शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

'दुनिया के मेहनतकशों एक हो ! भारत -पाकिस्तान के मेहनतकशों एक हो !

 भले ही पश्चिम जर्मनी और पूर्वी जर्मनी जैसा एकीकरण सम्भव न हो , किन्तु भारत-पाकिस्तान और बांग्ला देश एक क्षेत्रीय  'परिसंघ' तो कायम कर ही सकते हैं। जब यूरोप  के अधिकांस देशों ने अपनी  परम्परागत मुद्रा  का और सीमाओं का व्यामोह छोड़ दिया तो भारत ,पाकिस्तान, बांग्लादेश  और दक्षेश के अन्य पूर्व गुलाम राष्ट्रों की ऐंसी कोई मजबूरी नहीं की वे भी  अपनी एक 'कॉमन मुद्रा 'स्थापित न कर सकें। वे  सीमाओं पर दुर्गम कांटे बिछाने के बजाय आपस में सुगम पारगमन के लिए कोई प्रगतिशील एकदम न उठा सकें ! अतीत में लोहिया जैसे चिंतकों ने भी भारत -पाकिस्तान परिसंघ का सिद्धांत पेश किया था। 'संघ परिवार' का 'अखंड  भारत'वाला   सिद्धांत  भी उतना प्रतिगामी नहीं है जितना कि  उसके आलोचकों ने प्रचारित कर रखा है। और  कम्युनिस्ट तो वैसे भी अन्तर्राष्टीयतावादी होते ही  हैं इसलिए भारत-पाकिस्तान  और बांगला देश की 'एकजुटता' पर उन्हें भी कोई एतराज नहीं। भारत में राजनैतिक धरातल पर शायद यही एक ऐसी आम राय है या उटोपिया नुमा विचार है  जिस पर धुर दक्षिणपंथ से लेकर धुर वामपंथ  तक ,समाजवादी और अन्य दलों  की राय भी  मिलती जुलती है। लेकिन यह फिर भी यह  इकतरफा प्यार जैसा है। क्योंकि पाकिस्तान ,बांगला देश की जनता क्या चाहती है  ? यह सब उस पर निर्भर करता है। अभी तो पाकिस्तान ,नेपाल ,बांग्ला देश और श्रीलंका में भारत विरोधी रुझान चल रहा है। शायद यही वजह है कि भारत के प्रधान मंत्री नरेद्र मोदी  ने  देश को विश्वास में लिए बिना , संसद को विश्वास में लिए बिना ,और राष्ट्रपति को भी कुछ भी  बताये बिना  २५ दिसंबर-२०१५ को  पाकिस्तान की औचक और  सौजन्य यात्रा की है।

 "भारतीय उपमहाद्वीप में राष्ट्र निर्माण अभी अधूरा है" ! यह विचार चूँकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है , महज इसलिए कोई प्रगतिशील -वामपंथी इसका समर्थन न करे या इंड्रोस्मेन्ट नहीं  करे ,क्या यह जायज है ?   यह सच है कि भाजपा और मोदी सरकार के क्रिया कलाप पूरी तरह लोकतान्त्रिक और  सर्वसम्मत नहीं हैं।  किन्तु जब हम नक्सलवादियों ,अलगाववादियों और मजहबी जेहादियों को भी मुख्य धारा में लाने और सुधरने की गुंजाइश रहा करती है ,तो नरेंद्र मोदी और 'संघ' के सुधराकांक्षी लोगों को  भी पर्याप्त  अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?  वेशक  मोदी जी ने ,भाजपा ने और समस्त संघ  परिवार ने  पाकिस्तान को हमेशा पाप का घड़ा  ही निरूपित किया है।  बांग्ला देश को शरणार्थी समस्या के लिए खलनायक माना जाता रहा  है। किन्तु मोदी जी ने खुद ही बांग्लादेश का सीमा विवाद कुछ हद तक हल किया है। अभी संघ  और मोदी सरकार  नेपाल द्वारा  'हिन्दुत्ववाद' छोड़ने और  'वामपंथ' की राह पकड़ने लेने से  खपा हैं। नेपाल  को परेशान  भी किया जा रहा  है।  किन्तु  आशा  है कि वे जल्दी ही उसका भी समाधान ढूंढ लेंगे। याने भारत के हिंदूवादी नेता कम्युनिस्ट नेपाल से भी दोस्ती अवश्य कर लेंगे। क्यों नहीं जब मोदी जी चीन ,रूस ,विएतनाम से प्यार की पेंगें बढ़ा रहे हैं तो नेपाल और फिर पाकिस्तान तो अपने निकटतम पड़ोसी ही ठहरे !

 लेकिन  इस दोगलेपन कि शिकायत  तो  किसी को भी हो सकती यही कि केंद्र में जब यूपीए की सरकार थी और भाजपा  विपक्ष में थी. तब  पाकिस्तानी रेंजर्स अथवा आतंकियों के हमलों के बरक्स  भाजपा  वाले कहते थे  कि   हमें सत्ता दो हमपाकिस्तान को ठीक कर देंगे !  हम अमेरिका की तरह पाकिस्तान की सीमा में घुसकर उधर  के  आतंकी केम्प नष्ट कर देंगे। मोदी जी ने और संघमित्रों ने  चुनावों के मौकों पर ही नहीं बल्कि कई बार डॉ मनमोहनसिंह को बुजदिल और कायर भी कहा है। याद कीजिये  उस क्षण को जब  अमेरिका के ड्रोन हमले में पाकिस्तानी फौज की नाक के नीचे रावलपिंडी में ओसामा लादेन मार दिया गया । तब भारत के परम  स्वयंभू राष्ट्रवादियों के तेवर क्या थे ? अभी २५ दिसंबर को जब मोदी जी काबुल से लाहोर पहुंचे तो मोदी जी के प्रस्थान उपरान्त काबुल में आतंकी हमला हो गया । और जब मोदी जी लाहोर से दिल्ली पहुंचे तो  हाफिज सईद  ने मोदी के लिए क्या-क्या दुर्बचन अंहिं कहे  ? \

इसके तुरंत बाद ही नागपुर में ,यूपी में, बंगाल में  आधा दर्जन  आतंकी  पकडे गए। ये सभी  पाकिस्तानी और   कश्मीरी हैं। ये सभी  आईएस आईएस में शामिल होने वाले आतंकी पकडे गए। हैं   मोदी जी अब  बराक ओबामा कयं  नहीं हुए ? पाकिस्तान के इतने सारे गुनाह माफ़ करते हुए  भी  मोदी जी जब लाहोर जा सकते हैं तो अपने पूर्व वर्ती प्रधान मंत्रियों को चिढ़ाने का क्या तातपर्य था ? तमाम आतंकी  हमलों के वावजूद भी यदि  मोदी जी    ने शरीफ  के बहाने पाकिस्तान से दोस्ती निभाने की सोची है तो भी देश के प्रगतिशील वामपंथी उनके साथ हैं। किन्तु यह केवल  क्रिकेट कूटनीति या व्यापार कूटनीति नहीं  हो ,बल्कि दोनों ओर  इंसानियत का पैगाम भी पहुँचना  चाहिए ! वेशक  यह अमन और 'सहिष्णुता' का  सिद्धांत  मोदी जी  या 'संघ परिवार' का नहीं है ,बल्कि यह सिद्धांत तो दुनिया के   सर्वहारा वर्ग का  'अन्तर्राष्टीयतावाद'  का सिद्धांत है। शोषण -उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ - "दुनिया के गरीबो एक हो " ! यह नारा नरेंद्र मोदी का नहीं है, यह तो मार्क्स-लेनिन का है। अब यदि कोई वामपंथी धर्मनिपेक्ष वुद्धिजीवी या कम्युनिस्ट कहता है कि देश में 'असहिष्णुता 'है ,तो मोदी के मतवाले कैसे कहते हैं कि  तुम देशभक्त नहीं हो ? किसी को खाने -पीने पर मार देते हैं या कहते हैं कि पाकिस्तान चले जाओ ! अब मोदी जी लाहोर हो आये ,फिर 'आना -जाना चलता रहेगा ' क्या मोदी जी  को बीफ खाने की सजा  दी  गयी है ? क्या पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जहर उगलना छोड़ दिया।  क्या मुंबई नर संहार के दोषी  -  हाफिज  सईद ,दाऊद  इब्राहीम पकड़कर जेल में डाले गए ?  या  मोदी जी सिर्फ सैर सपाटे  के लिए पाकिस्तान गए ? खैर वे जिस किसी भी वजह से गये हों  ,भारत के मजदूर -किसान और सर्वहारा को इससे कोई परहेज नहीं। क्योंकि उसकी सोच है 'दुनिया के मेहनतकशों एक हो ! भारत -पाकिस्तान के मेहनतकशों एक हो !

  जब -जब तीसरी दुनिया  के देशों में अंतर्राष्टीय या  द्विपक्षीय संबंधों पर कूटनीतिक चर्चा होगी,तब-तब नासिर,  नेहरू  ,टीटो, और सुकर्णो शिद्द्त से याद किये जाएंगे। साथ ही इनके उत्तराधिकारी और  गुटनिरपेक्षता के पोषक  इंदिरागांधी ,फीदेल कास्त्रो , अनवर सादात  , भंडारनायके ,नेल्सन मंडेला ,सद्दाम हुसेन और यासिर अराफ़ात भी हमेशा याद किये जायेंगे। वेशक ये नेता तत्कालीन शीत युद्ध की छाया में ही परवान चढ़े होंगे,किन्तु इन नेताओं की राष्ट्रवादी सोच का आधार बहुत कुछ 'अन्तराष्टीयतावाद' व  उपनिवेशवाद से सम्पूर्ण मुक्ति के विचार से प्रेरित थी।यह जग जाहिर है  कि'राष्ट्रवाद' को पूँजीवादी बुर्जुवा वर्ग ने और अंतरराष्ट्रीयतावाद को विश्व 'सर्वहारा क्रांतियों ने पुष्पित -पल्ल्वित किया  है।

 वेशक  मृतप्राय गुट निरपेक्ष आंदोलन के संस्थापन और उसकी  असफलता में संस्थापक  नेताओं की उटोपियाई सोच और वैयक्तिक वैश्विक  नेतत्व छवि निर्माण की उत्कंठा भी  महत्वपूर्ण कारक थी। और पूँजीवादी  मीडिया  ने ,बुर्जुवा वर्ग ने  व्यक्ति निष्ठ राष्ट्रों के कर्णधारों के  'अधिनायकवादी'  चरित्र ने   नव स्वाधीन राष्ट्रों की राज्य संचालन  व्यवस्थाओं  को असफल कर दिया ।इसी असफलता का ठीकरा उन नेताओं के सर फोड़कर  अमरीकन साम्राज्य्वाद  ने सोवियत क्रांति पर  भी हल्ला बोल दिया था।  विश्व सर्वहारा वर्ग ने न केवल  पूँजीवादी साम्राज्यवाद से बल्कि  खुद अपनी ही सर्वहारा क्रांतियों  के पहरेदारों से  भी  धोखा ही खाया है। अमेरिकी खेमे के नाटो देश और  राष्ट्र जापान,दक्षिण कोरिया की तरह परवान चढ़ते गए। जबकि सोवियत खेमे के राष्टों को या तो पूर्वी जर्मनी -पोलेंड की तरह पूँजीवाद  की ओर  मुड़ना पड़ा या फिर मध्यपूर्व के देशों की तरह आतंकी गृहयुद्ध में उलझने के लिए अभिशप्त होना पड़ा। या फिर भारत-पाकिस्तान की तरह अमन और विकास के लिए ,रोजी -रोटो  की जुगाड़ के लिए जूझना पड़ा।

तीसरी दुनिया के   देश-इजिप्ट ,ईराक ,सीरियान ,अफगानिस्तान  ,भारत  पाकिस्तान जैसे खंडित राष्ट्र  अभी तक 'शांति' की तलाश में  ही भटक रहे हैं।  नासेर का इजिप्ट,नेहरू - इंदिरा का भारत , भुट्टो का पाकिस्तान और  नेल्सन  मंडेला का दक्षिण अफ़्रीका तो फिर भी जिन्दा हैं , किन्तु मार्शल टीटो का  युगोस्लाविया तो यथार्थ में होते हुए भी नक्से से नदारद है।  सवाल उठता है कि  जब ये नेता इतने  प्रतिभा सम्पन्न ,गुणी  व मिलनसार थे तो वे अपने-अपने राष्ट्रों को यूरोप ,अमेरिका , रूस  जापान, फ़्रांस ,ब्रिटेन और जर्मनी जैसा ताकतवर  क्यों नहीं बना पाये ? उन जैसा विकसित न सही किन्तु चीन,कोरिया  ,हांगकांग ,वियतनाम ,सिंगापुर ,थाईलैंड ,ताइवान या ईरान -मलेशिया जैसा  ही बना लेते।

 ऐंसा प्रतीत होता है कि इतिहास स्वयं को दुहरा रहा है. भारत ,पाकिस्तान ,अफगानिस्तान के  वर्तमान प्रधान मंत्री भी नेहरू नासिर ,टीटो सुकर्णो की वैश्विक उड़ानों के  ही तलबगार हैं। भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी तो  धुंधली  हो चुकी इंदिरा नेहरू युगीन विदेश नीति को ही पुनः माँज कर चमका रहे हैं। दरसल भारत और  पाकिस्तान को  ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी वक्त से पहले ही मिल  गयी थी। यदि आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड, दक्षिण  अफ्रीका  ,सिंगापुर  की तरह  कुछ रुककर ,कुछ मैचोर्ड करने उपरान्त इण्डिया  अर्थात 'अखंड भारत' को आजादी मिली होती तो शायद भारत,पाकिस्तान,बांग्लादेश  नहीं बनते। शायद विभाजन  भी नहीं होता और तब शायद  इतना पिछड़ापन ,इतनी दरिंदगी इतनी जहालत और बद्हवाशी  भी  इस भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं होती। चूँकि द्वतीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और मित्र राष्ट्र जीतने के उपरान्त भी एकंगल हो चुके थे ,वे  दुनिया भर  के तमाम उपनिवेश पर शासन करने लायक ही नहीं बचे थे और भारत में स्वाधीनता संग्राम के लिए जरा ज्यादा ही उन्माद बढ़  चूका था इसलिए अंग्रेजों ने लुटे-पिटे भारत को  लस्त -पस्त  हालत में विभाजन की आग में झोंककर अपनी जान छुड़ाई। कांग्रेस ,मुस्लिम लीग और जातिवादी ,क्षेत्रीयतावाद नेताओं ने जो  कुछ भी अच्छा -बुरा किया धरा उसी का परिणाम  आज की पीढ़ी के  सामने है।

इस बदसूरत हालात को ठीक करने  के लिए इस दौर में  व्यक्तिवादी प्रसिद्धि की  राजनीति का नया दौर पुनः चालू है। भारत -पाकिस्तान ,बांग्ला देश में भृष्टाचार ,आतंक ,हिंसा का बोलवाला है। खाने-पीने  की वस्तुओं -दालों की  भरपूर पैदावार के वावजूद मेंहगाई  चरम पर है।  भारत में बिजली बिल की बढ़ती दरों पर ,रेल किराए में संसद से बाहर  ही मनमानी बढ़ोत्तरी पर ,पूर्ववत सरकारी भृष्टाचार को संरक्षण देने के सवाल  पर,किसानों की बदहाली के प्रश्न पर  , ठेका   मजदूरों के शोषण पर ,  आम जनता को   शिक्षा,स्वास्थ्य और शुद्ध पेयजल से महरूम रखने पर , पूर्ववर्ती और वर्तमान शासक अभी तक  कोई ठोस  रीति-नीति ही ठीक से पेश नहीं कर पाये हैं। केवल व्यक्तिगत हीरोगिरी  के निमित्त  दुनिया  भर  की यात्राएं की जा रहीं हैं। सुशासन -विकास और अमन के नारे लगाए जा रहे हैं। मीडिया पर लोग मुँह  बाए हुए आपस में कुकरहाव किये जा रहे हैं।

स्मार्ट सिटी ,बुलेट ट्रेन ,मेट्रो सर्विस ,माल्स,वाई-फाई ,डिजिटलाइजेशन ,कम्प्यूटरजेशन, और निजी पूँजी के मार्ग में आ रही श्रम  संबंधी अड़चनों को खत्म कर,केवल  पूँजीपतियों के  निमित्त सर्वत्र लाल कालीन विछाये  जा रहे हैं। चंद सरमायेदारों के हितों के लिए देश के करोड़ों युवाओं की जिंदगी दाँव  पर लगाईं जा रही है।

 सातवें  वेतन आयोग  की रिपोर्ट का इतना हो  हल्ला किया गया मानों पूरी आबादी  की लाटरी खुल गयी हो।   वेतन आयोग ने महज १३% वेतन बढ़ाने की जो सिफारिस  की है. उससे  देश के महज 1. ५ % लोगों को ही लाभ  होगा।  देश के ३० % अशिक्षित वेरोजगार ग्रामीण खेतिहर मजदूरों के लिए ,५ करोड़ शिक्षित शहरी युवाओं के लिए और २०% निजी क्षेत्र में अपनी जवानी झोंक रहे  आधुनिक सुशिक्षित युवाओं के भविष्य के लिए सरकार  की क्या नीति है ? युवाओं के  रोजगार और महिलाओं के विकास के लिए  कार्यक्रम क्या  हैं?

 सिर्फ कुछ नए-नए कुर्ते ,नयी-नयी पोशाकें , कुछ मन की बातें ,कुछ स्मार्ट शहर ,कुछ स्मार्ट सिटी ,कुछ मेट्रो  , कुछ बुलेट ट्रेन ,कुछ झाड़ू पकड़ फोटो ,कुछ गंगा आरती ,कुछ काबुल का कलेबा ,कुछ लाहौर  का लंच , कुछ विकास के नारे , कुछ आत्ममुग्धकारी  मुस्कान और कुछ चुनावी  जुमले  -बड़े अच्छे लग सकते हैं। किन्तु कोई भी  जिन्दा  कौम  इन सब चीजों को पाने के लिए  पांच साल  से ज्यादा इन्तजार नहीं कर सकती।

                                                                               श्रीराम तिवारी
 

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