते रहते हैं। दुनिया के हर देश में और हर कौम में कुछ लोग परम्परागत पैदायशी धर्मभीरु हुआ करते हैं। वे धर्म -मजहब की चटनी -आचार का मुरब्बा बनाकर खुद तो खाते ही हैं और सरमाएदारी की कुशल चाकरी के लिए 'शोषित -सर्वहारा' वर्ग को भी खिलाते रहते हैं। श्रीराम तिवारी