गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

आलोचना ,समालोचना ,प्रत्यालोचना ki -प्रस्तावना [shriramtiwari]

 उत्तर आधुनिक लेखन की आवश्यक चेतना के रूप में किसी भी लेखक के लिए, उसके समकालीन  सामाजिक  वैज्ञानिक,राजनैतिक ,सांस्कृतिक सरोकारों का और मानवीय विसंगतियों का विहंगावलोकन अपेक्षित है। जिस तरह सत और अस्त का द्वन्द  ही हर युग का बीज प्रत्यय  हुआ करता है ,उसी तरह हर युग की एक क्रांतिकारी  सोच हुआ करती है। जिसमें  तार्किकता ,वैज्ञानिकता  और  प्रगतिशीलता  की  त्रिवेणी प्रवाहित हुआ करती है। मैंने अपने मौलिक व यथार्थवादी लेखन में निर्थक कल्पनाओं ,शाब्दिक आडंबरों और अनुपयुक्त अन्योक्तियों और विषय पुनरावृत्ति से बचने का भरसक प्रयास किया है। 

पद्य काव्य विधा में  अब तक मेरी  तीन  पुस्तकें - अनामिका ,शतकोटि मंजरी और 'साठ -पन्ने'  प्रकाशित हो  चुकी हैं।  समय-समय पर 'जन -काव्य -भारती 'और 'आनंदम्' इत्यादि मंचों से  भी  मेरे आलेख और कविताएँ  प्रकाशित होती रहीं  हैं। इसके अलावा  हंस ,वीणा ,अभिरुचि,अनुभूति ,काव्य प्रवाह व  इंदौर दूर संचार पत्रिका द्वारा भी मेरे आलेख और रचनाएँ प्रकाशित की जाती रहीं हैं। सम्प्रति  मध्यप्रदेश की विख्यात  विसिलब्लोवर  हिंदी मासिक पत्रिका "फॉलो-अप " के मार्गदर्शन ,सह  लेखन -सम्पादन  का उत्तरदायित्व भी  मुझे दिया गया  है। मेरा मानना  है कि  इस दौर में जो छप रहा है या दृश्य एवं श्रव्य माध्यम पर उपलब्ध है वह अधिकांस  या तो  आभासी है या फिर बाजार का हिस्सा है। मैंने इन सबके बरक्स यथार्थ और सापेक्ष सत्य को चुना। यह तो पाठक ही तय  करेंगे कि  मेरे लेखन की सार्थकता और प्रमाणिकता कितनी  है ?

हालाँकि  स्वास्थ्गत कारणों से ही सही किन्तु सायास साहित्यिक प्रतिभा प्रदर्शन से  मैंने  हमेशा दूरी बनाये  रखी। वेशक  में पेशेवर साहित्यकार नहीं हूँ ! मैं  धरतीपकड़  साहित्यकरों  की तरह  प्रसिद्धि ,सम्मान और बौद्धिक प्रतिभा प्रदर्शन के निमत्त कागज काले करने वालों लायक नहीं बन सका। कुछ थोड़ी सी साहित्यिक  - सामाजिक -संस्थाओं में नेतत्वकारी भूमिका अदा करने  के लिए  भी मैंने कभी कोई प्रयास नहीं किया। किन्तु बाज मर्तबा मुझे राष्ट्रीय स्तर के पदों पर काम करने का  अनायाश सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। मेरे  पुत्र डॉ प्रवीण तिवारी  ने लगातार आग्रह  किया कि  मैं अपने लेखन का कलेवर सीमित और संक्षिप्त करूँ किन्तु मैं चाहकर भी  ऐंसा नहीं कर सका। बेटे ने  कभी -कभार  टीवी  चेनल्स और  दूरदर्शन पर  भी मुझे अपनी बात रखने का अवसर उपलब्ध कराया।  फेस बुक समेत तमाम अधुनातन संचार साधनों पर पुत्र प्रवीण  के हजारों मित्र हैं। वे मुझे लिखते रहने के लिए  निरंतर  उत्साहित किया करते हैं। प्रवीण के अनन्य मित्र कुँवर पुष्पेन्द्रसिंह, फिल्म  अभिनेता  आशुतोष राणा , सनसनी स्टार श्रीवर्धन त्रिवेदी  और उनके तमाम मित्रों  की प्रेरणा से ही  विगत ७-८  वर्षों से मैं लगातार लिखता रहा। अपने निजी ब्लॉग  www.janwadi.blogspot.com  पर ,प्रवक्ता .काम पर ,हस्तक्षेप.काम  पर और फेसबुक ,ट्विटर सहित अन्य बेब साइट्स एवं माध्यमों  पर तथा अन्य उपलब्ध तमाम  डिजिटल  - इलेक्ट्रानिक   संचार माध्यमों पर भी मेरे  'निबंध' गीत -छंद और कवितायेँ  लगातार  प्रकाशित होते रहे है।

अपने निजी  ब्लॉग  पर अब तक [इस संकलन के प्रकाशन  तक ]लगभग एक  हजार से अधिक गद्द्य 'निबंध' और सौ से अधिक कवितायें  पोस्ट  हो चुकी हैं । द्रुत लेखन का यह सिलसिला अब भी जारी है।  जो  लोग ब्लॉग नहीं पढ़ पाते , फेसबुक  इत्यादि माध्यमों पर नहीं हैं ,अथवा आधा अधूरा आलेख ही सरसरी तौर पर पढ़ते हैं। अतः कई बार अर्थ का अनर्थ समझ लिया जाता है। हर जगह स्पष्टीकरण देते फिरना सम्भव  नहीं। कथ्य की साक्ष्य को अपने कुछ चयनित  आलेखों को पुस्तक के रूप में  आकार  दिया है।

अधिकांस निबंध आलोचनात्मक ,समीक्षात्मक ,विचारात्मक ,सूचनात्मक ही लिखे गए हैं। किन्तु  कभी-कभार धर्म-मजहब व  राजनैतिक दर्शन के  वैचारिक कठमुल्लापन या तात्विक संकीर्णतावाद का भी मान-मर्दन किया गया है। भले ही मेरे  निबंधों में नायक-नायिका नख-शिख वर्णन, बुर्जुआना अश्लीलता , सुरा  -सुंदरी वर्णन और स्वान्तःसुखाय की सृजनात्मकता नदारद है। किन्तु इन सबके के बरक्स सत्य बनाम  असत्य  की सापेक्ष तम   और शानदार  निर्मम  शल्य क्रिया अवश्य की  हैं।

कहा जाता रहा है कि "निबंध  मूलतः आपके  व्यक्तित्व  और विचारों का आइना हुआ करता है " ! किन्तु साइंस तकनीकी के अत्यधुनिकीकरण  के इस दौर में भी कविकुल गुरु कालिदास व  रससिद्ध कवि  मतिराम , बिहारी लाल  का रस सौंदर्य कालातीत  नहीं हुआ  है। आधुनिक  मंचीय नव्यगीत और टीवी -फ़िल्मी दुनिया ने जितना   जन आकर्षण दायरा बनाया है ,उसके समक्ष  प्रगतिशील और आधुनिक जनवादी सृजन चूँचूँ के मुरब्बे जैसा ही  है।  हालाँकि आर्थिक उदारीकरण  वैश्विक बाजारीकरण ,मजहबी  आतंकवाद और वैज्ञानिक उपलब्धियों के युक्तियुक्तकरण  के  विमर्श पर ही  इस दौर  की राजनीति अवलम्वित है। वेशक आज  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और नामवरसिंह भी चाहें तो 'कला-कला के लिए' की प्रासंगिकता सिद्ध नहीं कर सकते। किन्तु फिर  भी मेरे जैसे अदने  और गैरपेशेवर लेखक बनाम ब्लॉगर ने यह जुर्रत की है। अर्थात आलोच्य और नीरस विषय को सरस  - राग  -रति -रंग में लपेटकर प्रस्तुत  किया है।

आधुनिक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी अवधारणाओं  के परवान चढ़ने और लुढ़कने  के दौर में  , सार्वदेशिक अमानवीय  विध्वंशकारी शक्तियों के  सर्वव्यापकीकरण  और शोषणकारी  भूमंडलीकृत दौर  में  , असमानतावादी फिजाओं  ने  मेरे अधिकांस  लेखन को न केवल छान्दोग्य  कलात्मकता से  महरूम किया  है  बल्कि साहित्यिक रोचकता से भी कोसों  दूर रखा है।  शब्द रचना के  रूप -आकर के बरक्स अनाकर्षक और कुचित्रणता  के कठोर  दुर्गम कंटकाकीर्ण पथ का उच्छेदन   ही मेरी साहित्यिक यात्रा का अंतिम गंतव्य रहा है।

 कुछ मित्रों  और सुहृदयजनों की  हमेशा शिकायत रही है  कि मेरे आलेख  कुछ ज्यादा ही बृहदाकार होते हैं । उनके अनुसार  मेरी भाषा भी 'अजनबी' , अति क्लिष्ट और पांडित्यपूर्ण  हुआ करती है। यह भी आरोपित है कि मैं कदाचित उर्दू शब्दों को ज्यादा तवज्जो देता  हूँ। जबकि उनके सर्लार्थी हिंदी पर्याय शब्द इफरात से मौजूद हैं। कुछ को शिकायत रही है कि  संस्कृतनिष्ठ तत्सम्  शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है। वैचारिक तौर पर भी कुछ पार्थक्य की  शिकायत अवश्य रही होगी । हालाँकि मैं  तो खुद को निखालिस मार्क्सवादी -लेनिनवादी ही मानता हूँ।  किन्तु मेरे अन्य वामपंथी मित्रों -विचारकों और  साहित्यकारों को लगता है कि  मैं कदाचित उनकी नजर में  कदाचित आदर्श मार्क्सवादी नहीं हूँ। भारतीय दर्शन का सांगोपांग अध्येता होने के वावजूद भी मुझे दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादियों  की  ढेरों गालियाँ  खाने  का हमेशा  सौभाग्य प्राप्त हुआ है।इसके वावजूद  राजनीति और धर्म-मजहब के जुड़वाँ  संकीर्णतावाद से मेरी जंग जारी जारी रहेगी।  मार्क्सवादी भौतिकवादी दर्शन  और भारतीय  अध्यात्म  दर्शन के उच्चतर मूल्यों में  बहुत कुछ ऐंसा है जो इंसानियत के अनुकूल है। मैं  हमेशा उसी सत्य  - न्याय की  तलाश में हूँ।

मेरा  यह भी मानना  है कि मानक निबंध की झंझटों और दुरूह  मापदंडों के फेर में यदि निबंध का कथ्य और उसकी सार वस्तु ही अनकही रह जाए तो ऐंसे स्कंधविहीन आलेख  के सृजन की सार्थकता और औचित्य क्या रह जाएगा ? यदि मुझे  सूखा-बाढ  पीड़ित  किसानों के बारे में , ड्रग माफिया  और आतंकवाद के बारे में लिखना है, तो  पाठ्य पुस्तकीय निबंध की भाँति मात्र तीन सौ शब्दों में तो मुझसे यह कार्य सम्भव नहीं।  शुद्ध शैक्षणिक अथवा  महाविद्यालयीन  शिक्षा के लिए एक खास तयशुदा प्रारूप के अंतर्गत  लिखे जाने वाले निबंध के मान्य  परम्परागत ढांचे की परवाह मैंने  कभी नहीं की। क्योकि यह दायित्व मेरा नहीं है। यह  पुनीत कर्म तो राज्य द्वारा  वित्तपोषित याने तनखैया लेखक और 'सम्मान  प्राप्त 'बुद्धिजीवियों का है। इसलिए वे अपनी सरकार के निर्देश पर 'सत्ता के अनुरूप' लिख-लिखकर कागज काले किया  करें।

निश्चित रूप से यह सच है कि  एक  अच्छे  और सार्थक निबंध के लिए उसकी भाषा सरल सुगम्य और सुबोध होना ही  चाहिए। किन्तु जहाँ पर विषय वस्तु के सरोकार आर्थिक,सामाजिक और मजहबी -पाखंड -उच्छेदन के हों ,जहाँ  पतनशील व्यवस्था  के  खिलाफ तीखे तेवर  मौजूद हों, जहाँ यथार्थ के धरातल पर वैज्ञानिकता और तार्किकता  की ठोस बुनियाद के  शिल्प  का सामान मौजूद हो ,जहाँ आलोचना ,समालोचना ,प्रत्यालोचना  की निर्मम  -नीरस- चीरफाड़  के औजार मौजूद हो ,जहाँ लाभ-हानि आधारित स्वार्थगत भौतिकवादी व्यूह रचना के खिलाफ तार्किक और तीखे शस्त्र हों , और जहाँ पर जन-कल्याण कारी वैचारिक ध्वजवाहिनी  पर सर्वहारा का स्वेद मौजूद हो - वहाँ के  लेखन कर्म में  छंद शास्त्र का सौंदर्यऔर मनोरम लालित्य  खोजना मानों व्यक्तित्व का चरम  आशावादी होना  है।भले ही वहाँ  'कोमलकांत  पदावली 'का नामोनिशान ही न हो  किन्तु  मनुष्य और उसकी मानवीय सम्वेदनाएँ  शिद्दत से मौजूद रहेंगीं। श्रीराम तिवारी   

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