सोमवार, 7 दिसंबर 2015


  भारत में सांस्कृतिक बहुलतावाद के बहाने भाषाई ,साम्प्रदायिक ,क्षेत्रीय ,व्यक्तिपरक और जातीयतावादी नेताओं की अवसरवादी राजनीति ही यदि बिहार यूपी ,तमिलनाडु ,उड़ीसा और कश्मीर की तरह ही  परवान चढ़ती रहेगी ,तो क्षेत्रीय दलों की दादागिरी कभी खत्म नहीं होगी। इन क्षेत्रीय दलों को राष्ट्र निर्माण ,विकास या आतंकवाद की चुनौती से कोई लेना -देना नहीं है। चूँकि  चुनाव के अवसर पर ये क्षेत्रीय दल जाति और मजहब  के आधार पर टैक्टिकल  वोटिंग कराते हैं।ये क्षत्रीय दल वाले -सुश्री मेहबूबा- मुफ्ती ,ममता बेनर्जी, लालू, नवीन पटनायक  -मुलायम और बादल  छाप ओछी राजनीति पर उत्तर आते हैं। ये नेता स्वयंभू हीरो बनकर अपने राज्य की और प्रकारांतर से देश की आवाम को अंधी सुरंग में धकेल रहे हैं। ये नेता न तो मेहनतकश सर्वहारा के साथ  होते हैं और न ही भारत राष्ट्र की एकता-अखंडता से इनका कोई वास्ता है। इन क्षेत्रीय दलों के अनैतिक  अवसरवाद से भारत का विकाश अवरुद्ध है। वैश्विक आतंकवाद की चुनौती से निपटने के लिए इन छुद्र क्षेत्रीय  दलों  की कोई रणनीति नहीं होती। इन  क्षेत्रीय दलों  की गैर कांग्रेसवाद और गैर भाजपावाद की अवधारणा भी   घोर  पाखंडपूर्ण है।  बिना कांग्रेस या बिना भाजपा के सहयोग से  यदि ये क्षेत्रीय  दलों ने इत्तफाक से केंद्र की सत्ता में  कभी आ  भी  गए तो पांच साल स्थिर सरकार  दे पाने की कोई गारंटी नहीं  । बुद्धिजीवियों ,लेखकों और विचारकों को  चाहिए कि राष्ट्र के समक्ष मोजूद चुनौतियों के बरक्स सभी राजनैतिक  विचारधाराओं  का तार्किक आकलन करें। साहित्यकारों  ,विचारकों ,वैज्ञानिकों और कलाकारों ने  असहिष्णुता  के  सवाल पर देश की जनता को सचेत किया उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।  देश में बढ़ रही साम्प्रदायिकता , महँगाई ,भृष्टाचार , आतंकवाद के काले बादल उमड़-घुमड़  रहे हैं ,उसके  निदान के लिए  भी तो बुद्धिजीवियों -विचारकों की ओर  से   कोई ठोस आह्वान देश की जनता के समक्ष होना ही चाहिए !  विद्वानों द्वारा सिर्फ शाब्दिक विरोध की परम्परा का दौर अब नहीं रहा। अब तो करो या मरो तक बात आ पहुँची है। देश को  बतौलेबाज  -पूँजीवादी -   क्षेत्रीय और साम्प्रदयिक राजनीतिज्ञों या सरकार के  भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र के चारों स्तम्भ भी  क्रांतिकारी परिवर्तन की बात जोह रहे  हैं। श्रीराम तिवारी 

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