बुंदेलखंडी कहावत है " पूरो गाँव बरत जात और बौरु बिछौना करत जात " अर्थात पूरे गाँव में आग लगी है लेकिन बौड़म स्त्री सोने की तैयारी कर रही है। जबसे श्री अशोक सिंघल का देहावसान हुआ है ,कमल दल में मंदिर राग फिर सुनाई देने लगा है। सारी दुनिया को खबर है कि कुख्यात आईएसआईएस ने सिमी ,दाऊद और पाकिस्तान की आईएस के मार्फ़त भारत के विभिन्न शहरों में दहशतगर्दी के मंसूबे बना रखे हैं। यह भी सूचना है कि उनके निशाने पर भारत के कुछ बड़बोले साम्प्रदायिक नेता भी हैं।
ऐंसे नाजुक और संवदेनशील दौर में श्री मोहनराव भागवत और उनके अनुचर 'राम लला ' मंदिर निर्माण की आक्रामक घोषणाएं फिर से करने लगे हैं। वेशक यदि आम सहमति से अयोध्या में राम मंदिर बनता है तो किसी को एतराज नहीं। किन्तु न्यायिक और संवैधानिक व्यवस्था से परे किसी भी समानांतर सत्ता केंद्र की कथनी और करनी तथा आतंकियों की फितरत में फर्क क्या रह जाएगा ? क्या यह संयोगमात्र है या 'संघ' की आत्मघाती रणनीति, कि जब -जब मोदी जी विकास और सुशासन के नारे को अमल में लाने के लिए कुछ आगे बढ़ते हैं तब-तब मोहन भागवत जी उनके मंसूबों पर पानी फेर देते हैं ? जब बिहार चुनाव चरम पर थे तब भी उन्होंने आरक्षण का मुद्दा उछलकर जीती हुयी बाजी हरवा दी। अब जबकि भारत राष्ट्र ही आतंकवादियों के निशाने पर है तब मोहन भागवत और उनके हमसोच लोगों द्वारा मंदिर मुद्दा उछाला जा रहा है।
अभी हाल ही में केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने संसद को सूचित किया है कि " ताजमहल में मंदिर होने के कोई प्रमाण नहीं हैं "! ये भी अच्छा ही हुआ कि ताजमहल को 'तेजोमहल' बताने वाले ही अब जब सरकार में हैं तो वे यह परम सत्य उद्घाटित कर रहे हैं कि उस तथाकथित प्यार के स्मारक - ताजमहल में मंदिर होने के कहीं कोई प्रमाण नहीं मिले '! अब कमल दल वाली सरकार के मंत्री जी का ही संसद में कथन है कि ताजमहल कभी मंदिर कभी नहीं था ! दरसल भारत के दक्षिणपंथी अन्धराष्ट्रवादियों ने शताब्दियों की गुलामी के प्रमाद - वश बहुत सारी उल-जलूल मान्यताएं पाल रखीं हैं। कुछ तो वसीयत में उन्हें अंग्रेज बहादुर ही जाते-जाते दे गए हैं । अंग्रेजों ने न केवल हिन्दुओं को बल्कि मुस्लिम -दलित -आर्य-द्रविड़ - सभी को बहुत सारा ग़लत-सलत इतिहास पढ़ाया है। और भारतीय आवाम का ढेरों बीमारियाँ ,झगड़े ,कलह और मर्ज बढ़ाकर ही वे यहाँ से वापिस गए हैं। बाबरी ढांचा बनाम राम लला मंदिर विवाद भी अंग्रेजों की ही देंन है।
यह तो गनीमत रही कि यूपीए-२ अर्थात कांग्रेस ने ही भृष्टाचार की हदें तोड़ दीं। और भारत की श्रम -सम्पदा को लूटने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियों को 'खुला खाता 'छोड़ दिया। इसी कारण देश की जनता ने विकास और सुशासन के नाम पर तथाकथित 'असहिष्णुतावादियों' को सत्ता सौंप दी। और उन्हें जबसे 'स्वतंत्र' सत्ता मिली है अर्थात विना वैशाखी का पूर्ण बहुमत मिला है वे तमाम फाइलों ,सबूतों ,दस्तावेजों को खंगाल रहे हैं। सरदार पटेल दवरा 'संघ' पर प्रतिबंध के दस्तावेज ,सुभाषचंद वोस से संबंधित दस्तावेज ,अमरीका ,रूस ,चीन के साथ द्विपक्षीय संधियों के दस्तावेज ,रामलला मंदिर के दस्तावेज ,ताजमहल, और अन्य सभी विवादास्पद मुद्दों के दस्तावेजों का 'संघ' के 'बौद्धिकों' द्वारा बार-बार गहन अध्धयन् किया जा चुका है । लेकिन उन्हें अभी तक कहीं भी वह सबूत नहीं मिले जिनकी बिना पर वे पूर्ववर्ती गैर भाजपा सरकारों को और देश के प्रगतिशील इतिहासकारों को -हिन्दू विरोधी बताया करते थे। मोदी सरकार के पास ऐंसे कोई भी वैज्ञानिक तथ्य मौजूद नहीं है जो संघ परिवार'की काल्पनिक अवधारणाओं को प्रमाणित कर सके !
वेशक सत्ता में आने के बाद उन्हें एक विचित्र 'सत्य' का साक्षात्कार अवश्य हुआ है। एकचालुकानुवर्तित्व का राग छोड़कर वे अब लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समानता की कसमें अवश्य खाने लगे हैं। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद सत्ता धारी नेतत्व [हिन्दुत्ववादी] में एक फर्क अवश्य आया है कि वे अब ताजमहल को तेजोमहल मानने से खुद ही इंकार कर रहे हैं। इसके विपरीत राजीव गांधी के नेतत्व में ततकालीन कांग्रेस सरकार [तथाकथित धर्मनिरपेक्ष] ने शाह्वानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं के सापेक्ष पुरुषों को तरजीह देकर कटटर साम्प्रदायिकता का सबूत पेश लिया। राजीव गांधी यदि मुसलमानों को नहीं ललचाते या बाबरी - मस्जिद में रखे राम लला ' के विग्रह को अगरबत्ती नहीं लगवाते तो आज मोदी जी सत्ता में ही नहीं होते। और 'मंदिर वालों ' को नरसिम्हाराव हरी झंडी नहीं दिखाते तो बाबरी ढांचा भी नहीं गिरता। कांग्रेस यदि हाजी मस्तान ,दाऊद और अबु सालेम जैसों को तभी नेस्तनाबूद कर देती तो मुंबई बम ब्लास्ट भी नहीं होता। मुजफ्फरनगर जैसे काण्ड नहीं होते। तब दक्षिणपंथियों के मन में दवी हुई तमाम गलत फहमियां भी परवान नहीं चढ़तीं ! तब आईएसआईएस को भारत पर निशाना साधने का बहाना नहीं मिलता ! श्रीराम तिवारी
ऐंसे नाजुक और संवदेनशील दौर में श्री मोहनराव भागवत और उनके अनुचर 'राम लला ' मंदिर निर्माण की आक्रामक घोषणाएं फिर से करने लगे हैं। वेशक यदि आम सहमति से अयोध्या में राम मंदिर बनता है तो किसी को एतराज नहीं। किन्तु न्यायिक और संवैधानिक व्यवस्था से परे किसी भी समानांतर सत्ता केंद्र की कथनी और करनी तथा आतंकियों की फितरत में फर्क क्या रह जाएगा ? क्या यह संयोगमात्र है या 'संघ' की आत्मघाती रणनीति, कि जब -जब मोदी जी विकास और सुशासन के नारे को अमल में लाने के लिए कुछ आगे बढ़ते हैं तब-तब मोहन भागवत जी उनके मंसूबों पर पानी फेर देते हैं ? जब बिहार चुनाव चरम पर थे तब भी उन्होंने आरक्षण का मुद्दा उछलकर जीती हुयी बाजी हरवा दी। अब जबकि भारत राष्ट्र ही आतंकवादियों के निशाने पर है तब मोहन भागवत और उनके हमसोच लोगों द्वारा मंदिर मुद्दा उछाला जा रहा है।
अभी हाल ही में केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने संसद को सूचित किया है कि " ताजमहल में मंदिर होने के कोई प्रमाण नहीं हैं "! ये भी अच्छा ही हुआ कि ताजमहल को 'तेजोमहल' बताने वाले ही अब जब सरकार में हैं तो वे यह परम सत्य उद्घाटित कर रहे हैं कि उस तथाकथित प्यार के स्मारक - ताजमहल में मंदिर होने के कहीं कोई प्रमाण नहीं मिले '! अब कमल दल वाली सरकार के मंत्री जी का ही संसद में कथन है कि ताजमहल कभी मंदिर कभी नहीं था ! दरसल भारत के दक्षिणपंथी अन्धराष्ट्रवादियों ने शताब्दियों की गुलामी के प्रमाद - वश बहुत सारी उल-जलूल मान्यताएं पाल रखीं हैं। कुछ तो वसीयत में उन्हें अंग्रेज बहादुर ही जाते-जाते दे गए हैं । अंग्रेजों ने न केवल हिन्दुओं को बल्कि मुस्लिम -दलित -आर्य-द्रविड़ - सभी को बहुत सारा ग़लत-सलत इतिहास पढ़ाया है। और भारतीय आवाम का ढेरों बीमारियाँ ,झगड़े ,कलह और मर्ज बढ़ाकर ही वे यहाँ से वापिस गए हैं। बाबरी ढांचा बनाम राम लला मंदिर विवाद भी अंग्रेजों की ही देंन है।
यह तो गनीमत रही कि यूपीए-२ अर्थात कांग्रेस ने ही भृष्टाचार की हदें तोड़ दीं। और भारत की श्रम -सम्पदा को लूटने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियों को 'खुला खाता 'छोड़ दिया। इसी कारण देश की जनता ने विकास और सुशासन के नाम पर तथाकथित 'असहिष्णुतावादियों' को सत्ता सौंप दी। और उन्हें जबसे 'स्वतंत्र' सत्ता मिली है अर्थात विना वैशाखी का पूर्ण बहुमत मिला है वे तमाम फाइलों ,सबूतों ,दस्तावेजों को खंगाल रहे हैं। सरदार पटेल दवरा 'संघ' पर प्रतिबंध के दस्तावेज ,सुभाषचंद वोस से संबंधित दस्तावेज ,अमरीका ,रूस ,चीन के साथ द्विपक्षीय संधियों के दस्तावेज ,रामलला मंदिर के दस्तावेज ,ताजमहल, और अन्य सभी विवादास्पद मुद्दों के दस्तावेजों का 'संघ' के 'बौद्धिकों' द्वारा बार-बार गहन अध्धयन् किया जा चुका है । लेकिन उन्हें अभी तक कहीं भी वह सबूत नहीं मिले जिनकी बिना पर वे पूर्ववर्ती गैर भाजपा सरकारों को और देश के प्रगतिशील इतिहासकारों को -हिन्दू विरोधी बताया करते थे। मोदी सरकार के पास ऐंसे कोई भी वैज्ञानिक तथ्य मौजूद नहीं है जो संघ परिवार'की काल्पनिक अवधारणाओं को प्रमाणित कर सके !
वेशक सत्ता में आने के बाद उन्हें एक विचित्र 'सत्य' का साक्षात्कार अवश्य हुआ है। एकचालुकानुवर्तित्व का राग छोड़कर वे अब लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समानता की कसमें अवश्य खाने लगे हैं। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद सत्ता धारी नेतत्व [हिन्दुत्ववादी] में एक फर्क अवश्य आया है कि वे अब ताजमहल को तेजोमहल मानने से खुद ही इंकार कर रहे हैं। इसके विपरीत राजीव गांधी के नेतत्व में ततकालीन कांग्रेस सरकार [तथाकथित धर्मनिरपेक्ष] ने शाह्वानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं के सापेक्ष पुरुषों को तरजीह देकर कटटर साम्प्रदायिकता का सबूत पेश लिया। राजीव गांधी यदि मुसलमानों को नहीं ललचाते या बाबरी - मस्जिद में रखे राम लला ' के विग्रह को अगरबत्ती नहीं लगवाते तो आज मोदी जी सत्ता में ही नहीं होते। और 'मंदिर वालों ' को नरसिम्हाराव हरी झंडी नहीं दिखाते तो बाबरी ढांचा भी नहीं गिरता। कांग्रेस यदि हाजी मस्तान ,दाऊद और अबु सालेम जैसों को तभी नेस्तनाबूद कर देती तो मुंबई बम ब्लास्ट भी नहीं होता। मुजफ्फरनगर जैसे काण्ड नहीं होते। तब दक्षिणपंथियों के मन में दवी हुई तमाम गलत फहमियां भी परवान नहीं चढ़तीं ! तब आईएसआईएस को भारत पर निशाना साधने का बहाना नहीं मिलता ! श्रीराम तिवारी
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