शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

जो लोग असहिष्णुता का एकपक्षीय आकलन करते हैं वे ढोंगी हैं।

  मानव अधिकार दिवस पर आयोजित एक  गरिमामय कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के  विद्वान चीफ जस्टिस श्री टी एस  ठाकुर साहब ने बहुत ही प्रासंगिक और जनहितकारी  बात कही है।उन्होंने फ़रमाया यदि "में कोई विशेष तरह का खाना पसंद करता हूँ। और आप मुझे खाने की अनुमति दें तो इससे मुझे ख़ुशी होगी । जो भी चीज मुझे ख़ुशी दे वह मेरे मानव अधिकार का हिस्सा है। लेकिन वह ख़ुशी दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर नहीं पाई जानी चाहिए। यह घृणा व  द्धेष या हिंसा फैलाने वाली भी नहीं होनी चाहिए। कोई भी चीज जो मुझे  ख़ुशी देती है यदि वह औरों को नुकसान दायक नहीं है तो उसे ही वास्तविक  मानव अधिकार माना जाना चाहिए !" परम आदरणीय मुख्य  न्यायधीश महोदय  ने यह भी कहा कि 'अमेरिकी संविधान में उल्लेखित खुश रहने के बराबरी के अधिकार सभी को हैं। और यही बीज प्रत्यय सभी मानव अधिकारों का मूल मन्त्र भी  है। मैं भी सदैव यही चाहता हूँ कि शिक्षा का अधिकार ,अवसर की समानता का अधिकार , धर्म-मजहब की आस्था का अधिकार और बिना किसी को नाराज किये स्वयं  खुश रहने का अधिकार  सभी को  समान रूप से  हो "

न्यायाधीश महोदय के ये वेश्कीमती उदगार मौजूदा दौर के 'असहिष्णुता बनाम सहिष्णुता'के विमर्श को सही  दिशा दे रहे हैं। यदि मुठ्ठी भर हिन्दुत्ववादी- मुहँफट लोग रत्ती भर असहिष्णुता उगलते  हैं तो उनके  खिलाफ  विचारक ,बुद्धिजीवी,लेखक और कलाकार अपने-अपने सम्मान पदक लौटाने लगते हैं। यह उनकी महानता है। किन्तु जब  यूपी वेस्ट , कश्मीर,केरल ,तेलांगना [उस्मानिया यूनिवर्सिटी] और देश भर में कुछ महा असहिष्णु और  'बीफ खाऊ ' लोग  किवंटलों  में असहिष्णुता उगलते हैं तो इन  डबल असहिष्णुता वादियों की हरकतों से मुँह  चुराना न्यायसंगत नहीं होगा। ये बीफखोर  इस अर्थ में डबल   असहिष्णु हैं कि एक तो जिन्हे  बीफ पसंद नहीं और गाय की हत्या  तो क्या जीवमात्र की हिंसा पसंद नहीं ,वे  उन्हें दिखाकर -चिढ़ाकर  खुले आम 'बीफ' खा रहे हैं। दूसरे जहाँ धारा १४४ लगी हो ,वहाँ जबरन जा -जाकर गौ माँस  पकाना  और  'न खाने वालों को चिढ़ाते हुए  'खाने का ढोंग करना 'महा असहिष्णुता 'है। इस के खिलाफ  कोई प्रगति शील  वामपंथी  पार्टी या समर्थक बोले या न बोले मैं  तो इस कृत्य की भर्तस्ना करूँगा। ठीक वैसे ही जैसे  कि तब की थी जब हिन्दुत्ववादियों ने  दाभोलकर,पानसरे,कालीबुरगी  और अख्लाख़ की हत्या  की थी। मुझे तो हिन्दुत्वादी और बीफवादी दोनों की असहिष्णुता पर एतराज है।  मेरा मानना है कि जो लोग असहिष्णुता का एकपक्षीय  आकलन करते हैं वे ढोंगी हैं।  बाजमर्तबा देखा गया है कि  हिन्दू कटटरपंथी दकियानूसी और अंधश्रद्धालु तो हैं किन्तु वे खूंखार  दरिंदों  -  आईएसआईएस ,मुजहदीन ,सिमी ,अलकायदा  और तालिवान से तो  बेहतर ही  हैं।

स्वनामधन्य हिन्दुवादी नेताओं से निवेदन है कि औरों की गलतियों का बखान करने के  बजाय  खुद अपनी  बेहतरीन  परम्पराओं का अनुशीलन करें। हिन्दू समाज की जातीयतावादि  छुआछूत की बीमारी से  लड़ें। हो सके  तो  दकियानूसी -अवैज्ञानिक -अवधारणाओं से मुक्ति के लिए प्रयास करें। वेशक  मुझे  हिन्दू शाश्त्रों और परम्पराओं का  बहुत कम ज्ञान है। किन्तु  फिर भी  में दावे से कह  सकता हूँ कि  एक नेकदिल हिन्दू कभी भी दूसरों का अहित नहीं सोच सकता। सात्विक  और  शीलवान  आस्तिक हिन्दुओं को  मालूम है  कि वे जन्मजात  सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष हैं। जिन्हे  इस सिद्धांत  पर विश्वास न हो उनके लिए महामति चाणक्य द्वारा रचित  "कौटल्य का अर्थशास्त्र 'का एक सूक्ति श्लोक  प्रस्तुत  है :-

दक्षता भद्रता दाढर्य क्षान्तिः क्लेशसहिष्णुता।

संतोष ;शीलमुत्साहो मण्डयत्य नुजीवनम ।।

अर्थ :- चतुराई ,सभ्यता ,दृढ़ता ,क्षमाशीलता ,सहिष्णुता ,संतोष ,शील ,और उत्साह ,बेहतर लोगों के सद्गुण हैं।  ऐंसे लोग  ही समाज को दीर्घायु बनाते हैं।

इस्लाम ,ईसाइयत और अन्य मजहबों में भी अनमोल मोती बिखरे पड़े होंगे। किन्तु मुझे उनका ज्ञान नहीं। लेकिन  इतना जरूर कह  सकता हूँ कि भारत में इन दिनों जिस एक शब्द-सहिष्णुता  पर इतना कोहराम मचा  हुआ है ,उस शब्द का विशद विवेचन केवल हिन्दू-जैन-बौद्ध  धर्म ग्रंथो में  ही बहुलता से पाया गया है। इसके  अलावा  अमेरिकी- फ्रांसीसी क्रांति और ब्रिटिश संविधान  के नीति -निर्देशक सिद्धांतों में  भी इसका उल्लेख है। किन्तु इसके  अलावा शायद ही  दुनिया के किसी अन्य धर्म-मजहब में इस  'सहिष्णुता' का कहीं कोई उल्लेख हो। मेरा  दावा  है कि  भारतीय  दर्शन  -विचार और सांस्कृतिक परम्परा में  सहिष्णुता का जितना महत्व  हैं उतना  दुनिया के  किसी अन्य  धर्म -मजहब  में मौजूद  नहीं है। यदि मैं गलत हूँ  तो सप्रमाण  उपलब्धता  का स्वागत है । न  केवल उसका खुलासा किया जाए बल्कि ये भी स्पष्ट किया जाये कि  जेहादियों और दहशतगर्दों  के प्रेरणा स्त्रोत वाले हिंसक और अमानवीय सिद्धांत किसने ईजाद किये ?  यदि उनके धर्म -मजहब में मानवीय अहिंसक मूल्य थे तो  दहसतगर्दी के लिए 'जेहादी' उन्माद कहाँ से आता है ? हो सकता है कि  मेरे इस आकलन से कुछ  तथाकथित कटटरपंथी हिन्दुओं  का सीना ५६ इंच का होने लग जाए ,किन्तु उन्हें भी नहीं भूलना चाहिए कि उनकीकिन हरकतों से यह सात्विक  सहिष्णुता हिन्दुओं की  कायरता में क्यों तब्दील हो  गयी ? क्यों भारतीय उप महाद्वीप को  जाहिल विदेशी 'असहिष्णुत्त्वादियों' ने सदियों तक गुलाम बनाये रखा ?
                       
आजादी के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने  ब्रिटिश कानून ,भारतीय मूल्यों के साथ -साथ  फ्रांसीसी क्रांति के तीन सिद्धांत -स्वतंत्रता ,समानता और  बंधुता को आत्मार्पित किया। क्या गुनाह किया ? दुनिया के किस इस्लामिक देश का सम्विधान इतना सहिष्णु है ? भारत का पवित्र संविधान और भारतीय अहिंसावादी परम्परा  जब  इन बीफ खाऊ  मजहबी लोगों को ही रास नहीं आ  रहे हैं तो आईएसआईएस को क्या खाक पसंद आएंगे ?  हिंदुत्व की कतारों में तो भारत के चीफ जस्टिस ,भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल और खुद महामहिम राष्ट्रपति भी मानव अधिकार एवं  सहिष्णुता की रक्षा  के लिए कृतसंकल्पित हैं. भारत के साहित्यकार,लेखक बुद्धिजीवी और विचारक सभी अल्पसंख्यकों के हितरक्षक और कटटरपंथी हिन्दुत्ववादियों की  कोरी बकवास  के खिलाफ हैं।  किन्तु जब  कुछ अल्पसंख्यक वर्ग के लोग देश के सम्विधान और भारतीय परम्परा का उपहास करेंगे तो उन्हें  इस इम्मुनिटी का हक  नहीं रह जाता।

भारत में चुनाव की विसंगतियों को यदि नजर अंदाज कर दें तो बाकी सब जगह लोकतंत्र है। यहाँ खाने-पीने  , पहिनने -ओढ़ने और रहन-सहन की पूरी आजादी है। जो  लोग सदियों से माँस -मटन  और 'बीफ' भी खाते  आ  रहे हैं ,वे अब भी खा रहे हैं। कोई किसी को नहीं रोकता। किन्तु इस लोकतंत्र में लोगों को यह भी अधिकार है कि वे  दूसरों की भावनाओं  का तिरस्कार न करे। कोई  व्यक्ति  यदि मांसाहारी है और किसी जानवर को मारकर खाता है तो किसी को क्या आपत्ति ? लेकिन यदि समुदाय विशेष के कुछ लोग संगठित  होकर बीच चौराहे पर  या  किसी विश्वविद्यालय के प्रांगण  में  'बीफ' पार्टी मनाएं , खाएं-पियें कम और दिखाएँ ज्यादा ,तो इस तरह की चिढ़ाने वाली हरकत से न केवल शाकाहारियों का अपमान है ,बल्कि गाय जैसे निरीह दुधारू पशु को मारकर उसका मांस खाने वालों द्वारा,घोर  असहिष्णुता का नग्न  प्रदर्शन भी माना  जायेगा । कभी कश्मीर ,कभी केरल, कभी तेलांगना की उस्मानिया यूनिवर्सिटी में 'बीफ 'पार्टी आयोजन  किये जाने से भारत में साम्प्रदायिक सौहाद्र को बिगाड़ा जा रहा है। इससे  तो तथाकथित हिन्दुत्ववादियों को सत्ता में स्थाई रूप से बने रहने की प्रवल  संभावनाएं बढ़ती जा रहीं  हैं। भारत के अल्पसंख्यकों की परेशानी बढ़ाने में  पाकिस्तान  के आतंकियों  का  विशेष योगदान  तो है ही किन्तु  उन्हें अराजकता  की ओर धकेलने में  बीफ खाऊओं  का हाथ है।  इस स्थति के लिए  सिर्फ ये 'बीफ' पार्टी करने वाले  ही नहीं बल्कि  अल्पस्नख्यकों से टैक्टिकल वोटिंग  कराने वाले नेताओं का भी  योगदान है।  भारतीय परम्परा  में निषेधात्मक क्रियाओं का  सार्वजानिक प्रदर्शन करने वाले अतिवादी लोग भी  जिम्मेदार हैं।

 कौन हैं वे  लोग जो अपने अमानवीय  भक्षण के अधिकार को लेकर  चौराहे पर  'बीफ' चबा  रहे हैं,इस लायक कदापि नहीं हैं कि  मानव कहलाये जा सकें। ओरों को चिढाते हुए बीफ खाने के निहतार्थ बहुत खतरनाक हो सकते हैं। यह डबल असहिष्णुता है। अव्वल तो निरीह दुधारू जानवर को मारना और दुसरे शाकाहारियों को चिढ़ाते हुए  -धारा १४४ निषेधाज्ञा का उलंघन करते हुए यूनिवेसिटी के टीचिंग डिपोटमेंट में बीफ खाकर अपनी जाहिल हरकत पर इतराना ,ये मानवीय  सद्गुण नहीं हैं। फ्रांसीसी क्रांति के मूल्य स्वतंत्रता,समानता और बंधुता भी इसमें  नदारद हैं। इस हरकत का एक ही जबाब है ! राजकीय दंड विधान। आपातकाल ! !

  पाषाणयुग में इंसान और पशु में कोई खास फर्क न था। चूँकि कुदरत ने थलचर-नभचर और जलचर से ज्यादा  'सृजनशील ,विचारशील' केवल इंसान को ही बनाया। अतः अपने अतिरिक्त गुणों की कीमत पर इंसान ने धरती समुद्र और आसमान पर भी अपनी सृजनशीलता और मानवीयता के झंडे गाड़े। इतना ही नहीं यह  मनुष्य जब  पशुओं से बहुत आगे  निकल गया ,तो उसने  अपना खान-पान भी पशुओं से  पृथक बेहतर शकाहारी और शुद्ध  मानवीय बना लिया। लेकिन भौगोलिक कारणों से सभ्यताओं का यह मानवीय विकास सब देशों और सब समाजों में समान रूप से नहीं हो सका।  मानवीय सभ्यताओं के चरम विकास के  आधुनिक वैज्ञानिक दौर में भी कुछ कबीलों  में  पुरुषसत्तात्मक मनोवृत्ति मौजूद है। इन समुदायों को तमाम भौतिक समृद्धि  सहज ही प्राप्त है किन्तु  फिर भी उनमे  स्त्रियों  को भोग्य और पशुओं  को  भोज्य समझा जाता है। वे  अभी तक उत्कृष्ट मानवीय करुणा , जीव दया,अहिंसा और परकल्याण की भावनाओं से समृद्ध  नहीं हो सके। वे अभी तक पशुओं  को मारकर खाने की पाषाणयुगीन सभ्यता से भी  अलग नहीं हो सके।  श्रीराम तिवारी 

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