कतिपय कारणों से वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद की अकल्पनीय भयावहता और भारत के 'संघ परिवार' की छुद्रतम अर्ध साम्प्रदायिक बनाम तथाकथित देशभक्ति पूर्ण एवं सर्वधर्म समभाव की संशयात्मक स्थिति के कारण मैं दोनों को एक ही खांचे में फिट करने का दुस्साहस नहीं कर सकता। आर्थिक घोटालों को लेकर जब कांग्रेस कठघरे में खड़ी हो और उसके शीर्ष नेतत्व पर जाँच की आँच आ रही हो तब वामपंथ का स्टेण्ड महज सत्ता विरोधी होना अखरता है। मैं नहीं जानता कि इस तरह के आचरण से किसे लाभ होगा ? एनडीए याने मोदी सरकार ने यदि सोनिया जी और राहुल को जेल भेजने की तैयारी की है तो यह भाजपा की हाराकिरी होगी।
इन हालात में देश की जनवादी वामपंथी कतारों की भूमिका और बढ़ जाती है । बजाय साम्प्रदायिकता बनाम असहिष्णुता के आभाषी व्यामोह में डूबे रहने के उन्हें उन्हें यह याद करना चाहिए कि वर्तमान नव्यउदारवादी आर्थिक नीतियों के बिनाशकारी परिणामों के लिए खुद कांग्रेस भी जिम्मेदार है। जब कांग्रेस के रथ का पहिया अतीत के राजनैतिक कीचड़ में धस चुका हो , तब इस विकट स्थिति में संगठित जन आंदोलन को वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रस्तुत होना चाहिए ! वामपंथ और भारत के संगठित सर्वहारा वर्ग की तमाम संघर्षपूर्ण प्राथमिकताएँ पुनः परिभाषित की जानी चाहिए !
जन आंदोलन को अपना ध्यान वेरोजगारी,महँगाई ,भृष्टाचार के अलावा राष्ट्र की एकता पर भी केंद्रित करना चाहिए। आतंकवाद,अलगाववाद और क्षेत्रीयतावाद के खिलाफ मैदानी जन -आंदोलन खड़ा किया जाना जरुरी है। तमाम बदनामियों और खामियों के वावजूद 'संघ परिवार' की लोकप्रियता सिर्फ एक मुद्दे पर परवान चढ़ रही है , कि वे भले ही पूँजीवाद के भड़ैत हों ,किन्तु वे ऐंसा सा कोई काम नहीं करेंगे जिससे कि भारत को सीरिया या ईराक बनना पड़े। वेशक आरएसएस की तुलना आईएसआईएस ,कश्मीरी आतंकी और सिमी जैसे देश द्रोही संगठनों से करना याने अपनी आत्मा को ही मारने जैसा है। वेशक संघ ने अतीत में बहुत सारी गलतियाँ की हैं। वेशक उनका हिन्दुत्ववादी प्रचार अभियान झूँठ का पुलिंदा है। संघ के शिल्पकार गुरु गोलवलकर तथा अन्य संघ -बौद्धिकों ने देश के मेहनतकशों को धर्म-मजहब और जाती में बांटा है। किन्तु 'संघ' ने दुनिया के किसी भी देश में जेहादी ,क्रूसेडर या आत्मघाती दस्ते तो कभी नहीं भेजे। संघ परिवार और इस्लामिक आतंकियों में बहुत फर्क है। यह वास्तविकता है। भारत के जनवादी -वामपंथी समूहों को निर्भय होकर यह कटु सत्य स्वीकारना चाहिए। वामपंथ को सार्बभौम आतंकवाद जहाँ हो उसके खिलाफ शंखनाद छेड़ना चाहिए। तब हिन्दुत्ववादी वेरोजगार युवा 'संघ परिवार' को धता बताकर वामपंथ के साथ जुड़ेंगे। उसके जायज संघर्षों में अवश्य साथ देंगे।आज जो 'हर-हर मोदी ,घर-घर मोदी ' का घोष किये जा रहे हैं ,वे कल अपने आप धर्मनिरपेक्षता का स्तुति गान भी करने लगेंगे।
प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों ने सहिष्णुता बनाम धर्मान्धता बनाम साम्प्रदायिकता का अब तक जो स्टेण्ड लिया है ,उसमें मेरी ही आंशिक असहमति का स्वर मात्र नहीं है। बल्कि हजारों-लाखों संघशील और जुझारू जन नायकों की भी असहमति मौजूद है। जन संघर्ष के भटकाव ,सांगठनिक बिखराव व पूँजीवादी -सम्प्रदायिक गठजोड़ के वर्ग चरित्र पर अन्य अनगिनत वामपंथ समर्थक विचारकों -बुद्धिजीवियों का वैचारिक पार्थक्य भी मौजूद है। लेकिन वह अभिव्यक्त नहीं हो पाता है क्योंकि 'जनवादी केन्द्रीयता बनाम केंद्रीय जनवाद' के 'शुद्ध' लोकतान्त्रिक सेटअप में ढेरों खामियाँ मौजूद हैं। हालाँकि असहमत व्यक्तियों या समूहों की समग्र वैचारिक सोच भारत की वामपंथी राजनीति से किंचित भी जुदा नहीं है। द्वन्दात्मक भौतिकवाद ,वैज्ञानिक समाजवाद, मार्क्सवाद -लेनिनवाद , और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर कहीं किसी को कोई शक नहीं। किन्तु यह परम सत्य है कि बिना हिन्दुओं को साधे भारत में सर्वहारा की या किसी और तरह की तानाशाही के कोई शुभ चिन्ह मौजूद नहीं हैं। वामपंथ से बहुसंख्य हिन्दू समाज की बढ़ती हुयी दूरियाँ हिन्दुत्ववादी सोच की राजनीति को कुछ काल तक ही पाल-पोष सकतीं हैं। किन्तु जब -जब इस धरती पर नंगा भूँखा इंसान रहेगा ,तो होने वाले मानवीय कोलाहल और आने वाले तूफ़ान को कोई नहीं रोक सकता। तब शायद किसी जन-क्रांति का आगाज हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
''नया पथ '-भीष्म साहनी जन्मशताब्दी विशेषांक- के पृष्ठ -२७ पर नामवरसिंह ने लिखा है : -
''भीष्म साहनी की दॄष्टि धर्म के उस रूप पर केंद्रित थी जो 'रूमानी' है। उन्होंने संस्थागत -व्यवसायिक धर्म की तो उन्होंने कड़ी आलोचना की है ,,,,, भीष्म साहनी की धर्म -चर्चा पढ़ते हुए सहसा महाभारत के भीष्म आँखों में बिजली की तरह कौंध जाते हैं। भीष्म शर शैया पर लेटे हैं ,,,,युधिष्ठर पितामह के सामने अपनी जिज्ञासा रखते हैं ,,,,,भीष्म धैर्य के साथ उनका समाधान करते हैं ,,,,इसी क्रम में महाभारत के अनुशासन पर्व - अंतर्गत भीष्म के मुख से यह अदभुत श्लोक निकलता है ,,,,'एक एव चरेद् धर्म ;न धर्मध्वजिको भवेत् /धर्म वाणिज्यका हे ते ये धर्ममुपभुञ्जते '// अर्थात मनुष्य को चाहिए कि वह अकेला ही धर्म का आचरण करे। धर्म का दिखावा करने वाला धर्मध्वजी न बने। जो मनुष्य धर्म को जीविका का साधन मानते हैं ,उसके नामपर अपनी जीविका चलाते हैं ,वे धर्म के व्यवसायी हैं। "
महाभारत की इस परम्परा से गोस्वामी तुलसीदास भी सहमत हैं। रामचरितमानस में ही उन्होंने
"धर्मध्वजी 'लोगों को फटकारते हुए कहा है :-''धींग धर्मध्वज धंधक धोरी " अर्थात धर्म को सार्वजानिक रूप में व्यवसाय या राजनीति में घुसेड़ना एक किस्म का ढोँग है !
"आज देश में धर्मध्वजी लोग जिस तरह आतंक पैदा कर रहे हैं उनका मुकाबला सच्चे धर्म के ऐंसे ही हथियार से किया जा सकता है। --ठूंठ धर्मनिपेक्षता तो अब बेअसर हो रही है। भीष्म साहनी का 'निजी धर्म 'भी वही है जिसे महाभारत के भीष्म पितामह ने ' एक एव चरेद् धर्म :'में 'एक ' के द्वारा परिभाषित किया है। लेकिन उसका अर्थ निपट व्यक्तिवाद नहीं है "
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय वामपंथ ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए अब तक जो भी स्टेण्ड लिया है उसमें धर्म नदारद है। केवल साम्प्रदायिकता को कोसते रहने से देश के तमाम संसदीय क्षेत्रों में वामपंथी ताकतों ने अपना परम्परागत असर तक खो दिया है। प्रगतिशील लेखकों-विचारकों ने भी पार्टी लाइन के आधार पर हिन्दुत्व के और इस्लाम के कटटरपंथ को एक नजर से देखा है। बल्कि देश के अहिसक हिन्दुओं को आईएस से ज्यादा खूँखार बताकर उन्होंने अनजाने ही भारत के अधिसंख्य हिन्दू समाज को अपना वर्ग शत्रु बना लिया है । वामपंथ की इस एकपक्षीय ठूंठ 'धर्मनिरपेक्षता' [बकौल नामवरसिंह ] से सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यक -मुस्लिम ,ईसाई भी उससे दूर होते चले गए। उधर वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद ने हिन्दू समाज को जरूरत से ज्यादा उद्देलित किया और इधर वामपंथ और और कांग्रेस से निराश मुसलमान ममता,मुलायम ,नवीन और नितीश के साथ हो लिए। अधिसंख्य हिन्दू स्वभावतः 'संघ परिवार' और भाजपा से जुड़ते चले गए ,इससे किसी तरह की सर्वहारा क्रांति के निशान अब दूर -दूर नजर नहीं आ रहे हैं ,उलटे देशी-विदेशी कॉरपोरेट पूँजी का नंगा नाच अवश्य देखा जा सकता है।
श्रीराम तिवारी
इन हालात में देश की जनवादी वामपंथी कतारों की भूमिका और बढ़ जाती है । बजाय साम्प्रदायिकता बनाम असहिष्णुता के आभाषी व्यामोह में डूबे रहने के उन्हें उन्हें यह याद करना चाहिए कि वर्तमान नव्यउदारवादी आर्थिक नीतियों के बिनाशकारी परिणामों के लिए खुद कांग्रेस भी जिम्मेदार है। जब कांग्रेस के रथ का पहिया अतीत के राजनैतिक कीचड़ में धस चुका हो , तब इस विकट स्थिति में संगठित जन आंदोलन को वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रस्तुत होना चाहिए ! वामपंथ और भारत के संगठित सर्वहारा वर्ग की तमाम संघर्षपूर्ण प्राथमिकताएँ पुनः परिभाषित की जानी चाहिए !
जन आंदोलन को अपना ध्यान वेरोजगारी,महँगाई ,भृष्टाचार के अलावा राष्ट्र की एकता पर भी केंद्रित करना चाहिए। आतंकवाद,अलगाववाद और क्षेत्रीयतावाद के खिलाफ मैदानी जन -आंदोलन खड़ा किया जाना जरुरी है। तमाम बदनामियों और खामियों के वावजूद 'संघ परिवार' की लोकप्रियता सिर्फ एक मुद्दे पर परवान चढ़ रही है , कि वे भले ही पूँजीवाद के भड़ैत हों ,किन्तु वे ऐंसा सा कोई काम नहीं करेंगे जिससे कि भारत को सीरिया या ईराक बनना पड़े। वेशक आरएसएस की तुलना आईएसआईएस ,कश्मीरी आतंकी और सिमी जैसे देश द्रोही संगठनों से करना याने अपनी आत्मा को ही मारने जैसा है। वेशक संघ ने अतीत में बहुत सारी गलतियाँ की हैं। वेशक उनका हिन्दुत्ववादी प्रचार अभियान झूँठ का पुलिंदा है। संघ के शिल्पकार गुरु गोलवलकर तथा अन्य संघ -बौद्धिकों ने देश के मेहनतकशों को धर्म-मजहब और जाती में बांटा है। किन्तु 'संघ' ने दुनिया के किसी भी देश में जेहादी ,क्रूसेडर या आत्मघाती दस्ते तो कभी नहीं भेजे। संघ परिवार और इस्लामिक आतंकियों में बहुत फर्क है। यह वास्तविकता है। भारत के जनवादी -वामपंथी समूहों को निर्भय होकर यह कटु सत्य स्वीकारना चाहिए। वामपंथ को सार्बभौम आतंकवाद जहाँ हो उसके खिलाफ शंखनाद छेड़ना चाहिए। तब हिन्दुत्ववादी वेरोजगार युवा 'संघ परिवार' को धता बताकर वामपंथ के साथ जुड़ेंगे। उसके जायज संघर्षों में अवश्य साथ देंगे।आज जो 'हर-हर मोदी ,घर-घर मोदी ' का घोष किये जा रहे हैं ,वे कल अपने आप धर्मनिरपेक्षता का स्तुति गान भी करने लगेंगे।
प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों ने सहिष्णुता बनाम धर्मान्धता बनाम साम्प्रदायिकता का अब तक जो स्टेण्ड लिया है ,उसमें मेरी ही आंशिक असहमति का स्वर मात्र नहीं है। बल्कि हजारों-लाखों संघशील और जुझारू जन नायकों की भी असहमति मौजूद है। जन संघर्ष के भटकाव ,सांगठनिक बिखराव व पूँजीवादी -सम्प्रदायिक गठजोड़ के वर्ग चरित्र पर अन्य अनगिनत वामपंथ समर्थक विचारकों -बुद्धिजीवियों का वैचारिक पार्थक्य भी मौजूद है। लेकिन वह अभिव्यक्त नहीं हो पाता है क्योंकि 'जनवादी केन्द्रीयता बनाम केंद्रीय जनवाद' के 'शुद्ध' लोकतान्त्रिक सेटअप में ढेरों खामियाँ मौजूद हैं। हालाँकि असहमत व्यक्तियों या समूहों की समग्र वैचारिक सोच भारत की वामपंथी राजनीति से किंचित भी जुदा नहीं है। द्वन्दात्मक भौतिकवाद ,वैज्ञानिक समाजवाद, मार्क्सवाद -लेनिनवाद , और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर कहीं किसी को कोई शक नहीं। किन्तु यह परम सत्य है कि बिना हिन्दुओं को साधे भारत में सर्वहारा की या किसी और तरह की तानाशाही के कोई शुभ चिन्ह मौजूद नहीं हैं। वामपंथ से बहुसंख्य हिन्दू समाज की बढ़ती हुयी दूरियाँ हिन्दुत्ववादी सोच की राजनीति को कुछ काल तक ही पाल-पोष सकतीं हैं। किन्तु जब -जब इस धरती पर नंगा भूँखा इंसान रहेगा ,तो होने वाले मानवीय कोलाहल और आने वाले तूफ़ान को कोई नहीं रोक सकता। तब शायद किसी जन-क्रांति का आगाज हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
''नया पथ '-भीष्म साहनी जन्मशताब्दी विशेषांक- के पृष्ठ -२७ पर नामवरसिंह ने लिखा है : -
''भीष्म साहनी की दॄष्टि धर्म के उस रूप पर केंद्रित थी जो 'रूमानी' है। उन्होंने संस्थागत -व्यवसायिक धर्म की तो उन्होंने कड़ी आलोचना की है ,,,,, भीष्म साहनी की धर्म -चर्चा पढ़ते हुए सहसा महाभारत के भीष्म आँखों में बिजली की तरह कौंध जाते हैं। भीष्म शर शैया पर लेटे हैं ,,,,युधिष्ठर पितामह के सामने अपनी जिज्ञासा रखते हैं ,,,,,भीष्म धैर्य के साथ उनका समाधान करते हैं ,,,,इसी क्रम में महाभारत के अनुशासन पर्व - अंतर्गत भीष्म के मुख से यह अदभुत श्लोक निकलता है ,,,,'एक एव चरेद् धर्म ;न धर्मध्वजिको भवेत् /धर्म वाणिज्यका हे ते ये धर्ममुपभुञ्जते '// अर्थात मनुष्य को चाहिए कि वह अकेला ही धर्म का आचरण करे। धर्म का दिखावा करने वाला धर्मध्वजी न बने। जो मनुष्य धर्म को जीविका का साधन मानते हैं ,उसके नामपर अपनी जीविका चलाते हैं ,वे धर्म के व्यवसायी हैं। "
महाभारत की इस परम्परा से गोस्वामी तुलसीदास भी सहमत हैं। रामचरितमानस में ही उन्होंने
"धर्मध्वजी 'लोगों को फटकारते हुए कहा है :-''धींग धर्मध्वज धंधक धोरी " अर्थात धर्म को सार्वजानिक रूप में व्यवसाय या राजनीति में घुसेड़ना एक किस्म का ढोँग है !
"आज देश में धर्मध्वजी लोग जिस तरह आतंक पैदा कर रहे हैं उनका मुकाबला सच्चे धर्म के ऐंसे ही हथियार से किया जा सकता है। --ठूंठ धर्मनिपेक्षता तो अब बेअसर हो रही है। भीष्म साहनी का 'निजी धर्म 'भी वही है जिसे महाभारत के भीष्म पितामह ने ' एक एव चरेद् धर्म :'में 'एक ' के द्वारा परिभाषित किया है। लेकिन उसका अर्थ निपट व्यक्तिवाद नहीं है "
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय वामपंथ ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए अब तक जो भी स्टेण्ड लिया है उसमें धर्म नदारद है। केवल साम्प्रदायिकता को कोसते रहने से देश के तमाम संसदीय क्षेत्रों में वामपंथी ताकतों ने अपना परम्परागत असर तक खो दिया है। प्रगतिशील लेखकों-विचारकों ने भी पार्टी लाइन के आधार पर हिन्दुत्व के और इस्लाम के कटटरपंथ को एक नजर से देखा है। बल्कि देश के अहिसक हिन्दुओं को आईएस से ज्यादा खूँखार बताकर उन्होंने अनजाने ही भारत के अधिसंख्य हिन्दू समाज को अपना वर्ग शत्रु बना लिया है । वामपंथ की इस एकपक्षीय ठूंठ 'धर्मनिरपेक्षता' [बकौल नामवरसिंह ] से सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यक -मुस्लिम ,ईसाई भी उससे दूर होते चले गए। उधर वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद ने हिन्दू समाज को जरूरत से ज्यादा उद्देलित किया और इधर वामपंथ और और कांग्रेस से निराश मुसलमान ममता,मुलायम ,नवीन और नितीश के साथ हो लिए। अधिसंख्य हिन्दू स्वभावतः 'संघ परिवार' और भाजपा से जुड़ते चले गए ,इससे किसी तरह की सर्वहारा क्रांति के निशान अब दूर -दूर नजर नहीं आ रहे हैं ,उलटे देशी-विदेशी कॉरपोरेट पूँजी का नंगा नाच अवश्य देखा जा सकता है।
श्रीराम तिवारी
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