शनिवार, 19 दिसंबर 2015

इसी सनातन सहिष्णुता ने भारत को सदियों तक गुलाम बनाये रखा है।

जब प्रशांत महासागर या गिरिराज हिमालय की अतल  गहराइयों में भूस्खलन होता है  तो उसके विनाशकारी प्रभाव का असर सुदूर कोलकाता ,मुंबई ,विशाखापट्नम और चेन्नई में भी देखा जा सकता है। जब जापान  , फिलीपींस  दक्षिण चीन सागर में सुनामी का कहर उमड़ता है तो बंगाल की खाड़ी में उद्दाम लहरें उमड़ने लगतीं है। जब न्यूयार्क ,टोकियो,शंघाई या लन्दन में व्याज दरें बढ़तीं हैं तो मुंबई स्टॉक एक्सचेंज और शेयर बाजार में तेजी-मंदी  हिलोरें लेने लगती है। जब सूरज के अंदर जलती हुई गैसों का संतुलन बनता -बिगड़ता है तो सम्पूर्ण   सौर मंडल और धरती  पर भी  उसका असर होता है।

 इसी तरह जब मध्य एशिया - इजिप्ट ,सीरिया ,इराक ,तुर्की ,लीबिया ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जब मजहबी कटट्रपंथ का सैलाब उमड़ता है तो सुदूर भारत में भी आतंकी चूहे कुलाचें भरने लगते हैं। अर्थात भारत में जो  कभी-कभार मजहबी झगड़े ,साम्प्रदायिक उन्माद और 'असहिष्णुता' के छुटपुट उदाहरण  दरपेश होते हैं वे तो पेट्रोलियम  उत्पादन पर कैबेज खूंखार दरिंदों की अमानवीय हरकतों  की प्रतिक्रिया मात्र  है।ये तो महिमा उस दिग्भर्मित तथाकथित  इस्लामिक-जेहाद की है  कि यदि सलमान रश्दी  की किताब 'सेटेनिक -वर्सेस'  लंदन में  लिखी गई या छापी गई  है तो मजहबी -साम्प्रदायिक कीड़े  भारत के भोपाल ,दिल्ली बरेली ,मुजफरनगर, हैदरावाद,मुंबई ,बेंगलुरु ,भटकल और कश्मीर में  भी कुलकबुलाने लगते हैं। इसमें भारत की  शांतिप्रिय जनता और 'अहिंसावादी' हिन्दुओं का क्या कसूर है ?

यह सार्वभौम मान्यता है कि आरम्भ में तो प्रत्येक धर्म-मजहब का जन्म -संस्थापन आवश्यकता के धरातल पर उसकी जागतिक उपादेयता के हेतु ही हुआ है। सभी धर्म-मजहबों की शुरुआत तत्कालीन कबीलाई बर्बरता से मुक्त होकर करुणा,क्षमा,परोपकार,बंधुत्व ,शांति,मैत्री व विकास त्यादि बेहतरीन मानवीय मूल्यों की खातिर  और हिंसक मानवीय समूहों द्वारा बर्बर  आक्रमणों एवं प्राकृतिक आपदाओं के निवारणार्थ और  सभी प्राणियों की सुरक्षा के निमित्त  विभिन्न धर्मो-मजहबों की  स्थापना हुई  है। कालांतर में  समय-समय पर ईश्वर,जीव और जगत के अंतर्संबंधों को परिभाषित करने के निमित्त  जो शाब्दिक स्वर दिए गए उनसे ही विभिन्न धर्म-मजहब के सिद्धांतों और तदनुसार मूल ग्रंथों की रचना साकार हुयी है।

 जिस तरह गंगोत्री पर तो  गंगा  पर्याप्त स्वच्छ है किन्तु  लम्बी यात्रा के बाद आगामी  पड़ाव पर वह  मैली होने लगतीं है। इतना ही नहीं इलाहाबाद में संगम पर गंगा -यमुना  का मिलन भी उस पूर्ववर्ती निर्मलता को अक्षुण नहीं रखा पाता। लम्बी यात्रा  के बाद  गंगा जब गंगासागर अर्थात बंगाल की खाड़ी में  जाकर मिलती है तब वह  खुद भी  खारा समुद्र हो जाती है। इसी तरह दुनिया का प्रत्येक धर्म-मजहब शुरुआत में तो बहुत उदात्त एवं विश्व  कल्याणकारी हुआ करता है किन्तु लम्बे समयांतराल के बाद ,एक खास मोड़ पर सभी धर्म -मजहब का रूप आकार अत्यंत विकृत और बिकराल होता चला जाता है । इतना ही नहीं उनके सार तत्व और बुनियादी सिद्धांत भी काल कवलित होने लगते हैं।  दुनिया का कोई भी धर्म-मजहब ,दर्शन-विचार जो केवल आस्था और विश्वास के सहारे ही टिका है  उसकी प्रासंगिकता खतरे में है। केवल वही विचार ,सिद्धांत ,धर्म -दर्शन  चिरजीवी और सारभौमिक स्वीकार्यता बनाये  रख सकता है जिसका आधार विवेकपूर्ण ,तर्कपूर्ण  और  विज्ञानवादी  हो !

 इन दिनों जो -जो धर्म-मजहब छुइ-मुई हो चले हैं, वे बन्दूक के जोर पर या तो अपनी जंग -ए -जेहाद में जुटे हैं   या राष्ट्र सत्ता पर काबिज होकर आवाम के खान-पान ,पूजा -आस्था विश्वास को 'असहिष्णुतापूर्वक 'निर्देशित कर रहे हैं। ईश्वर के घर में किसी 'शूद्र'  के प्रवेश से  जिस धर्म के पिल्लर  ही धराशायी होने लगें उसके लिए गर्व  के ढपोरशंख बजाना तो 'अधर्म' ही होगा। जिस धर्म -मजहब के नियम साइंस ने खंडित कर दिए हों और आश्था  धूल धूसरित  होने लेगें उसके  कालगत सिद्धांत या निर्जीव 'सलीब' को  अनंत काल तक कन्धों पर लादे फिरना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता ।  इस दौर की बलिहारी है कि  जो सच के साथ खड़े हैं ,विज्ञान और विकास के साथ  खड़े हैं ,जो न्याय और मानवता के पक्ष में खड़े हैं वे  सत्ता की नजर में 'अपराधी हैं। वे , सफ़दर हाशमी  कलबुर्गी,पानसरे ,दाभोलकर -असहिष्णुता' के खिलाफ लड़ते हुए शहीद  हो रहे हैं ! आज जब  धर्म -मजहब  ही इंसानियत के लिए खतरा बन गए हैं  तो उनकी हिफाजत के नाम पर पाखंड क्यों किया जा रहा है ? लोकतंत्र रुपी दूध में  साम्प्रदायिकता रुपी जहर  क्यों मिलाया जा रहा है ? अमन  और  भाईचारे वाले  खुदाई पैगाम में उन्मादी जेहाद का  रक्तरंजित कहर क्यों बरस  रहा है?

 जिस तरह अधर्म के विनाश के लिए हर दौर में मानवीयता के  धर्म का अविष्कार होता रहा है ,उसी तरह हर दौर में पतित हो  चुकी सभ्यताओं और खंडित हो चुके के  धर्म -मजहब के विनाश के लिए भी विज्ञान रुपी यथार्थ का  भी अवतरण होता रहा है। अतीत के अनेक उदाहरण  हैं जो इस सिद्धांत को सिद्ध करते हैं। विगत २०० वर्षों में साइंस के आविष्कारों ने ,विज्ञान  के चमत्कारों ने दुनिया के प्रत्येक अवैज्ञानिक धर्म-मजहब की चूलें  हिलाकर रख दीं हैं। न केवल साइंस,टेक्नॉलॉजी  ने बल्कि मानवीय सभ्यता के प्रत्येक नए  वैज्ञानिक विचार ने  पुरातन धर्म-मजहब को अपनी सार्थकता और उपादेयता सिद्ध करने पर मजबूर कर दिया है। आज  दुनिया में जो भी धर्म- मजहब के कबाड़खाने  और बूचड़खाने दीख रहे  है वे वर्तमान दौर के  कुशासन और अव्यवस्थाओं  की  खुरचन मात्र है। धर्म-मजहब अब बाजार  का हिस्सा है। भारत में  तो  जन्म -मृत्यु ,शादी -व्याह ,तीज त्यौहार  , स्नान ,कुम्भ मेला और तमाम धर्म-मजहब के ज्ञातब्य  लौकिक व्यवहार अब मोक्ष या मुक्ति के साधन नहीं बल्कि  पूँजीवादी बाजारीकरण की शोषण-कारी अर्थव्यवस्था के अन्योन्याश्रित वित्त पोषक बन चुके हैं।

आम जनता की परेशानियों ,राष्ट्रों के अंदरूनी विग्रहों और आर्थिक-सामाजिक संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न  जनाक्रोश और जन क्रांति से निपटने के लिए  पूँजीवादी  व्यवस्थाओं को धर्म-मजहब की  हमेशा जरुरत है।  चूँकि धर्म-मजहब के धंधेबाजों को पूँजी की जरुरत है। इसलिए धर्म-मजहब और पूँजीबाद  में एकता है। इस   साम्प्रदायिकता और पूँजीवाद के  नापाक गठजोड़ की  बाजार की ताकतों और हथियार उत्पादकों को गरज है।  अपनी तिजारत के लिए धर्म-मजहब और पूँजीवादी दुनिया की ताकतें  बेरोजगार युवाओं के हाथों में बंदूकें थमा  देती हैं।  ये युवा समझते हैं कि  वे 'जेहाद' कर रहे  हैं । जबकि  जेहाद  एक पवित्र  कर्म है  और गुमराह युवा जेहाद के बहाने  अपने ही  निर्दोष  भाइयों को मार रहे हैं और खुद भी कुत्ते की मौत मर रहे हैं। अमेरिका और दुनिया के अन्य पूँजीवादी  मुल्कों के आर्थिक संकट को टालने में ये  जेहादी बहुत काम आ रहे  हैं। इधर भारत के क्रांतिकारी विचारक केवल 'संघ परिवार' की 'असहिष्णुता' को या भाजपा की धर्मनिरपेक्षता को रो रहे हैं !

 वास्तव में 'निरपेक्ष प्रगतिशीलता ' निरपेक्ष संकीर्णता , निरपेक्ष सहिष्णुता ,निरपेक्ष लोकशाही या निरपेक्ष   मानवीयता जैसा कहीं कुछ  भी सम्भव नहीं । बुद्ध के 'मझ्झम निकाय' की तरह सब ओर अति निम्नता और अति उच्चता का निषेध ही पसरा हुआ है। प्रत्येक विचार आवृत्ति का  'मध्यम स्वर' ही चिरजीवी सिद्धांत बन कर रह गया  है। लोकतान्त्रिक ,समाजवादी गणतांत्रिक भारत में यदि सफदर हाशमी,नरेंद्र दाभोलकर , गोविन्द पानसरे या कलीबुरगी के हत्यारों को लगता है  कि इन मुठ्ठी भर  पढ़े-लिखे विचारवान लोगों के कारण  ही इन  हत्यारों का 'रामराज्य' हाइजेक हो रहा था तो वे नितात्न्त जड़मति ही हैं।  उनके सांस्कृतिक ,सामाजिक और अन्य हितों को ये  डेड पसली के प्रगतिशील साहित्यकार ,लेखक  ,समाज  सुधारक  हानि पहुंचा रहे हैं,  तो  उन  अंधश्रद्धा वालों की  मानसिक संकीर्णता का  यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।'संघ ' प्रेरित दिग्भर्मित हिन्दू  उग्रपंथियों   और सनातन सभा के  हिंसक साधकों की अवैज्ञानिक सोच  का  यह जीवंत प्रमाण है।

इन कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादियों और खूँखार  आईएसआईएस  में क्या फर्क है ?  दो-चार  क्रांतिकारी  लेखकों  - विचारकों और दार्शनिकों की  जब  हिंसक हिंदुत्वादियों ने  निर्मम हत्या की ,तब शायद हत्यारों को भी इन महापुरषों की  वैचारिक ताकत का अता-पता  नहीं था। उन्हें शायद अब  एहसास होने लगा है  की मारे गए दो-चार  साहित्यकार -विचारक और लेखक  महज  हाड मांस के पुतले नहीं थे। वे इस भारत भूमि पर अपने आप में  क्रूसेडर थे। इस दौर में  हिन्दू-मुस्लिम आतंकियों के हाथों मारे गए शहीदों में  से  वेशक कोई भी अपने आप में मोहनदास -कर्मचन्द गांधी से कमतर नहीं  था।  हत्यारों ने भारत की अपरम्पराओं का ,मानवीय मूल्यों का , लोकतान्त्रिक उसूलों का   ,धर्मनिरपेक्ष  मान्यताओं का  और 'अपने' ही राष्ट्र की अस्मिता का गला  घोंटा है।  कुछ लोग इन साहित्यकारों -विचारकों की हत्या को संख्या बल में कम आंकते हैं ,लेकिन वे भूल जाते हैं कि  भगतसिंह ,आजाद ,अशफ़ाक़ुल्ला ,सफ़दर हाश्मी ,कालीबुरगी ,पानसरे ,दाभोलकर जैसे क्रान्तिकारी हजारों-लाखों में नहीं होते।

 एक दुसरे के मत-अभिमत का विरोध तो  दक्षिणपंथी -वामपंथी या हिन्दू-मुस्लिम  और  दुनियाभर के अन्य तमाम  कटटरपंथी आतंकवादी  भी  धड़ल्ले से करते रहते हैं। सब के अपने -अपने तर्क हैं। सबके अपने-अपने जस्टिफिकेशन भी हैं। लेकिन अतीत के अंधे- रक्तरंजित कबीलाई  घटिया उसूलों के लिए आज के युवा अपनी जवानी बर्बाद क्यों करें ?  जो लोग फिलीपींस से लेकर सीरिया तक और मालदीव से लेकर क्रोसोवो तक  किसी खास  दकियानूसी विचार और घटिया धर्म गुरु के बह्काबे में आकर अपने  ही  धर्म-मजहब के निर्दोष लोगों को  मरने-मारने पर तुले हैं, वे भूल जाते हैं कि  जिस साइंस  और टेक्नॉलॉजी ने उनकी धर्मान्धता के खिलाफ प्रचंड  प्रगतिशील चेतना विकसित की है ,जिस साइंस ने गोला  बारूद कम्प्यूटर बम  और बंदूकें पैदा कीं हैं ,जिस सांइस ने अंतरिक्ष में रॉकेट भेजे हैं और  चाँद - मंगल को छुआ है , जिस साइंस ने लेपटॉप ,मोबाइल फोन जैसे आधुनिक संचार साधनों के ढेर पैदा किये ,उसी अधर्मोच्छेद्क  साइंस के आधुनिक उपकरणों का  प्रयोग करने में इन मजहबी आतंकियों को रंचमात्र  शर्म नहीं आती।

 मानव इतिहास के हर दौर में शोषण की ताकतों के प्रति शोषित किन्तु जीवंत वीरों का  विद्रोही स्वभाव रहा है ।  हर  दौर के यथास्थितिवाद और पाखंडवाद का विनाशक  उस शैतान के साथ ही जन्मता और अपनी सार्थक भूमिका   करता है। आधुनिक प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता  सिर्फ बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी की बपौती  नहीं है। अतीत के हर दौर ने मानवता की रक्षा के लिए अनगिनत बलिदानी अवतार प्रदान किये हैं। जब मार्क्स एंगेल्स या लेनिन  नहीं थे तब भी दुनिया में उटोपिया के रूप में  साम्यवाद  विद्यमान था।  जब कृष्ण नहीं थे तब भी  'सांख्य-कर्म और ज्ञानयोग -विद्यमान था। जब पैगंबर नहीं थे तब भी  अरब कबीलों में बिरादराना भाईचारा  और एकेश्वर वादी चिंतन मौजूद था।  और वह वहशीपन भी आज मौजूद है जो पैग़म्बरे इस्लाम को पसंद नहीं था।  वह वहशीपन जो अब मुंबई ब्लास्ट के जिम्मेदार आतंकी  हाफिज सईद, दाऊद इब्राहीम और   ,अटकल -भटकल  को पसंद है। जो खूरेंजी आईएसआईएस ,बोको हरम ,हमास ,अल-कायदा, तालिवान जैसे तत्ववादी  आतंकियों  को पसंद है। जिस हिंसक विचार ने  इराक ,सीरिया ,लेबनान,सूडान लीबिया  फिलिस्तीन  अफगानिस्तान  , पाकिस्तान में रक्तपात मचा रखा है उसका इतिहास बहुत पुराना है।

 इसी तरह भारतीय परम्परा में भी आसुरी प्रवृत्ति  के लोगों ने ही न्याय  की रक्षा के लिए  ईश्वर अवतारवाद को जन्म दिया है। यदि भारत के अंधश्रद्धालु कटटरपंथी हिन्दुत्ववादियों ने  गांधी , सफदर हाशमी ,नरेंद्र दाभोलकर  ,गोविन्द पानसरे  और एमएम कलिबुर्गी  जैसे महान क्रान्तिदर्शीयों  की हत्या की है ,तो  साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखकों और साहित्यकरों ने महविष्णु बनकर दक्षिण पंथी असहिष्णु  हिंसक दैत्यों  को अभी चेतावनी ही दी है। देवासुर संग्राम तो अभी बाकी है।  हिन्दू ,मुस्लिम दोनों ओर  के आतंकियों के गुनाह और पाप बराबर है।  संख्या बल का  यहाँ कोई  औचित्य नहीं है। हजारों साल में  समूचा मध्य एशिया ,यूरोप ,अमेरिका  और अफ्रीका  भी एक अकेला   महात्मा गांधी पैदा  नहीं कर सका।  गांधी , सफ़दर  हाशमी , पानसरे  कालिबरगी किसी व्यक्ति के नाम नहीं बल्कि ये  साइंटिफिक  मानवीय विचारधारा के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। इन की बराबरी तो सन्सार के तमाम मजहबी अवतारी धर्मध्वज  मिलकर  भी नहीं कर सकते ! ये  तो मानवता के  पथप्रदर्शक थे  जिन्हे  तथाकथित  गुमराह हिंदूवादियों ने मार डाला !

अपने समकालीन  दौर में  विद्रूपण  के खिलाफ संघर्ष करते हुए -प्रोत्सर्ग करते जा रहे हैं ,तो वे उत्तरआधुनिक दौर के  वास्तविक हीरो हैं। दरसल ये  बलिदानी लोग  ही इतिहास बनाते हैं। ये प्रबुद्ध वैज्ञानिक दृष्टी के मानव ही उस महान परम्परा के 'अवतार' हैं, जो ज्ञात इतिहास में ही नहीं अपितु पौराणिक आख्यान और मिथकीय परम्परा में  सनातन से चलन में  है।  'जब-जब  होय धर्म की हानि ,बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ' की नौबत आने पर प्रत्येक दौर की तत्कालीन व्यवस्था को  नए 'अवतार' की ही नहीं बल्कि 'नए  प्रगतिशील विचार' की भी जरुरत  हुआ करती है।
                      वे लोग  जो पतनशील परम्पराओं के अन्धसमर्थक हैं  ,वे लोग जो  ढोंगी गुरुओं-पाखंडी बाबाओं के पिछलग्गू हैं ,वे लोग  जिन्हे  'दास्त्वोध' से बंधे होने की  बुरी आदत हैं , वे धर्मांध नर-नारी  जिन्हे मिथकीय  गटरगंगा में 'नारद के वाराह' की तरह सनातन डुबकी  लगाते रहने की बुरी लत  है,  वे लोग जिन्हें तर्क विज्ञान और यथार्थ इत्यादि शब्दों से ही एलर्जी  है। वे लोग जो  किसी पारलौकिक शक्ति  द्वारा 'उद्धार'  किये जाने  के  फलाकांकाक्षी हैं। ये सभी लोग एक मानसिक गुलामी के शिकार होकर आर्थिक सामाजिक पराधीनता की    दुर्वृत्ती  के कारण घोर  पराजय और दासता के लिए अभिसप्त हैं।
                                  जो  लोग  अतीत की  गुलामी के कारणों से अनभिज्ञ हैं ,जो लोग नहीं जानते कि  हरेक बाहरी आक्रमणकारी  कौम ने जब-जब भारत पर हमले किये तब-तब भारत की अहिंसा और असहिष्णुता ही इस भारतीय समाज के गले का फंडा  बनती  गई। यदि हिन्दू असहिष्णु होते ,युद्ध पिपासु होते तो 'सिख पंथ' का  शायद उदय ही न होता !  यदि भारत की हिन्दू,जैन ,बौद्ध और सनातन परम्परा में सहिष्णुता न होती  तो सिख गुरओं  को क्या गरज पडी थी कि  'हिदुंओं' की रक्षा के लिए'  केश , कड़ा, कंघा कृपाण, कच्छा  धारण करने और बर्बर आतताइयों से जूझते हुए अपनी सर्वश्रेष्ठ कुर्बानी देते ? अधिकांस धर्मनिपेक्ष और वामपंथी इतिहासकार अपनी अधकचरी समझ को वैज्ञानिक जामा  पहिनाने के फेर में सच से कोसों दूर  चले जाते हैं। जिन्हे भारत की  प्रत्येक पुरातन परम्परा ,इतिहास ,सभ्यता ,संस्कृति में केवल 'असत ' ही दिखाई देता है ,जिन्हे हरएक   पुरानी  चीजें  सिर्फ सामंती भग्नावेश ही नजर आते हैं,उनको अपने बुजुर्गों बूढ़े-माता-पिता से शायद ही कुछ लगाव या  उनके प्रति कृतग्यता भाव होगा ! सहिष्णुता के  विचार , उदात्त परम्परा  , साझा संस्कृति ,अनेकता मे एकता वाली शानदार सभ्यता की जो कठिन साधना भारतीय  हिन्दू समाज ने की है ,उसकी  शानदार थाती को सिर्फ साम्प्रदायिक कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादियों के हवाले नहीं किया जाना चाहिए । भारतीय सनातन  समाज ने अतीत में  अति  सहिष्णुता का ही खामियाजा भुगता है। इसी सनातन सहिष्णुता ने भारत को सदियों तक गुलाम बनाये रखा है। पुनः  इस सहिष्णुता  के खतरों की अनदेखी  कर  उसके  खतरनाक परिणाम भारत  की  शांतिप्रिय जनतांत्रिक जनता -जनार्दन को क्यों भोगना चाहिए ? अतीत का जो संघर्षपूर्ण इतिहास है उसमें देश के मजूरों -किसानों का बलिदान सर्वोपम रहा  है।  उनका भी इतिहास रचा जाना चाहिए। समृद्धशाली भारतीय परम्परा और मानवीय मूल्यों को -अतीत का कूड़ा  कहकर जो लोग उसे कूड़ेदान के हवाले करने पर आमादा हैं  , वे प्रगतिशील या वैज्ञानिकतावादी कैसे  हो सकते : श्रीराम तिवारी "-



 

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