मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

इस दौर की शिक्षा पद्धति में मानवीय संवेदनाओं का बहुत अभाव है।

 भारत की आजादी के शुरुआती  दो दशक तक  सरकारी क्षेत्र  के स्कूल कालेजों का शैक्षणिक  सिस्टम कुछ तो  बेहतर  था। ५०-६० के दशक में सरकारी विद्यालयों ,महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों  की इमारतों  के प्रवेश द्वार पर या उसके  सामने  गुजरने मात्र से  छात्रों को  ही नहीं बल्कि सभ्य-सुशिक्षित लोगों को भी  एक अजीब सिहरन का इल्हाम हुआ करता था । अधिकांस शैक्षणिक संस्थानों में बेहद अनुशासित और कसा हुआ  वातावरण था। हम लाख कहते रहें कि वह तो खौफजदा - मैकालेवादी शिक्षा का असर था किन्तु अंग्रेजों के इस अवदान से कोई कृतघ्न ही इंकार कर सकता है। आजकल  शिक्षा के क्षेत्र में जो निजी क्षेत्र की दुकाने कुकुरमत्ते की तरह सज रही हैं ,कोचिंग के  नाम पर कम्पटीशन के नाम पर जो लूटपाट हो रही है , जो दवंगों-मुन्ना भाइयों  का आतंक बढ़ चला है ,  जो व्यापम कांडों  के पापों का घड़ा भर रहा है ,उसके सापेक्ष तो स्वीकारना  पडेगा कि  अंग्रेजों की शिक्षा पध्दति और अनुशासन ही भारत जैसे पिछड़े देश  के लिए उपयुक्त था।

 इतिहास के अध्यन और विमर्श में  मेरी अभिरुचि  सदा से रही है । किन्तु विद्यार्थी जीवन में सपरिजनों और  शुभचिंतकों की सलाह पर मैंने अपने शैक्षणिक विषय साइंस और टेक्नॉलॉजी  ही चुने । बहुत बाद में जाकर मालूम हुआ कि यह फैसला सही था। तब साइंस विषय में डिग्री प्राप्त करने  वाले को सरकारी नौकरी की कोई कमी नहीं रहती थी। इसके अलावा साइंस पढ़ने का एक अतिरिक्त फायदा यह भी होता है कि साइंस की नजर से ही इस ब्रह्माण्ड को ,ग्रहों-उपग्रहों की स्थिति और प्राणिमात्र,जड़-चेतन की वास्तविक स्थति को और इस पृथ्वी को भी  वैज्ञानिक दृष्टि  से देखा-समझा जा सकता है। जबकि साइंस से इतर विषयों का अपना विशिष्ट महत्व तो है किन्तु वैज्ञानिक दृषिकोण नदारद रहता है । इतिहास ,धर्म-मजहब ,राजनीति ,समाजशास्त्र ,भूगोल और अर्थशाश्त्र  भी अपने  आदर्श रूप  को पाने के लिए विज्ञान का  ही सहारा लेते हैं । साइंस से उनकी वास्तविक और यथार्थ  स्थति का आकलन हो पाता  है।  साइंस पढ़ा  हुआ व्यक्ति किंचित  कूप मंडूक ,अंधश्रद्धालु , भेड़चाल वाला नहीं हो सकता। लेकिन यदि किसी को साइंस के साथ-साथ  धर्म - अध्यात्म  ,दर्शन , इतिहास  ,समाज  , भूगोल ,अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का ज्ञान हो तो  उसे 'बौद्धिक सम्पदा' का अधिकारी माना जा सकता है।  आधुनिक शिक्षा में तकनीकी का तो बहुत बोलवाला है। किन्तु इस दौर  की शिक्षा पद्धति में  मानवीय   संवेदनाओं के  वैज्ञानिक दृष्टिकोण  का  बहुत अभाव है।

ऐंसा नहीं है कि साइंस के विद्यार्थी को  पोंगा पंडित या मजहबी जेहादी नहीं बनाया जा सकता !लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि के  विवेकवान  और चैतन्यशील  लेखक -बुद्धिजीवी के लिए  यह सहूलियत है कि यदि वह दर्शन,इतिहास और अध्यात्म  को  जानना चाहे तो कोई कठिनई नहीं। लेकिन कामर्स -कला या भाषा संकाय के विद्यार्थी को फिजिक्स ,केमेस्ट्री समझ पाना बहुत मुश्किल है।  जिन लोगों की  अभिरुचि धर्म,अधाय्त्म और इतिहास में  ज्यादा है  वे उनके बनिस्पत दकियानूसी ही हैं ,जो साइंस जैसा  नीरस   विषय पढ़कर भी  मानवीय संवेदनाओं से युक्त हैं। श्रीराम तिवारी

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