गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

दुनिया के सभी धर्म -मजहब और आध्यात्मिक दर्शन पूँजीवाद के चाकर हो चुके हैं !

 दुनिया में  जितने भी  धर्म-मजहब एवं पंथ  विद्यमान हैं ,और मानव सभ्यता के जितने भी भाववादी दर्शन - विचार एवं  पूजा पद्धतियाँ विद्यमान हैं, सभी में मानवीय मूल्यों की वेशकीमती  ढेरों स्थापनाएँ मौजूद  है।सभी धर्म -मजहबों में  इंसानियत के अनगिनत मोती बिखरे पड़े हैं। सभी धर्म-मजहब के संस्थापकों में उदात्त चरित्र  -धर्मयोद्धाओं  ने हर युग  में विश्व -कल्याण  के लिए महान  त्याग और बलिदान किये  है। फिर वे पूरी तरह से  ख़ारिज नहीं  किये जा सकते ! प्रथम दृष्टया कोई भी धर्म-दर्शन  पंथ जब तक व्यक्तिगत रूप से आचरित है और विशुद्ध  मानवतावादी है तब तक वह पूरा का पूरा त्याज्य  नहीं हो सकता।

 कोई  घोर  नास्तिक  या तर्कवादी अथवा  पदार्थवादी  भी इससे सहमत  नहीं हो सकता कि  'मंदिर-मस्जिद  तो सिर्फ बैर ही कराते हैं और उन्मत्त मधुशालायें  तो मानों मानवता की  निर्झरणी ही हैं '। गो कि  हरिवंशराय बच्चन जी का रूपक भले ही सार्थक हो किन्तु  युक्तियुक्त तार्किक सिद्धांत अकदपि नहीं। इससे भी कदापि सहमत नहीं हुआ जा सकता कि  'जब तक मंदिर -मस्जिद आबाद रहेंगे ,तब तक धरती पर केवल शैतान ही आबाद रहेंगे ! और इससे भी किंचित सहमत होना सम्भव नहीं कि 'धर्म-मजहब केवल पाखंड और अफीम है '!

वेशक  धर्म- मजहब का बेजा दुरूपयोग हुआ है और  इस दौर में तो कुछ ज्यादा ही हो रहा है। किन्तु जब यह आश्थावाद सापेक्ष रूप से किसी एक स्टेज पर भटकाव की दशा को प्राप्त हो सकता है ,तो तर्कवाद,पदार्थवाद और वैज्ञानिकता के बिलकुल भी नहीं भटकने की गारंटी कौन देगा ? अनीश्वरवादी -भौतिकवादी दर्शन भी तो समय - समय पर यथार्थ के धरातल पर दुरूस्तीकरण का मुँहताज  हुआ करता है। वास्तव में विज्ञान के आविष्कारों ने धरती और ब्रम्हाण्ड के स्थूल को समझने में जो चमत्कार  प्रस्तुत किया है ,वह दुनिया के सभी   धर्म -मजहब और आध्यात्मिक  दर्शन  पर  भारी पड़ने लगा है। वास्तव में  आध्यात्मिक  तत्व -चिंतन ने तो  मनुष्य के अंतस को समझने का और  मानवीय जीवन को आनंदमय  बनाने का काम किया है। लेकिन  इस उत्तर आधुनिक और भूमंडलीकरण के दौर में संसार के धर्म-मजहब साइंस का  दुरूपयोग कर पूंजीवाद के चाकर हो चुके हैं

वेशक मार्क्सवादी सिद्धांत यद्द्पि पूर्णतः वैज्ञानिक ,वैश्विक और मानवतावादी है.अंततः वह पूर्णरूपेण मान्य   भी होना ही चाहिये।किन्तु भारत के वैदिक सिद्धांतों  के संदर्भ में अथवा दुनिया के अन्य प्राचीन धर्म -दर्शनों के संदर्भ में मार्क्सवाद से  संगति बिठाने  का  ऐतिहासिक कार्यभार अभी भी बाकी है। वास्तव में दोनों ही छोर पर पर्याप्त  सुधार की बहुत  गुंजाइस है। अन्य धर्म-मजहब और भाववादी दर्शनों के बारे में तो मैं दावा नहीं करूंगा , किन्तु भारतीय  वेदान्त ,और षड्दर्शन  के सापेक्ष मार्क्सवाद की 'धर्म मजहब एक अफीम है ' वाली स्थापना से कोई बैर नहीं है। चूँकि संसार के इस सबसे  प्राचीन वैदिक दर्शन के सूत्रकारों -मन्त्र दृष्टाओं  ने अपनी स्मृति व  सर्जनात्मक मेधा शक्ति से  मानव सभ्यता की  प्रारम्भिक कई सहस्त्राब्दियों तक केवल आदिम -प्राकृतिक   साम्यवादी निष्कलंक साम गान ही किया है। उन्होंने  वेद प्रणीत  सूत्रों -संहिताओं में  इहलौकिक -भौतिकवादी, जड़वादी - अनीश्वरवादी  मन्त्रों की  भरपूर रचना की है। इसमें  तो धर्म या मजहब की अफीम  रंचमात्र नहीं है। उसमें  साम्प्रदायिकता भी नहीं रत्ती भर नहीं  है। यह  तो इस  धरती पर मेधावी मानवों द्वारा मानव सभ्यता की  उषा काल  का निष्कलंक  उदयगान कहा जाना चाहिए।

भारतीय  वैज्ञानिक अध्यात्म  चिंतन में पौराणिक  कर्मकांड  और मिथ का निवेश भले ही 'अबूझ' और अकारथ हो। किन्तु उसका मूलस्वरूप और चिंतन  विशुद्ध भौतिकवादी,वैज्ञानिक तथा शुद्ध  प्रकृतिवादी ही है। यह प्राच्य  दर्शन और आध्यात्मिक साहित्य  प्रकृति  के प्रति मानवीय कृतज्ञता व्यक्त करने के विचार से उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवाद  और  वैज्ञानिक  भौतिकवाद से इसका कोई विरोध नहीं है। दरसल  धर्मांध समूहों स्वार्थी गुरूघंटालों  मठाधीशों  ,अंध -धार्मिक संस्थानों और निहित स्वार्थी राजनैतिक संगठनो ने  प्राचीन भारतीय दर्शन की दुर्गति की है। प्राच्य साहित्य का सत्यानाश किया है। इस  मानवतावादी ,जन-कल्याणकारी और विश्व कल्याणकारी प्राच्य भारतीय दर्शन और अध्यात्म को पथभृष्ट करने,उसको अमानवीय बनाने  में विदेशी हमलावरों की खासी भूमिका रही है।

हजारों सालों की गुलामी ने प्राचीन भारतीय ब्रह्म  विद्या और अध्यात्म दर्शन को हर किस्म के नव वैज्ञानिक अनुसन्धान और वैज्ञानिक भौतिकवादी मूल सिद्धांतों से पदच्युत किया है । वीसवीं सदी  से लेकर अब तक के कूपमंडूक  स्वयंभू प्रगतिशील  विचारकों और अध्यात्म ज्ञान से वंचित अंग्रेजीदां इतिहासकारों ने मूर्खतापूर्ण व्याख्याएँ ही प्रस्तुत कीं  हैं। उन्होंने पाश्चात्य रिलीजन्स-मजहब की तरह हिन्दू धर्म अर्थात भारतीय वैदिक दर्शन को भी  मार्क्सवाद के सामने प्रतिदव्न्दी बनाकर खड़ा कर दिया । इस  हिमालयी भूल के लिए ,प्रगतिशील लेखक ,विचारक ,चिंतक और वामपंथी कतारों का पूर्वाग्रह तो  जिम्मेदार हैं ही ,किन्तु जिन्हे भारतीय वांग्मय और दर्शन  के अलावा मार्क्सवाद  का ककहरा भी  नहीं मालूम, वे हिंदुत्व  की राजनीति के ठेकेदार भी इस अधः  पतन और पराभव के लिए बराबर के साझीदार हैं। गुलामी की कड़वाहट से ग्रस्त ये प्राच्य विद्या विशारद  वेद प्रणीत सिद्धांत अर्थात वैज्ञानिक  हिन्दू धर्म को ,लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति में घुसेड़कर यूरोपियन - अरेबियन   सभ्यताओं की नकारात्मक नकल किये जा  रहे हैं।

 इसी तरह कुछ  मार्क्सवादी चिंतक  भी किसी तत्ववेत्ता  आध्यात्मिक दार्शनिक की तरह  धर्म-मजहब के अखाड़े में मल्ल युद्ध  पर उतारू हो जाते हैं।  वे गाहे -बगाहे भारतीय षड दर्शन ,अध्यात्म को  कर्मकांड के साथ   नथ्थी कर लिया करते हैं।  वे भाववादी दर्शन की बारह  पसेरी धान गड्मड् करते रहते हैं।  कभी -कभी  तो बड़े  -बड़े दिग्गज  कामरेड भी अपनी हास्यापद  अज्ञानता को वैज्ञानिक -तार्किक विद्वत्ता  ही समझ बैठते हैं। वे मार्क्स -लेनिन की उन शिक्षाओं को भूल जाते यहीं  कि "हमें अपनी भूलों से निरतंर सीखते हुए आगे बढ़ना है ' और यह भी कि '' व्यवस्था की खामियों और उनकी वजहों का स्यापा ही नहीं पढ़ते रहना  है ।'' इस संदर्भ में  मार्क्स  और भारतीय अध्यात्म दर्शन  की साम्यता दृष्टव्य है ;-

"न बुध्दिभेदम जनयेदज्ञानाम कर्मसङ्गिनाम् ,जोषयेतसर्वकर्माणि विद्वान्युक्तसमाचरन् "[गीता]

 भारत में जो लोग साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के विरुद्ध  यदा -कदा अपनी भड़ास निकल लिया करते हैं, , धर्म-मजहब या मानवीय मूल्यों पर हल्ला  बोलकर अपनी उथली प्रगतिशीलता झाड़ते रहते हैं , जिन बौद्धिक  पाहुनों के हाथों से आतंक और धर्मान्धता के साँप  तो मरते नहीं ,लेकिन लठ्ठ लेकर धर्म-मजहब पर  जरूर टूट्ते रहते हैं।उनसे अनुरोध है कि वे अपनी वैज्ञानिक भौतिकवादी सोच को तनिक  भारत की प्राच्य सोच के अनुरूप ढाल लें। जिसे मार्क्स ने भी माना है। इस संदर्भ में 'आदिशंकराचार्य बनाम मंडन मिश्र का सम्वाद ' सबसे जीवंत प्रमाण  है ।  हम चाहे जिस किसी भी धर्म - मजहब पर टीका-टिप्पणी करते रहें  लेकिन  यदि उसके मूल ग्रन्थ और  सिद्धांतो सूत्रों  का सांगोपांग अध्यन  नहीं किया तो हम आलोचना के हकदार कैसे हो सकते हैं ? वेशक हम  कबीर ही बन जाए। किन्तु जहाँ तक  इस तरह के किसी अर्ध  अशिक्षित व्यक्ति द्वारा  किसी भी धर्म-मजहब  और खास तौर  से  वैदिक सिद्धांतों की मार्क्सवादी  आलोचना के  प्रश्न का सवाल  है तो इसके लिएउसे सबसे पहले संस्कृत भाषा -व्याकरण व  खास तौर से वैदिक संस्कृत का समुचित अभ्यास बहुत जरुरी है। यदि  किसी  ने  वेद , उपनिषद ,आरण्यक , संहिताएं और पुराण इत्यादि का अध्यन  नहीं किया तो  वह भारतीय प्राच्य विद्या विशारद नहीं हो सकता। जो लोग भारतीय धर्म-दर्शन को भी 'अफीम' समझते हैं ,वे  कम से कम भगवद गीता और पाणिनि की अष्टाध्याई का संगोपनाग अध्यन अवश्य करें। तभी मार्क्सवाद के नजरिये से प्राच्य दर्शन को समझा जा सकता है। 

  पुरातन भारतीय वांग्मय पढ़ने के दो फायदे हैं। एक तो वर्तमान में जो बाबावाद ,सम्प्रदायवाद और पाखंड उन्माद चल रहां  है वह खुद खत्म हो जाएगा । दुसरे प्रगतिशील वामपंथी चिंतन को जन-जन तक पहुँचाने में आसानी होगी। अध्येता को यह जानकर अचरज होगा कि हिन्दू अर्थात वैदिक दर्शन और  सभ्यता के इतिहास का हर दौर चीख-चीख कर कह रहा है ''जीवमात्र का कल्याण हो ! 'सर्वे भवन्तु सुखिनः'  इस धरती से बुराइयों का अंत हो ! इंसानियत  का बोलवाला हो ! शैतान  का नाश  हो ! अमन  -चैन और खुशहाली का विस्तार हो !''

लेकिन  इसके विपरीत इस धरती पर कुछ ऐंसे भी धर्म - मजहब  है जो केवल  मानवता  का और इस धरती  का नाश करना ही अपना उत्सर्ग समझ बैठे हैं। ऐंसे ही  धर्म-मजहब के भरोसे  सदियाँ बीत गयीं हैं , किन्तु हिंसा और शोषण का सिस्टम अन्वरत जारी  है। इनके सापेक्ष जब वैदिक दर्शन आधरित हिन्दू धर्म की तुलना की जाती है तो श्रोता-पाठक यह खोजकर चकित रह जाता है कि  किसी भी हिन्दू या आर्य ने अमेरिका,रोम ,फ़्रांस,ईरान,अरब या जर्मनी पर हमला नहीं किया।  प्रारम्भ में  धर्मसंस्थापन या मजहब  की स्थापना करते हुए  जिस आसुरी अर्थात शैतानी ताकत को परास्त करने का सपना देखा गया  , वह सपना अभी भी अधूरा है। अमानवीयता,शोषण ,अन्याय और शैतान की  खुरापात आज भी न केवल सही सलामत है ,बल्कि उत्पीड़न -दमन के  काल सर्प रुपी  अनगिनत जहरीले फन एक साथ अभी भी  जहर उगल रहे हैं। शैतान  का या शोषण  की ताकतों का  अभी तक बाल  भी बांका नहीं हुआ है। धर्म-मजहब  की वामियों से निकले  नए-नए आतंकी  सपोले केवल  इंसानियत को  ही डस रहे  है !

प्रत्येक  सभ्य  समाज और मूल्यों  की  समुन्नत  सांस्कृतिक दुनिया  के लोगों द्वारा सभी धर्म-मजहब के लोगों को बहुत आदर सम्मान भी मिलता रहा  है।  धर्म -मजहब जब तक वैयक्तिक रहा ,जब तक उसे राज्याश्रय या राजनीति से दूर रखा गया  तब तक उसे समाज के हर हिस्से में वैश्विक मान्यता और  समादर प्राप्त  होता रहा। किन्तु  धर्म-मजहब को जब किसी खास कौम के लिए ,किसी खास कबीले के लिए,किसी खास साम्राज्य के लिए इस्तेमाल किया गया ,तब वह धर्म-मजहब ही समाज और इंसानियत के लिए एक नशा एक  अफीम  बन गया।  हिंसक  राजनीति का औजार बनाया गया । जब उसे  युद्ध या व्यापार का हिस्सा बनाया गया ,जब धर्म मजहब को सत्ता या पावर की सीढी  बनाया गया तो धर्म -मजहब भयानक -कालरा, ईलुफंजा जैसी  वैश्विक महामारी बन गया!पजीवादी वर्गीय समाज में  दक्षिणपंथी  अनुदारवादी कंजरवेटिव  और प्रतिक्रियावादी लोग 'धर्म-मजहब' की अफीम खुद भी खाते हैं और आवाम  को भी खिलाते रहते हैं। दुनिया के हर देश में और हर कौम में कुछ लोग परम्परागत पैदायशी  धर्मभीरु हुआ  करते हैं। वे धर्म -मजहब  की चटनी -आचार का  मुरब्बा बनाकर खुद तो   खाते ही हैं और  सरमाएदारी की कुशल चाकरी के लिए  'शोषित -सर्वहारा' वर्ग को भी खिलाते रहते हैं।  श्रीराम तिवारी


 

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

इस दौर की शिक्षा पद्धति में मानवीय संवेदनाओं का बहुत अभाव है।

 भारत की आजादी के शुरुआती  दो दशक तक  सरकारी क्षेत्र  के स्कूल कालेजों का शैक्षणिक  सिस्टम कुछ तो  बेहतर  था। ५०-६० के दशक में सरकारी विद्यालयों ,महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों  की इमारतों  के प्रवेश द्वार पर या उसके  सामने  गुजरने मात्र से  छात्रों को  ही नहीं बल्कि सभ्य-सुशिक्षित लोगों को भी  एक अजीब सिहरन का इल्हाम हुआ करता था । अधिकांस शैक्षणिक संस्थानों में बेहद अनुशासित और कसा हुआ  वातावरण था। हम लाख कहते रहें कि वह तो खौफजदा - मैकालेवादी शिक्षा का असर था किन्तु अंग्रेजों के इस अवदान से कोई कृतघ्न ही इंकार कर सकता है। आजकल  शिक्षा के क्षेत्र में जो निजी क्षेत्र की दुकाने कुकुरमत्ते की तरह सज रही हैं ,कोचिंग के  नाम पर कम्पटीशन के नाम पर जो लूटपाट हो रही है , जो दवंगों-मुन्ना भाइयों  का आतंक बढ़ चला है ,  जो व्यापम कांडों  के पापों का घड़ा भर रहा है ,उसके सापेक्ष तो स्वीकारना  पडेगा कि  अंग्रेजों की शिक्षा पध्दति और अनुशासन ही भारत जैसे पिछड़े देश  के लिए उपयुक्त था।

 इतिहास के अध्यन और विमर्श में  मेरी अभिरुचि  सदा से रही है । किन्तु विद्यार्थी जीवन में सपरिजनों और  शुभचिंतकों की सलाह पर मैंने अपने शैक्षणिक विषय साइंस और टेक्नॉलॉजी  ही चुने । बहुत बाद में जाकर मालूम हुआ कि यह फैसला सही था। तब साइंस विषय में डिग्री प्राप्त करने  वाले को सरकारी नौकरी की कोई कमी नहीं रहती थी। इसके अलावा साइंस पढ़ने का एक अतिरिक्त फायदा यह भी होता है कि साइंस की नजर से ही इस ब्रह्माण्ड को ,ग्रहों-उपग्रहों की स्थिति और प्राणिमात्र,जड़-चेतन की वास्तविक स्थति को और इस पृथ्वी को भी  वैज्ञानिक दृष्टि  से देखा-समझा जा सकता है। जबकि साइंस से इतर विषयों का अपना विशिष्ट महत्व तो है किन्तु वैज्ञानिक दृषिकोण नदारद रहता है । इतिहास ,धर्म-मजहब ,राजनीति ,समाजशास्त्र ,भूगोल और अर्थशाश्त्र  भी अपने  आदर्श रूप  को पाने के लिए विज्ञान का  ही सहारा लेते हैं । साइंस से उनकी वास्तविक और यथार्थ  स्थति का आकलन हो पाता  है।  साइंस पढ़ा  हुआ व्यक्ति किंचित  कूप मंडूक ,अंधश्रद्धालु , भेड़चाल वाला नहीं हो सकता। लेकिन यदि किसी को साइंस के साथ-साथ  धर्म - अध्यात्म  ,दर्शन , इतिहास  ,समाज  , भूगोल ,अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का ज्ञान हो तो  उसे 'बौद्धिक सम्पदा' का अधिकारी माना जा सकता है।  आधुनिक शिक्षा में तकनीकी का तो बहुत बोलवाला है। किन्तु इस दौर  की शिक्षा पद्धति में  मानवीय   संवेदनाओं के  वैज्ञानिक दृष्टिकोण  का  बहुत अभाव है।

ऐंसा नहीं है कि साइंस के विद्यार्थी को  पोंगा पंडित या मजहबी जेहादी नहीं बनाया जा सकता !लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि के  विवेकवान  और चैतन्यशील  लेखक -बुद्धिजीवी के लिए  यह सहूलियत है कि यदि वह दर्शन,इतिहास और अध्यात्म  को  जानना चाहे तो कोई कठिनई नहीं। लेकिन कामर्स -कला या भाषा संकाय के विद्यार्थी को फिजिक्स ,केमेस्ट्री समझ पाना बहुत मुश्किल है।  जिन लोगों की  अभिरुचि धर्म,अधाय्त्म और इतिहास में  ज्यादा है  वे उनके बनिस्पत दकियानूसी ही हैं ,जो साइंस जैसा  नीरस   विषय पढ़कर भी  मानवीय संवेदनाओं से युक्त हैं। श्रीराम तिवारी

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

भारत के यशस्वी गैरीबाल्डी प्रथम जन नायक पुष्यमित्र शुंग ।



 सामन्तकालीन युद्धोन्मादी घटनाओं के  जितने भी धीरोदात्त  नायक और महा कारुणिक साधु चरित्र उपलब्ध हैं ,उनमें कलावादी लेखकों और प्रगतिशील लेखकों ने अपने -अपने मनोरथ थोप दिए हैं। कुछ ने तो  दास भाव  से अपने राजा  या राजपुत्र को ईश्वर अवतार ही मान लिया। कुछ ने  तो अकर्मण्य और अघोरी राजपुत्रों को  को  धर्म संस्थापक ही मान लिया। और कुछ ने तो  ईश्वर और तारणहार ही मान  लिया। राजाओं -सामंतों के युद्धों और रानियों की रंगलीला -रासलीला के वर्णन  के जो महाकाव्य रचे गए ,उनमें धर्म -मजहब  के कुछ मानवीय सूत्र भी घुसेड़ दिए गए ,और फिर वे इतिहास मान लिए गये। लेकिन  तमाम मिथकीकरण के वावजूद कुछ ठोस प्रमाण हैं जो वास्तविक  इतिहास की कुछ झांकी प्रस्तुत करते हैं।

 यह सर्वज्ञात है कि बुद्ध ,महावीर और  विदेशी आक्रमणों का बहुत नजदीक का नाता है। इसके प्रमाण हमे बौद्ध साहित्य और जैन आगम में ही मिल जाते हैं। लेकिन हिंदू ,सनातन ,आर्य धर्म के ग्रंथों में आस्था ,कर्मकांड और नियम-कर्म की मह्त्ता के चलते इतिहास बोध नादरद  है। फिर भी चतुर चितेरे वैज्ञानिक दृष्टी वाले हर शख्स  को इस पौराणिक भूसे के ढेर में इतिहास और अध्यात्म का सारतत्व खोजने पर मिल ही जाता है। मुझे भी भारतीय इतिहास की कुछ अविस्मरणीय घटनाएँ और व्यक्तित्व बहुत स्पष्ट नजर आते हैं। उन्हें में से एक तो हैं  दशावतार के  भगवन परशुराम। जो पौराणिकता और मिथवाद के शिकार यहीं।  दूसरे हैं  भारत के यशस्वी  गैरीबाल्डी  प्रथम जन नायक  पुष्यमित्र शुंग ।

मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पोत्र महान अशोक (?) ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया। अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट व्रहद्रथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।
 
सम्राट व्रहद्रथ के शासनकाल में ग्रीक शासक मिनिंदर जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया।
सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।
दूसरी तरफ़ सम्राट व्रहद्रथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट वृहद्रथ ने मना कर दिया।किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत शुंग , सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी ग्रिफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।

पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर hi सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।सम्राट वृहद्रथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली। मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ,पुन:ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। डर से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया .किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी ,जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।

पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्र्मद्वित्य व आगे चलकर गुप्त साम्रराज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया। पुष्यमित्र शुंग के बारे में अर्बाचीन बौद्ध मतावलबियों  ने बहुत सी अनर्गल बातें लिखी हैं। चूँकि आजादी के बाद देश के शासक वर्ग को वोटों की राजनीति ने बाध्य किया कि  वे हिन्दू समाज के अन्त्यज वर्ग को और देश के अल्पसंख्यक वर्ग को साधें। इसलिए  कुछ सायास और कुछ अनायास गलत-सलत  इतिहास पढ़ाया जाता रहा है। पुष्यमित्र शुंग ने भारत को बौद्धिक मक्कारी ,परजीवी अहिंसा के पुजारियों से निजात दिलाने की भरपूर कोशिश की। जब  अरब में इस्लाम का  उद्भव  हुआ और उसके खलीफाओं ने  परसिया-ईरान ,काबुल और सिंध  पर  आक्रमण  किये तब  भारत में बौद्ध साम्राज्य का बोलवाला था। तब  भारत में अधिकांस बौद्ध -जैन राजाओं   और शक-हूणों के नए वर्णशंकर -राजपुत्रों का शासन था।  यदि पुष्यमित्र शुंग के अनुसार भारत का समाज और शासक गतिशील होते तो भारत की गुलामी का इतिहास नहीं लिखा जाता। जब  भारतीय समाज उच्चतर मूल्य  अहिंसा  और सहिष्णुताउसके गले की फांस बन गए तब लगा कि  ये मूल्य  सिर्फ धरती के देवताओं के लिए ही बने हैं। पुष्यमित्र शुंग ने  एक बौद्ध भिख्खु से कहा था -जाहिल कबीलाई खूँखार  कौमें हमारे  'अहिंसा' सिद्धांत  का मजाक उड़ाती हैं।  श्रीराम तिवारी 
 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

'दुनिया के मेहनतकशों एक हो ! भारत -पाकिस्तान के मेहनतकशों एक हो !

 भले ही पश्चिम जर्मनी और पूर्वी जर्मनी जैसा एकीकरण सम्भव न हो , किन्तु भारत-पाकिस्तान और बांग्ला देश एक क्षेत्रीय  'परिसंघ' तो कायम कर ही सकते हैं। जब यूरोप  के अधिकांस देशों ने अपनी  परम्परागत मुद्रा  का और सीमाओं का व्यामोह छोड़ दिया तो भारत ,पाकिस्तान, बांग्लादेश  और दक्षेश के अन्य पूर्व गुलाम राष्ट्रों की ऐंसी कोई मजबूरी नहीं की वे भी  अपनी एक 'कॉमन मुद्रा 'स्थापित न कर सकें। वे  सीमाओं पर दुर्गम कांटे बिछाने के बजाय आपस में सुगम पारगमन के लिए कोई प्रगतिशील एकदम न उठा सकें ! अतीत में लोहिया जैसे चिंतकों ने भी भारत -पाकिस्तान परिसंघ का सिद्धांत पेश किया था। 'संघ परिवार' का 'अखंड  भारत'वाला   सिद्धांत  भी उतना प्रतिगामी नहीं है जितना कि  उसके आलोचकों ने प्रचारित कर रखा है। और  कम्युनिस्ट तो वैसे भी अन्तर्राष्टीयतावादी होते ही  हैं इसलिए भारत-पाकिस्तान  और बांगला देश की 'एकजुटता' पर उन्हें भी कोई एतराज नहीं। भारत में राजनैतिक धरातल पर शायद यही एक ऐसी आम राय है या उटोपिया नुमा विचार है  जिस पर धुर दक्षिणपंथ से लेकर धुर वामपंथ  तक ,समाजवादी और अन्य दलों  की राय भी  मिलती जुलती है। लेकिन यह फिर भी यह  इकतरफा प्यार जैसा है। क्योंकि पाकिस्तान ,बांगला देश की जनता क्या चाहती है  ? यह सब उस पर निर्भर करता है। अभी तो पाकिस्तान ,नेपाल ,बांग्ला देश और श्रीलंका में भारत विरोधी रुझान चल रहा है। शायद यही वजह है कि भारत के प्रधान मंत्री नरेद्र मोदी  ने  देश को विश्वास में लिए बिना , संसद को विश्वास में लिए बिना ,और राष्ट्रपति को भी कुछ भी  बताये बिना  २५ दिसंबर-२०१५ को  पाकिस्तान की औचक और  सौजन्य यात्रा की है।

 "भारतीय उपमहाद्वीप में राष्ट्र निर्माण अभी अधूरा है" ! यह विचार चूँकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है , महज इसलिए कोई प्रगतिशील -वामपंथी इसका समर्थन न करे या इंड्रोस्मेन्ट नहीं  करे ,क्या यह जायज है ?   यह सच है कि भाजपा और मोदी सरकार के क्रिया कलाप पूरी तरह लोकतान्त्रिक और  सर्वसम्मत नहीं हैं।  किन्तु जब हम नक्सलवादियों ,अलगाववादियों और मजहबी जेहादियों को भी मुख्य धारा में लाने और सुधरने की गुंजाइश रहा करती है ,तो नरेंद्र मोदी और 'संघ' के सुधराकांक्षी लोगों को  भी पर्याप्त  अवसर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?  वेशक  मोदी जी ने ,भाजपा ने और समस्त संघ  परिवार ने  पाकिस्तान को हमेशा पाप का घड़ा  ही निरूपित किया है।  बांग्ला देश को शरणार्थी समस्या के लिए खलनायक माना जाता रहा  है। किन्तु मोदी जी ने खुद ही बांग्लादेश का सीमा विवाद कुछ हद तक हल किया है। अभी संघ  और मोदी सरकार  नेपाल द्वारा  'हिन्दुत्ववाद' छोड़ने और  'वामपंथ' की राह पकड़ने लेने से  खपा हैं। नेपाल  को परेशान  भी किया जा रहा  है।  किन्तु  आशा  है कि वे जल्दी ही उसका भी समाधान ढूंढ लेंगे। याने भारत के हिंदूवादी नेता कम्युनिस्ट नेपाल से भी दोस्ती अवश्य कर लेंगे। क्यों नहीं जब मोदी जी चीन ,रूस ,विएतनाम से प्यार की पेंगें बढ़ा रहे हैं तो नेपाल और फिर पाकिस्तान तो अपने निकटतम पड़ोसी ही ठहरे !

 लेकिन  इस दोगलेपन कि शिकायत  तो  किसी को भी हो सकती यही कि केंद्र में जब यूपीए की सरकार थी और भाजपा  विपक्ष में थी. तब  पाकिस्तानी रेंजर्स अथवा आतंकियों के हमलों के बरक्स  भाजपा  वाले कहते थे  कि   हमें सत्ता दो हमपाकिस्तान को ठीक कर देंगे !  हम अमेरिका की तरह पाकिस्तान की सीमा में घुसकर उधर  के  आतंकी केम्प नष्ट कर देंगे। मोदी जी ने और संघमित्रों ने  चुनावों के मौकों पर ही नहीं बल्कि कई बार डॉ मनमोहनसिंह को बुजदिल और कायर भी कहा है। याद कीजिये  उस क्षण को जब  अमेरिका के ड्रोन हमले में पाकिस्तानी फौज की नाक के नीचे रावलपिंडी में ओसामा लादेन मार दिया गया । तब भारत के परम  स्वयंभू राष्ट्रवादियों के तेवर क्या थे ? अभी २५ दिसंबर को जब मोदी जी काबुल से लाहोर पहुंचे तो मोदी जी के प्रस्थान उपरान्त काबुल में आतंकी हमला हो गया । और जब मोदी जी लाहोर से दिल्ली पहुंचे तो  हाफिज सईद  ने मोदी के लिए क्या-क्या दुर्बचन अंहिं कहे  ? \

इसके तुरंत बाद ही नागपुर में ,यूपी में, बंगाल में  आधा दर्जन  आतंकी  पकडे गए। ये सभी  पाकिस्तानी और   कश्मीरी हैं। ये सभी  आईएस आईएस में शामिल होने वाले आतंकी पकडे गए। हैं   मोदी जी अब  बराक ओबामा कयं  नहीं हुए ? पाकिस्तान के इतने सारे गुनाह माफ़ करते हुए  भी  मोदी जी जब लाहोर जा सकते हैं तो अपने पूर्व वर्ती प्रधान मंत्रियों को चिढ़ाने का क्या तातपर्य था ? तमाम आतंकी  हमलों के वावजूद भी यदि  मोदी जी    ने शरीफ  के बहाने पाकिस्तान से दोस्ती निभाने की सोची है तो भी देश के प्रगतिशील वामपंथी उनके साथ हैं। किन्तु यह केवल  क्रिकेट कूटनीति या व्यापार कूटनीति नहीं  हो ,बल्कि दोनों ओर  इंसानियत का पैगाम भी पहुँचना  चाहिए ! वेशक  यह अमन और 'सहिष्णुता' का  सिद्धांत  मोदी जी  या 'संघ परिवार' का नहीं है ,बल्कि यह सिद्धांत तो दुनिया के   सर्वहारा वर्ग का  'अन्तर्राष्टीयतावाद'  का सिद्धांत है। शोषण -उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ - "दुनिया के गरीबो एक हो " ! यह नारा नरेंद्र मोदी का नहीं है, यह तो मार्क्स-लेनिन का है। अब यदि कोई वामपंथी धर्मनिपेक्ष वुद्धिजीवी या कम्युनिस्ट कहता है कि देश में 'असहिष्णुता 'है ,तो मोदी के मतवाले कैसे कहते हैं कि  तुम देशभक्त नहीं हो ? किसी को खाने -पीने पर मार देते हैं या कहते हैं कि पाकिस्तान चले जाओ ! अब मोदी जी लाहोर हो आये ,फिर 'आना -जाना चलता रहेगा ' क्या मोदी जी  को बीफ खाने की सजा  दी  गयी है ? क्या पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जहर उगलना छोड़ दिया।  क्या मुंबई नर संहार के दोषी  -  हाफिज  सईद ,दाऊद  इब्राहीम पकड़कर जेल में डाले गए ?  या  मोदी जी सिर्फ सैर सपाटे  के लिए पाकिस्तान गए ? खैर वे जिस किसी भी वजह से गये हों  ,भारत के मजदूर -किसान और सर्वहारा को इससे कोई परहेज नहीं। क्योंकि उसकी सोच है 'दुनिया के मेहनतकशों एक हो ! भारत -पाकिस्तान के मेहनतकशों एक हो !

  जब -जब तीसरी दुनिया  के देशों में अंतर्राष्टीय या  द्विपक्षीय संबंधों पर कूटनीतिक चर्चा होगी,तब-तब नासिर,  नेहरू  ,टीटो, और सुकर्णो शिद्द्त से याद किये जाएंगे। साथ ही इनके उत्तराधिकारी और  गुटनिरपेक्षता के पोषक  इंदिरागांधी ,फीदेल कास्त्रो , अनवर सादात  , भंडारनायके ,नेल्सन मंडेला ,सद्दाम हुसेन और यासिर अराफ़ात भी हमेशा याद किये जायेंगे। वेशक ये नेता तत्कालीन शीत युद्ध की छाया में ही परवान चढ़े होंगे,किन्तु इन नेताओं की राष्ट्रवादी सोच का आधार बहुत कुछ 'अन्तराष्टीयतावाद' व  उपनिवेशवाद से सम्पूर्ण मुक्ति के विचार से प्रेरित थी।यह जग जाहिर है  कि'राष्ट्रवाद' को पूँजीवादी बुर्जुवा वर्ग ने और अंतरराष्ट्रीयतावाद को विश्व 'सर्वहारा क्रांतियों ने पुष्पित -पल्ल्वित किया  है।

 वेशक  मृतप्राय गुट निरपेक्ष आंदोलन के संस्थापन और उसकी  असफलता में संस्थापक  नेताओं की उटोपियाई सोच और वैयक्तिक वैश्विक  नेतत्व छवि निर्माण की उत्कंठा भी  महत्वपूर्ण कारक थी। और पूँजीवादी  मीडिया  ने ,बुर्जुवा वर्ग ने  व्यक्ति निष्ठ राष्ट्रों के कर्णधारों के  'अधिनायकवादी'  चरित्र ने   नव स्वाधीन राष्ट्रों की राज्य संचालन  व्यवस्थाओं  को असफल कर दिया ।इसी असफलता का ठीकरा उन नेताओं के सर फोड़कर  अमरीकन साम्राज्य्वाद  ने सोवियत क्रांति पर  भी हल्ला बोल दिया था।  विश्व सर्वहारा वर्ग ने न केवल  पूँजीवादी साम्राज्यवाद से बल्कि  खुद अपनी ही सर्वहारा क्रांतियों  के पहरेदारों से  भी  धोखा ही खाया है। अमेरिकी खेमे के नाटो देश और  राष्ट्र जापान,दक्षिण कोरिया की तरह परवान चढ़ते गए। जबकि सोवियत खेमे के राष्टों को या तो पूर्वी जर्मनी -पोलेंड की तरह पूँजीवाद  की ओर  मुड़ना पड़ा या फिर मध्यपूर्व के देशों की तरह आतंकी गृहयुद्ध में उलझने के लिए अभिशप्त होना पड़ा। या फिर भारत-पाकिस्तान की तरह अमन और विकास के लिए ,रोजी -रोटो  की जुगाड़ के लिए जूझना पड़ा।

तीसरी दुनिया के   देश-इजिप्ट ,ईराक ,सीरियान ,अफगानिस्तान  ,भारत  पाकिस्तान जैसे खंडित राष्ट्र  अभी तक 'शांति' की तलाश में  ही भटक रहे हैं।  नासेर का इजिप्ट,नेहरू - इंदिरा का भारत , भुट्टो का पाकिस्तान और  नेल्सन  मंडेला का दक्षिण अफ़्रीका तो फिर भी जिन्दा हैं , किन्तु मार्शल टीटो का  युगोस्लाविया तो यथार्थ में होते हुए भी नक्से से नदारद है।  सवाल उठता है कि  जब ये नेता इतने  प्रतिभा सम्पन्न ,गुणी  व मिलनसार थे तो वे अपने-अपने राष्ट्रों को यूरोप ,अमेरिका , रूस  जापान, फ़्रांस ,ब्रिटेन और जर्मनी जैसा ताकतवर  क्यों नहीं बना पाये ? उन जैसा विकसित न सही किन्तु चीन,कोरिया  ,हांगकांग ,वियतनाम ,सिंगापुर ,थाईलैंड ,ताइवान या ईरान -मलेशिया जैसा  ही बना लेते।

 ऐंसा प्रतीत होता है कि इतिहास स्वयं को दुहरा रहा है. भारत ,पाकिस्तान ,अफगानिस्तान के  वर्तमान प्रधान मंत्री भी नेहरू नासिर ,टीटो सुकर्णो की वैश्विक उड़ानों के  ही तलबगार हैं। भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी तो  धुंधली  हो चुकी इंदिरा नेहरू युगीन विदेश नीति को ही पुनः माँज कर चमका रहे हैं। दरसल भारत और  पाकिस्तान को  ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी वक्त से पहले ही मिल  गयी थी। यदि आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड, दक्षिण  अफ्रीका  ,सिंगापुर  की तरह  कुछ रुककर ,कुछ मैचोर्ड करने उपरान्त इण्डिया  अर्थात 'अखंड भारत' को आजादी मिली होती तो शायद भारत,पाकिस्तान,बांग्लादेश  नहीं बनते। शायद विभाजन  भी नहीं होता और तब शायद  इतना पिछड़ापन ,इतनी दरिंदगी इतनी जहालत और बद्हवाशी  भी  इस भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं होती। चूँकि द्वतीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और मित्र राष्ट्र जीतने के उपरान्त भी एकंगल हो चुके थे ,वे  दुनिया भर  के तमाम उपनिवेश पर शासन करने लायक ही नहीं बचे थे और भारत में स्वाधीनता संग्राम के लिए जरा ज्यादा ही उन्माद बढ़  चूका था इसलिए अंग्रेजों ने लुटे-पिटे भारत को  लस्त -पस्त  हालत में विभाजन की आग में झोंककर अपनी जान छुड़ाई। कांग्रेस ,मुस्लिम लीग और जातिवादी ,क्षेत्रीयतावाद नेताओं ने जो  कुछ भी अच्छा -बुरा किया धरा उसी का परिणाम  आज की पीढ़ी के  सामने है।

इस बदसूरत हालात को ठीक करने  के लिए इस दौर में  व्यक्तिवादी प्रसिद्धि की  राजनीति का नया दौर पुनः चालू है। भारत -पाकिस्तान ,बांग्ला देश में भृष्टाचार ,आतंक ,हिंसा का बोलवाला है। खाने-पीने  की वस्तुओं -दालों की  भरपूर पैदावार के वावजूद मेंहगाई  चरम पर है।  भारत में बिजली बिल की बढ़ती दरों पर ,रेल किराए में संसद से बाहर  ही मनमानी बढ़ोत्तरी पर ,पूर्ववत सरकारी भृष्टाचार को संरक्षण देने के सवाल  पर,किसानों की बदहाली के प्रश्न पर  , ठेका   मजदूरों के शोषण पर ,  आम जनता को   शिक्षा,स्वास्थ्य और शुद्ध पेयजल से महरूम रखने पर , पूर्ववर्ती और वर्तमान शासक अभी तक  कोई ठोस  रीति-नीति ही ठीक से पेश नहीं कर पाये हैं। केवल व्यक्तिगत हीरोगिरी  के निमित्त  दुनिया  भर  की यात्राएं की जा रहीं हैं। सुशासन -विकास और अमन के नारे लगाए जा रहे हैं। मीडिया पर लोग मुँह  बाए हुए आपस में कुकरहाव किये जा रहे हैं।

स्मार्ट सिटी ,बुलेट ट्रेन ,मेट्रो सर्विस ,माल्स,वाई-फाई ,डिजिटलाइजेशन ,कम्प्यूटरजेशन, और निजी पूँजी के मार्ग में आ रही श्रम  संबंधी अड़चनों को खत्म कर,केवल  पूँजीपतियों के  निमित्त सर्वत्र लाल कालीन विछाये  जा रहे हैं। चंद सरमायेदारों के हितों के लिए देश के करोड़ों युवाओं की जिंदगी दाँव  पर लगाईं जा रही है।

 सातवें  वेतन आयोग  की रिपोर्ट का इतना हो  हल्ला किया गया मानों पूरी आबादी  की लाटरी खुल गयी हो।   वेतन आयोग ने महज १३% वेतन बढ़ाने की जो सिफारिस  की है. उससे  देश के महज 1. ५ % लोगों को ही लाभ  होगा।  देश के ३० % अशिक्षित वेरोजगार ग्रामीण खेतिहर मजदूरों के लिए ,५ करोड़ शिक्षित शहरी युवाओं के लिए और २०% निजी क्षेत्र में अपनी जवानी झोंक रहे  आधुनिक सुशिक्षित युवाओं के भविष्य के लिए सरकार  की क्या नीति है ? युवाओं के  रोजगार और महिलाओं के विकास के लिए  कार्यक्रम क्या  हैं?

 सिर्फ कुछ नए-नए कुर्ते ,नयी-नयी पोशाकें , कुछ मन की बातें ,कुछ स्मार्ट शहर ,कुछ स्मार्ट सिटी ,कुछ मेट्रो  , कुछ बुलेट ट्रेन ,कुछ झाड़ू पकड़ फोटो ,कुछ गंगा आरती ,कुछ काबुल का कलेबा ,कुछ लाहौर  का लंच , कुछ विकास के नारे , कुछ आत्ममुग्धकारी  मुस्कान और कुछ चुनावी  जुमले  -बड़े अच्छे लग सकते हैं। किन्तु कोई भी  जिन्दा  कौम  इन सब चीजों को पाने के लिए  पांच साल  से ज्यादा इन्तजार नहीं कर सकती।

                                                                               श्रीराम तिवारी
 

समझो हुआ निदान , बारूदी सीमाओं का -shriram tiwari

भारत -पाकिस्तान की ,भली  बनी  छवि आज। 

 लाहौर  मोदी गए , अमन  विकास  के  काज।। 


  अमन विकास के काज ,पडोसी धर्म निभाया। 

  ब्रेकफास्ट काबुल में , लंच शरीफ घर खाया।। 


  समझो हुआ  निदान , बारूदी सीमाओं का  ।

  दाऊद,हाफिज सईद ,और  आतंकी गद्दारों का ।। 

               श्रीराम तिवारी :-

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

 हर साल ठण्ड के मौसम में शरद,शिशिर हेमंत वसंत इत्यादि ऋतुओं का आगमन होता है ,ऋतुओं एवं प्रकृति  के रूप गुण  सौंदर्य को विभिन्न कवियों ने अपने -अपने सरस काव्य मय निरूपण से अभिव्क्त किया है किन्तु  कवित्त छंद में सेनापति से बेहतर प्रस्तुति शायद ही कोई दे सका हो । सेनापति की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं।

शिशिर में शशि को सरूप पावे सविताहूँ ,घामहुँ  में चाँदनी  की दुति दमकत है।

चन्द्र के भरम होत  मोद  है कमोदनी कहूँ शशि संग पंकजनि फूल न सकत  है।

                                                  -:सेनापति :-

आज  अभी -अभी सुबह -सुबह घर की छत पर जाकर उदित होते सूरज को देखा। शहरी प्रदूषण और मौसम की मिली जुली धुंध के वावजूद जब 'पौ फटते' सूरज को देखा तो ऐंसा प्रतीत हुआ मानों कोई  विराट 'सांताक्लॉज'   गुलाबी रंग की रजाई अपने चहरे से हटाकर धरती की ओर करुणामयी दृष्टि से निहार रहा हो !श्रीराम तिवारी !

आरएसएस और पाकिस्तान की सोच में कितनी समानता है ?



ये पेरेस्त्रोइका ,ग्लास्तनोस्त का मारा  भूलुंठित,खंड-खंडित आधा अधूरा रूस  'हमारे'[भारतीय] प्रधान मंत्री  को बहुत रास आ रहा है । उन्हें रूस बहुत  लुभा रहा है ,बहुत  भा रहा है ,इसलिए वे उसकी प्रशंसा में  भाव विभोर हो रहे  हैं।काश !उन्होंने विराट 'महाशक्ति' के रूप में  एकजुट पूर्व  'सोवियत संघ' देखा होता ! मोदीजी या उनके पूर्ववर्ती  'दक्षिणपंथी'  भारतीय नेता यदि तत्कालीन सोवियत नेता  कामरेड जोसेफ स्टालिन से मिले होते तो  संघियों  को अमरीका और  उसका पूँजीवाद इस कदर नहीं सुहाता ! तब वे  भारत की मेहनतकश जनता को और उसके हरावल  दस्ते के रूप में  'वामपंथ'  की कतारों को  भी शायद दुश्मनी की नजर  से नहीं देखते।

मोदी जी को यदि  रूस जाकर अब यह एहसास हो रहा  है कि  १९७१ के भारत-पाकिस्तान युध्द में सोवियत संघ ने भारत के लिए क्या  कुछ किया ?  तो यह देर आयद दुरस्त आयद ही कहा  जा सकता है। दुनिया जानती है कि  सोवियत संघ ने भारत को संयुक्र राष्ट्र संघ में  कभी अकेला नहीं छोड़ा। सोवियत संघ ने कई बार अपना वीटो पावर  भारत के ऊपर  निछावर कर दिया। सोवियत संघ ने  भारत को परमाणु तकनीकी दी।  उसने भारत के लिए  अमेरिका से रारा ठानी।  सोवियत संघ ने भारत की उन्नति के लिए सार्वजनिक  उपक्रम खड़े किये। भारत -सोवियत मैत्री की मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिलेगी। अब सोविएत संघ तो नहीं रहा।  जब बचा खुचा रूस भी मोदी जी को  भारत के काम का लग  रहा है ,तो विराट सोवियत संघ  के नैतिक समर्थन के क्या जलवे रहे होंगे ?  हमें  यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय सेनाओं ने जिन हथियारों से पाकिस्तान के दो टुकड़े किये थे ,वे हथियार सोवियत संघ ने ही दिए थे और वीटो पावर भी सोवियत संघ का ही हुआ करता था!

यह शर्मनाक सचाई है कि  भारत -सोविएत मैत्री से पाकिस्तान के फौजी और मजहबी नेता हमेशा  चिढ़ते रहे हैं। किन्तु बड़े दुःख की बात हैं कि  आरएसएस  वालों को भी रूस से बहुत घृणा रही है। आरएसएस और पाकिस्तान की सोच में कितनी समानता है ?  भारत के अधिकांस  संघ समर्थक लोग भी  हमेशा सोवियत संघ  से चिढ़ते रहे हैं। अब जबकि खंडित रूस की मोदी जी ही इतनी तारीफ कर रहे हैं ,उसके एहसानों को याद करके आल्हादित हो रहे हैं ,तो पाकिस्तान के  खूँखार आतंकी नेताओं और भारत के कृतघ्न रूस विरोधियों के सीने पर साँप लोटना स्वाभाविक है ! आज जबकि  मोदी जी  भारत -रूस  दोस्ती की  तहेदिल से प्रसंशा  कर रहे हैं तो संघियों को भी   अब  मोदी जी ही सही ,रूस के विषय में कुछ तो  अपने ख्याल बदलने  चाहिए !-:श्रीराम तिवारी :-

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

आज की प्रासंगिक टिप्पणियाँ


दिल्ली के अलवेले मुख्यमन्त्री  अरविन्द केजरीवाल बहुत फड़फड़ा रहे हैं।  केजरीवाल और इनके  साथियों  को केंद्र की  सत्तारूढ़ 'मोदी सरकार' के सौतेले व्यवहार  से ढेरों शिकायतें हैं। लेफ्टिनेंट गवर्नर  नजीब जंग और दिल्ली पुलिस के असहयोग की बातें तो अब तक पुरानी हो चुकी हैं। अब तो दिल्ली के विकास और प्रगति के लिए केंद्र से कानी-कौड़ी नहीं मिलने का  भी ज्वलंत सवाल है। इसके साथ ही  प्रधान सचिव के बहाने खुद केजरीवाल के आफिस  पर सीबीआई  के  छापे ने  'आप' को 'करो या मरो 'की स्थिति  में  ला दिया  है।

 केजरीवाल  को मालूम हो कि  वे तो पराये हैं। केंद्र -राज्य संबंधों पर राजनैतिक सौतेले व्यवहार की सनातन   - कांग्रेसी परम्परा इतनी जल्दी कैसे लुप्त होगी ? केजरीवाल को  यदि सौतेले व्यवहांर की मिसाल देखना है तो वे  'मोदी जी के  सगोत्रीय -'संघी साथी' मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान  के दर्देदिल  पर भी जरा   गौर फरमाएं !  मोदी सरकार के  विगत डेड सालाना कार्यकाल में , केंद्र से  मध्यप्रदेश को आर्थिक मदद के मामले में , मुख्य मंत्री शिवराजसिंह चौहान को  जितना रुसवा होना पड़ा ,उसके सामने केजरीवाल  की दुर्गति  या दिल्ली राज्य को आर्थिक  सहयोग की शिकायत पासंग जितनी भी नहीं है। लोग  पूंछ  रहे हैं  कि  जो सगों के नहीं हुए  वे गैरों के क्या होंगे ?जब शिवराज की ही बखत  नहीं तो केजरीवाल की क्या औकात ?


"विचारशील लोगों का एक छोटा सा समूह  भी दुनिया को बदल सकता है। वास्तव में दुनिया जब भी बदली है ,इन्ही लोगों के द्वारा बदली है ": मारग्रेट मीड

 नई  दुनिया अखवार की खबर है दुनिया के सबसे धनी तानाशाह - शासक ब्रूनेई के सुलतान हसनल बोल्किया ने फ़रमान जारी किया है कि उनके देश में यदि कोई  भी नागरिक क्रिसमस  मनाते हुए पाया गया तो पांच साल की जेल होगी। उन्होंने न केवल ईसाइयों को आदेशित किया है , बल्कि मुस्लिम समुदाय को भी पावंदी है कि  वे ईसाइयों को किसी तरह की बधाई इत्यादि  नहीं दें। यदि  किसी मुस्लिम ने किसी ईसाई को मुबारकवाद दी तो उसे भी जेल भेज दिया जाएगा ।

भारत में  कोई भी किसी भी धर्म मजहब का नागरिक - कभी भी - कहीं भी धर्म  - मजहब का  त्यौहार मनाने के लिए आजाद है। जिन  मजहबी लोगों को लगता है कि भारत में बहुत नाइंसाफी हो रही है ,वे अपनी  जानकारी अपडेट कर लें।  रही बात 'बीफ' खाने की  मनाही या  पाबंदी की अथवा लाऊड स्पीकर  लगाकर  मंदिर-मस्जिद से चिल्लाने की ,भड़काने की तो उसके लिए भारत में  धर्मान्धता की अति हो चुकी है।  वास्तव में  भारत  की  समस्या 'असहिष्णुता' नहीं है। बल्कि  समस्या यह है कि  धर्म-मजहब के नाम पर जरुरत से ज्यादा  पाखंड  और अंधश्रद्धा का बोलवाला है। इस पर रोक लगनी चाहिए। सभी धर्म-मजहब  केवल झगड़ा फसाद की बात करते हैं। उन्हें राष्ट्रीय एकता और सामाजिक -आर्थिक असमानता से कोई मतलब नहीं !  धर्म-मजहब के आपसी  झगड़ों के  बहाने आतंक का शैतान भी भारत  में  घुसपैठ कर  चुका है। यह न केवल राष्ट्रीय अखंडता  के लिए घातक है बल्कि जनवादी क्रांति के मार्ग में रोड़े  भी अटका रहा है। श्रीराम तिवारी   

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

अवैज्ञानिक हिंदुत्व वादियों की यही मानसिकता भारत की बर्बादी का कारण है।

वैसे तो दुनिया की हर कौम में एक नैसर्गिक  समानता है कि ,'अपने वालों ' से गद्दारी  करने पर प्रायः  माफ़ नहीं किया करते !  लेकिन हिन्दू और ईसाइयत  परम्परा में एक विचित्र और अदभुत समानता  हे कि अपराधी  चाहे  अपने वाला हो या शत्रु पक्ष का  उसको एक बार  क्षमा अवश्य किया  जाना चाहिये ।  जिस विभीषण ने अपने भाई रावण से गद्दारी की और राम से जा मिला ,जिसने अपने  ही वंश का नाश कराया उसे हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं ने  'देवत्व' प्रदान किया ! लेकिन जब  हिन्दू जैचंद ने  हिन्दू पृथ्वीराज चौहान से गद्दारी की तो इस्लामिक हमलावर  मुहम्मद गौरी ने  दोनों हिन्दुओं को -पृथ्वीराज और जैचंद-दोनों  को  ही नहीं बख्सा। युद्ध में  गद्दारी का  इससे बढ़िया  इनाम क्या हो सकता  है । जन श्रुति है कि गौरी ने कहा था " जयचंद तूँ  अपने ही कौम का नहीं हुआ तो हमारा  कैसे हो सकता है ?'' यदि गौरी ने जैचंद को  नहीं मारा होता तो  शायद आज जैचंद भी विभीषण की तरह भारत में  हिन्दुओं का एक  उदात्त आदर्श  होता। अवैज्ञानिक हिंदुत्व वादियों की यही मानसिकता भारत की बर्बादी का कारण है।

 खैर ये तो सभ्यताओं के उत्थान-पतन  पर निर्भर है करता है कि  कब  कौनसी  परम्परा  का अनुपालन होगा। लेकिन इन दिनों भारत में छद्म  'हिन्दुत्ववादी  और अम्बानी-अडानी जैसे लोगों  का शासन है। जनता की समस्याओं से ध्यान भटकाकर ,अरुण जेटली बनाम कीर्ति आजाद  के पाखंडपूर्ण द्वंद को  खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। लेकर इसमें  भाजपा और संघ  परिवार की खूब किरकिरी  भी हो रही है। भाजपा  के इस अंदरुनी कलह से उनके नेताओं का वास्तविक  चरित्र  भली -भाँति  हिलोरें ले रहा है। 'संघ' और भाजपा के अंतिम निर्णय  पर  कार्यकर्ताओं की निगाहें टिकी हैं। अब देखने की बात ये हैं कि  भाजपा के  इस  'यादवी' संघर्ष में 'संघ' द्वारा जैचंद वाला फार्मूला लागू किया जाएगा या विभीषण वाला ?  बहुत संभव है कि बेईमान भृष्ट दबंग नेता  जो पूँजीवाद  का पक्का भड़ैत  है उसको हीरो मानकर और  सच्चाई के लिए संघर्ष करने वाले को जैचंद मानकर  'बलराज मधोक , गोविंदाचार्य,  बाघेला ,खुराना की तरह लतियाकर बाहर कर दिया जाए ? यदि संघ वाले  याने  हिंदुत्व वाले  इस राह पर चलते हैं तो हिंदुत्व की परम्परा का यह  घोर अपमान होगा। 

क्योंकि ये तो इस्लामिक परम्परा है कि  जो गद्दारी करे उसे 'नाप' दो ! हिन्दुत्ववाद तो विभीषण वाला रास्ता चुनता है । और उसके अनुसार तो कीर्ति आजाद को ही हीरो माना जाना चाहिए.। वही तो  आज विभीषण का भूमिका में हैं। संघ वाले यदि जेटली का साथ देंगे तो  यह माना जाएगा कि उन्होंने विभीषण को श्रीराम भक्त  न मानकर  जैचंद मान लिया है और अब स्वाभाविक रूप से  रावण को अपना आदर्श मान लिया है !  क्या यह  हिन्दुत्ववादी दर्शन है। फिर तो  श्री राम  भी अवतार नहीं रहेंगे। तब उनके मंदिर की भी जरुरत नहीं है।  अर्थात  राम मंदिर निर्माण ,पादुका पूजन ,शिला  पूजन और देश में साम्प्रदायिक उन्माद  सत्ता प्राप्ति के साधन  मात्र हैं . हिंदुत्व से इनका कोई लेना देना नहीं है।  श्रीराम तिवारी  

रविवार, 20 दिसंबर 2015

आपराधिक राजनीति में आप डबल मापदंड कैसे लागु कर सकते हैं ?

केंद्रीय मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर बहुत प्रतिभाशाली और तीक्ष्ण  बुद्धि के धनी हैं। उनके अधिकांस वयान बहुत संतुलित और सटीक होते हैं। 'संघ' परिवार और भाजपा के अन्य  लिजलिजे नेताओं के बरक्स जावड़ेकर जैसे मूर्धन्य नेताओं को आइना दिखानें में विपक्ष और मीडिया को  भले ही पसीना आ जाता हो । लेकिन मुझे तो ऐंसे ही कुशाग्र नेताओं की 'लू' उतारने  में मजा आता है। 

नेशनल हेराल्ड प्रकरण में जब सोनिया जी और राहुल को कोर्ट से जमानत मिली तो ''हाई -कमान'  के मना करने के वावजूद भी कुछ कांग्रेसी उत्साहीलाल देश भर में इधर-उधर जश्न मनाने के लिए  अपने-अपने घरों से  निकल पड़े।  कुछ तो कोर्ट ही  जा पहुँचे। काँग्रेसी  कार्यकर्ताओं की इस नादानी पर प्रकाश जावड़ेकर ने तंज कसते हुए कहा 'जमानत ही तो मिली है ,इसमें जश्न मनाने लायक क्या है ?'जावड़ेकर जी आप बिलकुल सही फरमाते हैं 'आई लाइक इट'! लेकिन आपराधिक राजनीति में आप  डबल मापदंड  कैसे लागु कर सकते हैं ?
 
ऐंसा प्रतीत होता  है कि जावड़ेकर के   इस शानदार तंज याने  कुटिल वयान की सूचना मध्यप्रदेश सरकार और भोपाल- भाजपा कार्यालय -'समिधा' तक नहीं पहुँची। वरना  व्यापम घोटाले के खुख्यात अपराधी -पूर्व मंत्री  लक्ष्मीकांत शर्मा  कल जब  डेड साल का  कारावास भुगतने के बाद जेल से जमानत  पर छूटे तो  भाजपा के १० हजार लोग [ शायद भृष्ट  व्यापम लाभार्थी]  उनकी अगवानी के लिए जेल के मुख्य द्वार पर मौजूद थे। यदि जावड़ेकर  का वयान सौ-पचास अस्त-पस्त  कांग्रेसियों पर लागू हो सकता है ,तो  डेड घंटे तक  जेल के बाहर जश्न मनाते  हुए १० हजार भाजपाइयों पर  लागू क्यों नहीं  होना  चाहिए ? -:श्रीराम तिवारी:-

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

इसी सनातन सहिष्णुता ने भारत को सदियों तक गुलाम बनाये रखा है।

जब प्रशांत महासागर या गिरिराज हिमालय की अतल  गहराइयों में भूस्खलन होता है  तो उसके विनाशकारी प्रभाव का असर सुदूर कोलकाता ,मुंबई ,विशाखापट्नम और चेन्नई में भी देखा जा सकता है। जब जापान  , फिलीपींस  दक्षिण चीन सागर में सुनामी का कहर उमड़ता है तो बंगाल की खाड़ी में उद्दाम लहरें उमड़ने लगतीं है। जब न्यूयार्क ,टोकियो,शंघाई या लन्दन में व्याज दरें बढ़तीं हैं तो मुंबई स्टॉक एक्सचेंज और शेयर बाजार में तेजी-मंदी  हिलोरें लेने लगती है। जब सूरज के अंदर जलती हुई गैसों का संतुलन बनता -बिगड़ता है तो सम्पूर्ण   सौर मंडल और धरती  पर भी  उसका असर होता है।

 इसी तरह जब मध्य एशिया - इजिप्ट ,सीरिया ,इराक ,तुर्की ,लीबिया ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जब मजहबी कटट्रपंथ का सैलाब उमड़ता है तो सुदूर भारत में भी आतंकी चूहे कुलाचें भरने लगते हैं। अर्थात भारत में जो  कभी-कभार मजहबी झगड़े ,साम्प्रदायिक उन्माद और 'असहिष्णुता' के छुटपुट उदाहरण  दरपेश होते हैं वे तो पेट्रोलियम  उत्पादन पर कैबेज खूंखार दरिंदों की अमानवीय हरकतों  की प्रतिक्रिया मात्र  है।ये तो महिमा उस दिग्भर्मित तथाकथित  इस्लामिक-जेहाद की है  कि यदि सलमान रश्दी  की किताब 'सेटेनिक -वर्सेस'  लंदन में  लिखी गई या छापी गई  है तो मजहबी -साम्प्रदायिक कीड़े  भारत के भोपाल ,दिल्ली बरेली ,मुजफरनगर, हैदरावाद,मुंबई ,बेंगलुरु ,भटकल और कश्मीर में  भी कुलकबुलाने लगते हैं। इसमें भारत की  शांतिप्रिय जनता और 'अहिंसावादी' हिन्दुओं का क्या कसूर है ?

यह सार्वभौम मान्यता है कि आरम्भ में तो प्रत्येक धर्म-मजहब का जन्म -संस्थापन आवश्यकता के धरातल पर उसकी जागतिक उपादेयता के हेतु ही हुआ है। सभी धर्म-मजहबों की शुरुआत तत्कालीन कबीलाई बर्बरता से मुक्त होकर करुणा,क्षमा,परोपकार,बंधुत्व ,शांति,मैत्री व विकास त्यादि बेहतरीन मानवीय मूल्यों की खातिर  और हिंसक मानवीय समूहों द्वारा बर्बर  आक्रमणों एवं प्राकृतिक आपदाओं के निवारणार्थ और  सभी प्राणियों की सुरक्षा के निमित्त  विभिन्न धर्मो-मजहबों की  स्थापना हुई  है। कालांतर में  समय-समय पर ईश्वर,जीव और जगत के अंतर्संबंधों को परिभाषित करने के निमित्त  जो शाब्दिक स्वर दिए गए उनसे ही विभिन्न धर्म-मजहब के सिद्धांतों और तदनुसार मूल ग्रंथों की रचना साकार हुयी है।

 जिस तरह गंगोत्री पर तो  गंगा  पर्याप्त स्वच्छ है किन्तु  लम्बी यात्रा के बाद आगामी  पड़ाव पर वह  मैली होने लगतीं है। इतना ही नहीं इलाहाबाद में संगम पर गंगा -यमुना  का मिलन भी उस पूर्ववर्ती निर्मलता को अक्षुण नहीं रखा पाता। लम्बी यात्रा  के बाद  गंगा जब गंगासागर अर्थात बंगाल की खाड़ी में  जाकर मिलती है तब वह  खुद भी  खारा समुद्र हो जाती है। इसी तरह दुनिया का प्रत्येक धर्म-मजहब शुरुआत में तो बहुत उदात्त एवं विश्व  कल्याणकारी हुआ करता है किन्तु लम्बे समयांतराल के बाद ,एक खास मोड़ पर सभी धर्म -मजहब का रूप आकार अत्यंत विकृत और बिकराल होता चला जाता है । इतना ही नहीं उनके सार तत्व और बुनियादी सिद्धांत भी काल कवलित होने लगते हैं।  दुनिया का कोई भी धर्म-मजहब ,दर्शन-विचार जो केवल आस्था और विश्वास के सहारे ही टिका है  उसकी प्रासंगिकता खतरे में है। केवल वही विचार ,सिद्धांत ,धर्म -दर्शन  चिरजीवी और सारभौमिक स्वीकार्यता बनाये  रख सकता है जिसका आधार विवेकपूर्ण ,तर्कपूर्ण  और  विज्ञानवादी  हो !

 इन दिनों जो -जो धर्म-मजहब छुइ-मुई हो चले हैं, वे बन्दूक के जोर पर या तो अपनी जंग -ए -जेहाद में जुटे हैं   या राष्ट्र सत्ता पर काबिज होकर आवाम के खान-पान ,पूजा -आस्था विश्वास को 'असहिष्णुतापूर्वक 'निर्देशित कर रहे हैं। ईश्वर के घर में किसी 'शूद्र'  के प्रवेश से  जिस धर्म के पिल्लर  ही धराशायी होने लगें उसके लिए गर्व  के ढपोरशंख बजाना तो 'अधर्म' ही होगा। जिस धर्म -मजहब के नियम साइंस ने खंडित कर दिए हों और आश्था  धूल धूसरित  होने लेगें उसके  कालगत सिद्धांत या निर्जीव 'सलीब' को  अनंत काल तक कन्धों पर लादे फिरना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता ।  इस दौर की बलिहारी है कि  जो सच के साथ खड़े हैं ,विज्ञान और विकास के साथ  खड़े हैं ,जो न्याय और मानवता के पक्ष में खड़े हैं वे  सत्ता की नजर में 'अपराधी हैं। वे , सफ़दर हाशमी  कलबुर्गी,पानसरे ,दाभोलकर -असहिष्णुता' के खिलाफ लड़ते हुए शहीद  हो रहे हैं ! आज जब  धर्म -मजहब  ही इंसानियत के लिए खतरा बन गए हैं  तो उनकी हिफाजत के नाम पर पाखंड क्यों किया जा रहा है ? लोकतंत्र रुपी दूध में  साम्प्रदायिकता रुपी जहर  क्यों मिलाया जा रहा है ? अमन  और  भाईचारे वाले  खुदाई पैगाम में उन्मादी जेहाद का  रक्तरंजित कहर क्यों बरस  रहा है?

 जिस तरह अधर्म के विनाश के लिए हर दौर में मानवीयता के  धर्म का अविष्कार होता रहा है ,उसी तरह हर दौर में पतित हो  चुकी सभ्यताओं और खंडित हो चुके के  धर्म -मजहब के विनाश के लिए भी विज्ञान रुपी यथार्थ का  भी अवतरण होता रहा है। अतीत के अनेक उदाहरण  हैं जो इस सिद्धांत को सिद्ध करते हैं। विगत २०० वर्षों में साइंस के आविष्कारों ने ,विज्ञान  के चमत्कारों ने दुनिया के प्रत्येक अवैज्ञानिक धर्म-मजहब की चूलें  हिलाकर रख दीं हैं। न केवल साइंस,टेक्नॉलॉजी  ने बल्कि मानवीय सभ्यता के प्रत्येक नए  वैज्ञानिक विचार ने  पुरातन धर्म-मजहब को अपनी सार्थकता और उपादेयता सिद्ध करने पर मजबूर कर दिया है। आज  दुनिया में जो भी धर्म- मजहब के कबाड़खाने  और बूचड़खाने दीख रहे  है वे वर्तमान दौर के  कुशासन और अव्यवस्थाओं  की  खुरचन मात्र है। धर्म-मजहब अब बाजार  का हिस्सा है। भारत में  तो  जन्म -मृत्यु ,शादी -व्याह ,तीज त्यौहार  , स्नान ,कुम्भ मेला और तमाम धर्म-मजहब के ज्ञातब्य  लौकिक व्यवहार अब मोक्ष या मुक्ति के साधन नहीं बल्कि  पूँजीवादी बाजारीकरण की शोषण-कारी अर्थव्यवस्था के अन्योन्याश्रित वित्त पोषक बन चुके हैं।

आम जनता की परेशानियों ,राष्ट्रों के अंदरूनी विग्रहों और आर्थिक-सामाजिक संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न  जनाक्रोश और जन क्रांति से निपटने के लिए  पूँजीवादी  व्यवस्थाओं को धर्म-मजहब की  हमेशा जरुरत है।  चूँकि धर्म-मजहब के धंधेबाजों को पूँजी की जरुरत है। इसलिए धर्म-मजहब और पूँजीबाद  में एकता है। इस   साम्प्रदायिकता और पूँजीवाद के  नापाक गठजोड़ की  बाजार की ताकतों और हथियार उत्पादकों को गरज है।  अपनी तिजारत के लिए धर्म-मजहब और पूँजीवादी दुनिया की ताकतें  बेरोजगार युवाओं के हाथों में बंदूकें थमा  देती हैं।  ये युवा समझते हैं कि  वे 'जेहाद' कर रहे  हैं । जबकि  जेहाद  एक पवित्र  कर्म है  और गुमराह युवा जेहाद के बहाने  अपने ही  निर्दोष  भाइयों को मार रहे हैं और खुद भी कुत्ते की मौत मर रहे हैं। अमेरिका और दुनिया के अन्य पूँजीवादी  मुल्कों के आर्थिक संकट को टालने में ये  जेहादी बहुत काम आ रहे  हैं। इधर भारत के क्रांतिकारी विचारक केवल 'संघ परिवार' की 'असहिष्णुता' को या भाजपा की धर्मनिरपेक्षता को रो रहे हैं !

 वास्तव में 'निरपेक्ष प्रगतिशीलता ' निरपेक्ष संकीर्णता , निरपेक्ष सहिष्णुता ,निरपेक्ष लोकशाही या निरपेक्ष   मानवीयता जैसा कहीं कुछ  भी सम्भव नहीं । बुद्ध के 'मझ्झम निकाय' की तरह सब ओर अति निम्नता और अति उच्चता का निषेध ही पसरा हुआ है। प्रत्येक विचार आवृत्ति का  'मध्यम स्वर' ही चिरजीवी सिद्धांत बन कर रह गया  है। लोकतान्त्रिक ,समाजवादी गणतांत्रिक भारत में यदि सफदर हाशमी,नरेंद्र दाभोलकर , गोविन्द पानसरे या कलीबुरगी के हत्यारों को लगता है  कि इन मुठ्ठी भर  पढ़े-लिखे विचारवान लोगों के कारण  ही इन  हत्यारों का 'रामराज्य' हाइजेक हो रहा था तो वे नितात्न्त जड़मति ही हैं।  उनके सांस्कृतिक ,सामाजिक और अन्य हितों को ये  डेड पसली के प्रगतिशील साहित्यकार ,लेखक  ,समाज  सुधारक  हानि पहुंचा रहे हैं,  तो  उन  अंधश्रद्धा वालों की  मानसिक संकीर्णता का  यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।'संघ ' प्रेरित दिग्भर्मित हिन्दू  उग्रपंथियों   और सनातन सभा के  हिंसक साधकों की अवैज्ञानिक सोच  का  यह जीवंत प्रमाण है।

इन कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादियों और खूँखार  आईएसआईएस  में क्या फर्क है ?  दो-चार  क्रांतिकारी  लेखकों  - विचारकों और दार्शनिकों की  जब  हिंसक हिंदुत्वादियों ने  निर्मम हत्या की ,तब शायद हत्यारों को भी इन महापुरषों की  वैचारिक ताकत का अता-पता  नहीं था। उन्हें शायद अब  एहसास होने लगा है  की मारे गए दो-चार  साहित्यकार -विचारक और लेखक  महज  हाड मांस के पुतले नहीं थे। वे इस भारत भूमि पर अपने आप में  क्रूसेडर थे। इस दौर में  हिन्दू-मुस्लिम आतंकियों के हाथों मारे गए शहीदों में  से  वेशक कोई भी अपने आप में मोहनदास -कर्मचन्द गांधी से कमतर नहीं  था।  हत्यारों ने भारत की अपरम्पराओं का ,मानवीय मूल्यों का , लोकतान्त्रिक उसूलों का   ,धर्मनिरपेक्ष  मान्यताओं का  और 'अपने' ही राष्ट्र की अस्मिता का गला  घोंटा है।  कुछ लोग इन साहित्यकारों -विचारकों की हत्या को संख्या बल में कम आंकते हैं ,लेकिन वे भूल जाते हैं कि  भगतसिंह ,आजाद ,अशफ़ाक़ुल्ला ,सफ़दर हाश्मी ,कालीबुरगी ,पानसरे ,दाभोलकर जैसे क्रान्तिकारी हजारों-लाखों में नहीं होते।

 एक दुसरे के मत-अभिमत का विरोध तो  दक्षिणपंथी -वामपंथी या हिन्दू-मुस्लिम  और  दुनियाभर के अन्य तमाम  कटटरपंथी आतंकवादी  भी  धड़ल्ले से करते रहते हैं। सब के अपने -अपने तर्क हैं। सबके अपने-अपने जस्टिफिकेशन भी हैं। लेकिन अतीत के अंधे- रक्तरंजित कबीलाई  घटिया उसूलों के लिए आज के युवा अपनी जवानी बर्बाद क्यों करें ?  जो लोग फिलीपींस से लेकर सीरिया तक और मालदीव से लेकर क्रोसोवो तक  किसी खास  दकियानूसी विचार और घटिया धर्म गुरु के बह्काबे में आकर अपने  ही  धर्म-मजहब के निर्दोष लोगों को  मरने-मारने पर तुले हैं, वे भूल जाते हैं कि  जिस साइंस  और टेक्नॉलॉजी ने उनकी धर्मान्धता के खिलाफ प्रचंड  प्रगतिशील चेतना विकसित की है ,जिस साइंस ने गोला  बारूद कम्प्यूटर बम  और बंदूकें पैदा कीं हैं ,जिस सांइस ने अंतरिक्ष में रॉकेट भेजे हैं और  चाँद - मंगल को छुआ है , जिस साइंस ने लेपटॉप ,मोबाइल फोन जैसे आधुनिक संचार साधनों के ढेर पैदा किये ,उसी अधर्मोच्छेद्क  साइंस के आधुनिक उपकरणों का  प्रयोग करने में इन मजहबी आतंकियों को रंचमात्र  शर्म नहीं आती।

 मानव इतिहास के हर दौर में शोषण की ताकतों के प्रति शोषित किन्तु जीवंत वीरों का  विद्रोही स्वभाव रहा है ।  हर  दौर के यथास्थितिवाद और पाखंडवाद का विनाशक  उस शैतान के साथ ही जन्मता और अपनी सार्थक भूमिका   करता है। आधुनिक प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता  सिर्फ बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी की बपौती  नहीं है। अतीत के हर दौर ने मानवता की रक्षा के लिए अनगिनत बलिदानी अवतार प्रदान किये हैं। जब मार्क्स एंगेल्स या लेनिन  नहीं थे तब भी दुनिया में उटोपिया के रूप में  साम्यवाद  विद्यमान था।  जब कृष्ण नहीं थे तब भी  'सांख्य-कर्म और ज्ञानयोग -विद्यमान था। जब पैगंबर नहीं थे तब भी  अरब कबीलों में बिरादराना भाईचारा  और एकेश्वर वादी चिंतन मौजूद था।  और वह वहशीपन भी आज मौजूद है जो पैग़म्बरे इस्लाम को पसंद नहीं था।  वह वहशीपन जो अब मुंबई ब्लास्ट के जिम्मेदार आतंकी  हाफिज सईद, दाऊद इब्राहीम और   ,अटकल -भटकल  को पसंद है। जो खूरेंजी आईएसआईएस ,बोको हरम ,हमास ,अल-कायदा, तालिवान जैसे तत्ववादी  आतंकियों  को पसंद है। जिस हिंसक विचार ने  इराक ,सीरिया ,लेबनान,सूडान लीबिया  फिलिस्तीन  अफगानिस्तान  , पाकिस्तान में रक्तपात मचा रखा है उसका इतिहास बहुत पुराना है।

 इसी तरह भारतीय परम्परा में भी आसुरी प्रवृत्ति  के लोगों ने ही न्याय  की रक्षा के लिए  ईश्वर अवतारवाद को जन्म दिया है। यदि भारत के अंधश्रद्धालु कटटरपंथी हिन्दुत्ववादियों ने  गांधी , सफदर हाशमी ,नरेंद्र दाभोलकर  ,गोविन्द पानसरे  और एमएम कलिबुर्गी  जैसे महान क्रान्तिदर्शीयों  की हत्या की है ,तो  साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखकों और साहित्यकरों ने महविष्णु बनकर दक्षिण पंथी असहिष्णु  हिंसक दैत्यों  को अभी चेतावनी ही दी है। देवासुर संग्राम तो अभी बाकी है।  हिन्दू ,मुस्लिम दोनों ओर  के आतंकियों के गुनाह और पाप बराबर है।  संख्या बल का  यहाँ कोई  औचित्य नहीं है। हजारों साल में  समूचा मध्य एशिया ,यूरोप ,अमेरिका  और अफ्रीका  भी एक अकेला   महात्मा गांधी पैदा  नहीं कर सका।  गांधी , सफ़दर  हाशमी , पानसरे  कालिबरगी किसी व्यक्ति के नाम नहीं बल्कि ये  साइंटिफिक  मानवीय विचारधारा के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। इन की बराबरी तो सन्सार के तमाम मजहबी अवतारी धर्मध्वज  मिलकर  भी नहीं कर सकते ! ये  तो मानवता के  पथप्रदर्शक थे  जिन्हे  तथाकथित  गुमराह हिंदूवादियों ने मार डाला !

अपने समकालीन  दौर में  विद्रूपण  के खिलाफ संघर्ष करते हुए -प्रोत्सर्ग करते जा रहे हैं ,तो वे उत्तरआधुनिक दौर के  वास्तविक हीरो हैं। दरसल ये  बलिदानी लोग  ही इतिहास बनाते हैं। ये प्रबुद्ध वैज्ञानिक दृष्टी के मानव ही उस महान परम्परा के 'अवतार' हैं, जो ज्ञात इतिहास में ही नहीं अपितु पौराणिक आख्यान और मिथकीय परम्परा में  सनातन से चलन में  है।  'जब-जब  होय धर्म की हानि ,बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ' की नौबत आने पर प्रत्येक दौर की तत्कालीन व्यवस्था को  नए 'अवतार' की ही नहीं बल्कि 'नए  प्रगतिशील विचार' की भी जरुरत  हुआ करती है।
                      वे लोग  जो पतनशील परम्पराओं के अन्धसमर्थक हैं  ,वे लोग जो  ढोंगी गुरुओं-पाखंडी बाबाओं के पिछलग्गू हैं ,वे लोग  जिन्हे  'दास्त्वोध' से बंधे होने की  बुरी आदत हैं , वे धर्मांध नर-नारी  जिन्हे मिथकीय  गटरगंगा में 'नारद के वाराह' की तरह सनातन डुबकी  लगाते रहने की बुरी लत  है,  वे लोग जिन्हें तर्क विज्ञान और यथार्थ इत्यादि शब्दों से ही एलर्जी  है। वे लोग जो  किसी पारलौकिक शक्ति  द्वारा 'उद्धार'  किये जाने  के  फलाकांकाक्षी हैं। ये सभी लोग एक मानसिक गुलामी के शिकार होकर आर्थिक सामाजिक पराधीनता की    दुर्वृत्ती  के कारण घोर  पराजय और दासता के लिए अभिसप्त हैं।
                                  जो  लोग  अतीत की  गुलामी के कारणों से अनभिज्ञ हैं ,जो लोग नहीं जानते कि  हरेक बाहरी आक्रमणकारी  कौम ने जब-जब भारत पर हमले किये तब-तब भारत की अहिंसा और असहिष्णुता ही इस भारतीय समाज के गले का फंडा  बनती  गई। यदि हिन्दू असहिष्णु होते ,युद्ध पिपासु होते तो 'सिख पंथ' का  शायद उदय ही न होता !  यदि भारत की हिन्दू,जैन ,बौद्ध और सनातन परम्परा में सहिष्णुता न होती  तो सिख गुरओं  को क्या गरज पडी थी कि  'हिदुंओं' की रक्षा के लिए'  केश , कड़ा, कंघा कृपाण, कच्छा  धारण करने और बर्बर आतताइयों से जूझते हुए अपनी सर्वश्रेष्ठ कुर्बानी देते ? अधिकांस धर्मनिपेक्ष और वामपंथी इतिहासकार अपनी अधकचरी समझ को वैज्ञानिक जामा  पहिनाने के फेर में सच से कोसों दूर  चले जाते हैं। जिन्हे भारत की  प्रत्येक पुरातन परम्परा ,इतिहास ,सभ्यता ,संस्कृति में केवल 'असत ' ही दिखाई देता है ,जिन्हे हरएक   पुरानी  चीजें  सिर्फ सामंती भग्नावेश ही नजर आते हैं,उनको अपने बुजुर्गों बूढ़े-माता-पिता से शायद ही कुछ लगाव या  उनके प्रति कृतग्यता भाव होगा ! सहिष्णुता के  विचार , उदात्त परम्परा  , साझा संस्कृति ,अनेकता मे एकता वाली शानदार सभ्यता की जो कठिन साधना भारतीय  हिन्दू समाज ने की है ,उसकी  शानदार थाती को सिर्फ साम्प्रदायिक कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादियों के हवाले नहीं किया जाना चाहिए । भारतीय सनातन  समाज ने अतीत में  अति  सहिष्णुता का ही खामियाजा भुगता है। इसी सनातन सहिष्णुता ने भारत को सदियों तक गुलाम बनाये रखा है। पुनः  इस सहिष्णुता  के खतरों की अनदेखी  कर  उसके  खतरनाक परिणाम भारत  की  शांतिप्रिय जनतांत्रिक जनता -जनार्दन को क्यों भोगना चाहिए ? अतीत का जो संघर्षपूर्ण इतिहास है उसमें देश के मजूरों -किसानों का बलिदान सर्वोपम रहा  है।  उनका भी इतिहास रचा जाना चाहिए। समृद्धशाली भारतीय परम्परा और मानवीय मूल्यों को -अतीत का कूड़ा  कहकर जो लोग उसे कूड़ेदान के हवाले करने पर आमादा हैं  , वे प्रगतिशील या वैज्ञानिकतावादी कैसे  हो सकते : श्रीराम तिवारी "-



 

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

देशभक्तिपूर्ण जन आंदोलन को वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रस्तुत होना चाहिए ! -

  कतिपय कारणों से  वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद  की  अकल्पनीय भयावहता  और  भारत के 'संघ परिवार' की छुद्रतम अर्ध साम्प्रदायिक बनाम तथाकथित  देशभक्ति पूर्ण एवं सर्वधर्म समभाव  की संशयात्मक  स्थिति के कारण मैं दोनों को एक ही खांचे में फिट करने का दुस्साहस  नहीं कर सकता। आर्थिक  घोटालों को लेकर जब  कांग्रेस कठघरे में  खड़ी हो और उसके शीर्ष नेतत्व पर जाँच  की आँच आ रही  हो  तब  वामपंथ का स्टेण्ड  महज सत्ता विरोधी होना अखरता है। मैं नहीं जानता कि  इस तरह के आचरण से  किसे लाभ होगा ?  एनडीए  याने  मोदी सरकार  ने यदि सोनिया जी और राहुल को जेल भेजने की तैयारी की है तो यह भाजपा की हाराकिरी होगी।

इन हालात में देश की जनवादी  वामपंथी कतारों की भूमिका और बढ़ जाती है । बजाय साम्प्रदायिकता बनाम असहिष्णुता  के आभाषी व्यामोह में  डूबे रहने के उन्हें उन्हें यह  याद करना चाहिए कि  वर्तमान  नव्यउदारवादी आर्थिक नीतियों के  बिनाशकारी परिणामों  के लिए खुद कांग्रेस  भी जिम्मेदार है। जब कांग्रेस के रथ का पहिया अतीत के राजनैतिक कीचड़ में धस चुका हो , तब इस विकट स्थिति में संगठित  जन आंदोलन  को   वैकल्पिक राजनीति  के रूप  में प्रस्तुत होना चाहिए ! वामपंथ और भारत के संगठित सर्वहारा वर्ग की तमाम  संघर्षपूर्ण प्राथमिकताएँ पुनः परिभाषित की जानी चाहिए !

 जन आंदोलन को अपना ध्यान वेरोजगारी,महँगाई ,भृष्टाचार के अलावा  राष्ट्र की एकता पर  भी केंद्रित करना चाहिए। आतंकवाद,अलगाववाद  और क्षेत्रीयतावाद के खिलाफ मैदानी जन -आंदोलन खड़ा किया जाना जरुरी है। तमाम बदनामियों और खामियों के वावजूद 'संघ परिवार' की लोकप्रियता  सिर्फ एक मुद्दे पर परवान चढ़ रही है , कि  वे भले ही पूँजीवाद के  भड़ैत हों ,किन्तु  वे ऐंसा सा कोई काम नहीं करेंगे  जिससे कि भारत को सीरिया या ईराक बनना पड़े। वेशक आरएसएस की तुलना  आईएसआईएस ,कश्मीरी आतंकी और सिमी जैसे देश द्रोही संगठनों  से करना याने अपनी आत्मा को  ही मारने जैसा है। वेशक संघ ने अतीत में बहुत सारी गलतियाँ की हैं। वेशक उनका  हिन्दुत्ववादी प्रचार अभियान झूँठ का पुलिंदा है। संघ  के शिल्पकार  गुरु गोलवलकर तथा अन्य  संघ -बौद्धिकों  ने  देश के मेहनतकशों को धर्म-मजहब और जाती में बांटा है। किन्तु 'संघ' ने दुनिया के किसी भी देश में  जेहादी ,क्रूसेडर या आत्मघाती दस्ते तो कभी नहीं भेजे। संघ परिवार और इस्लामिक आतंकियों में बहुत फर्क है। यह  वास्तविकता है। भारत के जनवादी -वामपंथी समूहों को निर्भय होकर यह कटु सत्य स्वीकारना  चाहिए।  वामपंथ को सार्बभौम आतंकवाद जहाँ हो उसके  खिलाफ शंखनाद छेड़ना  चाहिए।  तब हिन्दुत्ववादी वेरोजगार युवा 'संघ परिवार' को धता बताकर वामपंथ के साथ जुड़ेंगे। उसके जायज संघर्षों में अवश्य साथ देंगे।आज जो 'हर-हर मोदी ,घर-घर मोदी ' का घोष किये जा रहे हैं ,वे कल  अपने आप धर्मनिरपेक्षता का स्तुति गान  भी करने लगेंगे।

प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों ने सहिष्णुता बनाम धर्मान्धता बनाम साम्प्रदायिकता का अब तक जो स्टेण्ड लिया है  ,उसमें  मेरी  ही आंशिक असहमति का स्वर मात्र  नहीं है। बल्कि हजारों-लाखों संघशील  और जुझारू  जन नायकों की भी असहमति मौजूद है। जन संघर्ष के भटकाव ,सांगठनिक बिखराव व पूँजीवादी -सम्प्रदायिक गठजोड़ के वर्ग चरित्र पर अन्य अनगिनत वामपंथ समर्थक विचारकों -बुद्धिजीवियों  का वैचारिक पार्थक्य भी  मौजूद है। लेकिन वह  अभिव्यक्त  नहीं हो पाता है क्योंकि 'जनवादी केन्द्रीयता बनाम केंद्रीय जनवाद' के 'शुद्ध' लोकतान्त्रिक  सेटअप में ढेरों खामियाँ  मौजूद हैं। हालाँकि असहमत व्यक्तियों या समूहों की समग्र  वैचारिक सोच  भारत की वामपंथी  राजनीति से किंचित भी जुदा नहीं है। द्वन्दात्मक भौतिकवाद ,वैज्ञानिक समाजवाद,  मार्क्सवाद -लेनिनवाद , और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद  पर कहीं किसी को कोई शक नहीं। किन्तु यह परम  सत्य है कि बिना हिन्दुओं को साधे  भारत में सर्वहारा की या किसी और तरह की तानाशाही के कोई शुभ चिन्ह मौजूद नहीं हैं। वामपंथ से बहुसंख्य  हिन्दू समाज की  बढ़ती हुयी दूरियाँ हिन्दुत्ववादी सोच  की राजनीति को कुछ  काल  तक ही पाल-पोष सकतीं हैं। किन्तु जब -जब इस धरती पर नंगा भूँखा इंसान रहेगा ,तो होने वाले  मानवीय कोलाहल  और आने वाले तूफ़ान को कोई नहीं रोक सकता। तब शायद किसी जन-क्रांति का आगाज हो तो  कोई आश्चर्य  की बात नहीं।

''नया पथ '-भीष्म साहनी जन्मशताब्दी विशेषांक- के पृष्ठ -२७ पर  नामवरसिंह ने लिखा है : -
''भीष्म साहनी की दॄष्टि धर्म के उस रूप पर केंद्रित थी जो 'रूमानी' है। उन्होंने संस्थागत -व्यवसायिक धर्म की तो उन्होंने कड़ी  आलोचना की है ,,,,, भीष्म साहनी की धर्म -चर्चा पढ़ते हुए सहसा महाभारत के भीष्म आँखों में बिजली की तरह कौंध जाते हैं। भीष्म शर शैया पर लेटे  हैं ,,,,युधिष्ठर पितामह के सामने अपनी जिज्ञासा रखते हैं ,,,,,भीष्म धैर्य के साथ उनका समाधान करते हैं ,,,,इसी क्रम में  महाभारत के अनुशासन पर्व - अंतर्गत भीष्म के मुख  से  यह अदभुत  श्लोक निकलता है ,,,,'एक एव चरेद् धर्म ;न धर्मध्वजिको भवेत् /धर्म वाणिज्यका हे ते ये धर्ममुपभुञ्जते '// अर्थात मनुष्य को चाहिए कि  वह अकेला ही धर्म का आचरण करे। धर्म का दिखावा करने वाला धर्मध्वजी न बने। जो मनुष्य धर्म को जीविका का साधन मानते हैं ,उसके नामपर अपनी जीविका चलाते  हैं ,वे धर्म के व्यवसायी हैं। "

महाभारत की इस परम्परा से गोस्वामी तुलसीदास भी सहमत हैं। रामचरितमानस  में ही उन्होंने

 "धर्मध्वजी 'लोगों को फटकारते हुए कहा है :-''धींग धर्मध्वज धंधक धोरी " अर्थात धर्म को सार्वजानिक रूप में व्यवसाय या राजनीति में घुसेड़ना एक किस्म का ढोँग है !

"आज देश में धर्मध्वजी लोग जिस तरह आतंक पैदा कर रहे हैं उनका मुकाबला सच्चे धर्म के ऐंसे ही  हथियार से किया जा सकता है। --ठूंठ धर्मनिपेक्षता  तो अब बेअसर हो रही है। भीष्म साहनी का 'निजी धर्म 'भी वही है जिसे महाभारत के भीष्म पितामह ने ' एक एव चरेद् धर्म :'में 'एक ' के द्वारा परिभाषित किया है। लेकिन उसका अर्थ निपट व्यक्तिवाद नहीं है "

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय वामपंथ ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए अब तक जो भी  स्टेण्ड लिया है उसमें धर्म नदारद है। केवल साम्प्रदायिकता को कोसते रहने से  देश के तमाम  संसदीय क्षेत्रों में वामपंथी ताकतों ने अपना परम्परागत  असर तक  खो दिया है। प्रगतिशील लेखकों-विचारकों ने भी पार्टी लाइन के आधार पर  हिन्दुत्व के और इस्लाम के  कटटरपंथ को एक  नजर से देखा है। बल्कि देश के अहिसक हिन्दुओं को आईएस से ज्यादा  खूँखार  बताकर उन्होंने अनजाने ही  भारत के अधिसंख्य हिन्दू समाज को अपना वर्ग शत्रु  बना लिया है । वामपंथ की इस एकपक्षीय ठूंठ 'धर्मनिरपेक्षता' [बकौल नामवरसिंह ] से सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यक  -मुस्लिम ,ईसाई भी उससे दूर होते चले गए। उधर  वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद ने   हिन्दू समाज को  जरूरत से ज्यादा उद्देलित किया और इधर वामपंथ और और कांग्रेस से निराश मुसलमान ममता,मुलायम ,नवीन और नितीश के साथ हो लिए। अधिसंख्य हिन्दू स्वभावतः 'संघ परिवार' और भाजपा से  जुड़ते चले गए ,इससे  किसी  तरह की सर्वहारा क्रांति के निशान अब  दूर -दूर नजर नहीं आ रहे हैं ,उलटे  देशी-विदेशी कॉरपोरेट  पूँजी  का नंगा नाच  अवश्य  देखा जा सकता   है।

        श्रीराम तिवारी


 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

आलोचना ,समालोचना ,प्रत्यालोचना ki -प्रस्तावना [shriramtiwari]

 उत्तर आधुनिक लेखन की आवश्यक चेतना के रूप में किसी भी लेखक के लिए, उसके समकालीन  सामाजिक  वैज्ञानिक,राजनैतिक ,सांस्कृतिक सरोकारों का और मानवीय विसंगतियों का विहंगावलोकन अपेक्षित है। जिस तरह सत और अस्त का द्वन्द  ही हर युग का बीज प्रत्यय  हुआ करता है ,उसी तरह हर युग की एक क्रांतिकारी  सोच हुआ करती है। जिसमें  तार्किकता ,वैज्ञानिकता  और  प्रगतिशीलता  की  त्रिवेणी प्रवाहित हुआ करती है। मैंने अपने मौलिक व यथार्थवादी लेखन में निर्थक कल्पनाओं ,शाब्दिक आडंबरों और अनुपयुक्त अन्योक्तियों और विषय पुनरावृत्ति से बचने का भरसक प्रयास किया है। 

पद्य काव्य विधा में  अब तक मेरी  तीन  पुस्तकें - अनामिका ,शतकोटि मंजरी और 'साठ -पन्ने'  प्रकाशित हो  चुकी हैं।  समय-समय पर 'जन -काव्य -भारती 'और 'आनंदम्' इत्यादि मंचों से  भी  मेरे आलेख और कविताएँ  प्रकाशित होती रहीं  हैं। इसके अलावा  हंस ,वीणा ,अभिरुचि,अनुभूति ,काव्य प्रवाह व  इंदौर दूर संचार पत्रिका द्वारा भी मेरे आलेख और रचनाएँ प्रकाशित की जाती रहीं हैं। सम्प्रति  मध्यप्रदेश की विख्यात  विसिलब्लोवर  हिंदी मासिक पत्रिका "फॉलो-अप " के मार्गदर्शन ,सह  लेखन -सम्पादन  का उत्तरदायित्व भी  मुझे दिया गया  है। मेरा मानना  है कि  इस दौर में जो छप रहा है या दृश्य एवं श्रव्य माध्यम पर उपलब्ध है वह अधिकांस  या तो  आभासी है या फिर बाजार का हिस्सा है। मैंने इन सबके बरक्स यथार्थ और सापेक्ष सत्य को चुना। यह तो पाठक ही तय  करेंगे कि  मेरे लेखन की सार्थकता और प्रमाणिकता कितनी  है ?

हालाँकि  स्वास्थ्गत कारणों से ही सही किन्तु सायास साहित्यिक प्रतिभा प्रदर्शन से  मैंने  हमेशा दूरी बनाये  रखी। वेशक  में पेशेवर साहित्यकार नहीं हूँ ! मैं  धरतीपकड़  साहित्यकरों  की तरह  प्रसिद्धि ,सम्मान और बौद्धिक प्रतिभा प्रदर्शन के निमत्त कागज काले करने वालों लायक नहीं बन सका। कुछ थोड़ी सी साहित्यिक  - सामाजिक -संस्थाओं में नेतत्वकारी भूमिका अदा करने  के लिए  भी मैंने कभी कोई प्रयास नहीं किया। किन्तु बाज मर्तबा मुझे राष्ट्रीय स्तर के पदों पर काम करने का  अनायाश सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। मेरे  पुत्र डॉ प्रवीण तिवारी  ने लगातार आग्रह  किया कि  मैं अपने लेखन का कलेवर सीमित और संक्षिप्त करूँ किन्तु मैं चाहकर भी  ऐंसा नहीं कर सका। बेटे ने  कभी -कभार  टीवी  चेनल्स और  दूरदर्शन पर  भी मुझे अपनी बात रखने का अवसर उपलब्ध कराया।  फेस बुक समेत तमाम अधुनातन संचार साधनों पर पुत्र प्रवीण  के हजारों मित्र हैं। वे मुझे लिखते रहने के लिए  निरंतर  उत्साहित किया करते हैं। प्रवीण के अनन्य मित्र कुँवर पुष्पेन्द्रसिंह, फिल्म  अभिनेता  आशुतोष राणा , सनसनी स्टार श्रीवर्धन त्रिवेदी  और उनके तमाम मित्रों  की प्रेरणा से ही  विगत ७-८  वर्षों से मैं लगातार लिखता रहा। अपने निजी ब्लॉग  www.janwadi.blogspot.com  पर ,प्रवक्ता .काम पर ,हस्तक्षेप.काम  पर और फेसबुक ,ट्विटर सहित अन्य बेब साइट्स एवं माध्यमों  पर तथा अन्य उपलब्ध तमाम  डिजिटल  - इलेक्ट्रानिक   संचार माध्यमों पर भी मेरे  'निबंध' गीत -छंद और कवितायेँ  लगातार  प्रकाशित होते रहे है।

अपने निजी  ब्लॉग  पर अब तक [इस संकलन के प्रकाशन  तक ]लगभग एक  हजार से अधिक गद्द्य 'निबंध' और सौ से अधिक कवितायें  पोस्ट  हो चुकी हैं । द्रुत लेखन का यह सिलसिला अब भी जारी है।  जो  लोग ब्लॉग नहीं पढ़ पाते , फेसबुक  इत्यादि माध्यमों पर नहीं हैं ,अथवा आधा अधूरा आलेख ही सरसरी तौर पर पढ़ते हैं। अतः कई बार अर्थ का अनर्थ समझ लिया जाता है। हर जगह स्पष्टीकरण देते फिरना सम्भव  नहीं। कथ्य की साक्ष्य को अपने कुछ चयनित  आलेखों को पुस्तक के रूप में  आकार  दिया है।

अधिकांस निबंध आलोचनात्मक ,समीक्षात्मक ,विचारात्मक ,सूचनात्मक ही लिखे गए हैं। किन्तु  कभी-कभार धर्म-मजहब व  राजनैतिक दर्शन के  वैचारिक कठमुल्लापन या तात्विक संकीर्णतावाद का भी मान-मर्दन किया गया है। भले ही मेरे  निबंधों में नायक-नायिका नख-शिख वर्णन, बुर्जुआना अश्लीलता , सुरा  -सुंदरी वर्णन और स्वान्तःसुखाय की सृजनात्मकता नदारद है। किन्तु इन सबके के बरक्स सत्य बनाम  असत्य  की सापेक्ष तम   और शानदार  निर्मम  शल्य क्रिया अवश्य की  हैं।

कहा जाता रहा है कि "निबंध  मूलतः आपके  व्यक्तित्व  और विचारों का आइना हुआ करता है " ! किन्तु साइंस तकनीकी के अत्यधुनिकीकरण  के इस दौर में भी कविकुल गुरु कालिदास व  रससिद्ध कवि  मतिराम , बिहारी लाल  का रस सौंदर्य कालातीत  नहीं हुआ  है। आधुनिक  मंचीय नव्यगीत और टीवी -फ़िल्मी दुनिया ने जितना   जन आकर्षण दायरा बनाया है ,उसके समक्ष  प्रगतिशील और आधुनिक जनवादी सृजन चूँचूँ के मुरब्बे जैसा ही  है।  हालाँकि आर्थिक उदारीकरण  वैश्विक बाजारीकरण ,मजहबी  आतंकवाद और वैज्ञानिक उपलब्धियों के युक्तियुक्तकरण  के  विमर्श पर ही  इस दौर  की राजनीति अवलम्वित है। वेशक आज  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और नामवरसिंह भी चाहें तो 'कला-कला के लिए' की प्रासंगिकता सिद्ध नहीं कर सकते। किन्तु फिर  भी मेरे जैसे अदने  और गैरपेशेवर लेखक बनाम ब्लॉगर ने यह जुर्रत की है। अर्थात आलोच्य और नीरस विषय को सरस  - राग  -रति -रंग में लपेटकर प्रस्तुत  किया है।

आधुनिक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी अवधारणाओं  के परवान चढ़ने और लुढ़कने  के दौर में  , सार्वदेशिक अमानवीय  विध्वंशकारी शक्तियों के  सर्वव्यापकीकरण  और शोषणकारी  भूमंडलीकृत दौर  में  , असमानतावादी फिजाओं  ने  मेरे अधिकांस  लेखन को न केवल छान्दोग्य  कलात्मकता से  महरूम किया  है  बल्कि साहित्यिक रोचकता से भी कोसों  दूर रखा है।  शब्द रचना के  रूप -आकर के बरक्स अनाकर्षक और कुचित्रणता  के कठोर  दुर्गम कंटकाकीर्ण पथ का उच्छेदन   ही मेरी साहित्यिक यात्रा का अंतिम गंतव्य रहा है।

 कुछ मित्रों  और सुहृदयजनों की  हमेशा शिकायत रही है  कि मेरे आलेख  कुछ ज्यादा ही बृहदाकार होते हैं । उनके अनुसार  मेरी भाषा भी 'अजनबी' , अति क्लिष्ट और पांडित्यपूर्ण  हुआ करती है। यह भी आरोपित है कि मैं कदाचित उर्दू शब्दों को ज्यादा तवज्जो देता  हूँ। जबकि उनके सर्लार्थी हिंदी पर्याय शब्द इफरात से मौजूद हैं। कुछ को शिकायत रही है कि  संस्कृतनिष्ठ तत्सम्  शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है। वैचारिक तौर पर भी कुछ पार्थक्य की  शिकायत अवश्य रही होगी । हालाँकि मैं  तो खुद को निखालिस मार्क्सवादी -लेनिनवादी ही मानता हूँ।  किन्तु मेरे अन्य वामपंथी मित्रों -विचारकों और  साहित्यकारों को लगता है कि  मैं कदाचित उनकी नजर में  कदाचित आदर्श मार्क्सवादी नहीं हूँ। भारतीय दर्शन का सांगोपांग अध्येता होने के वावजूद भी मुझे दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादियों  की  ढेरों गालियाँ  खाने  का हमेशा  सौभाग्य प्राप्त हुआ है।इसके वावजूद  राजनीति और धर्म-मजहब के जुड़वाँ  संकीर्णतावाद से मेरी जंग जारी जारी रहेगी।  मार्क्सवादी भौतिकवादी दर्शन  और भारतीय  अध्यात्म  दर्शन के उच्चतर मूल्यों में  बहुत कुछ ऐंसा है जो इंसानियत के अनुकूल है। मैं  हमेशा उसी सत्य  - न्याय की  तलाश में हूँ।

मेरा  यह भी मानना  है कि मानक निबंध की झंझटों और दुरूह  मापदंडों के फेर में यदि निबंध का कथ्य और उसकी सार वस्तु ही अनकही रह जाए तो ऐंसे स्कंधविहीन आलेख  के सृजन की सार्थकता और औचित्य क्या रह जाएगा ? यदि मुझे  सूखा-बाढ  पीड़ित  किसानों के बारे में , ड्रग माफिया  और आतंकवाद के बारे में लिखना है, तो  पाठ्य पुस्तकीय निबंध की भाँति मात्र तीन सौ शब्दों में तो मुझसे यह कार्य सम्भव नहीं।  शुद्ध शैक्षणिक अथवा  महाविद्यालयीन  शिक्षा के लिए एक खास तयशुदा प्रारूप के अंतर्गत  लिखे जाने वाले निबंध के मान्य  परम्परागत ढांचे की परवाह मैंने  कभी नहीं की। क्योकि यह दायित्व मेरा नहीं है। यह  पुनीत कर्म तो राज्य द्वारा  वित्तपोषित याने तनखैया लेखक और 'सम्मान  प्राप्त 'बुद्धिजीवियों का है। इसलिए वे अपनी सरकार के निर्देश पर 'सत्ता के अनुरूप' लिख-लिखकर कागज काले किया  करें।

निश्चित रूप से यह सच है कि  एक  अच्छे  और सार्थक निबंध के लिए उसकी भाषा सरल सुगम्य और सुबोध होना ही  चाहिए। किन्तु जहाँ पर विषय वस्तु के सरोकार आर्थिक,सामाजिक और मजहबी -पाखंड -उच्छेदन के हों ,जहाँ  पतनशील व्यवस्था  के  खिलाफ तीखे तेवर  मौजूद हों, जहाँ यथार्थ के धरातल पर वैज्ञानिकता और तार्किकता  की ठोस बुनियाद के  शिल्प  का सामान मौजूद हो ,जहाँ आलोचना ,समालोचना ,प्रत्यालोचना  की निर्मम  -नीरस- चीरफाड़  के औजार मौजूद हो ,जहाँ लाभ-हानि आधारित स्वार्थगत भौतिकवादी व्यूह रचना के खिलाफ तार्किक और तीखे शस्त्र हों , और जहाँ पर जन-कल्याण कारी वैचारिक ध्वजवाहिनी  पर सर्वहारा का स्वेद मौजूद हो - वहाँ के  लेखन कर्म में  छंद शास्त्र का सौंदर्यऔर मनोरम लालित्य  खोजना मानों व्यक्तित्व का चरम  आशावादी होना  है।भले ही वहाँ  'कोमलकांत  पदावली 'का नामोनिशान ही न हो  किन्तु  मनुष्य और उसकी मानवीय सम्वेदनाएँ  शिद्दत से मौजूद रहेंगीं। श्रीराम तिवारी   

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

इंद्र के इंद्रासन को जिससे खतरा हो उसके तप को अक्षुण क्यों रहना चाहिए ?



        अपने प्रधान सचिव राजेन्द्र  के दफ्तर पर ताजा सीबीआई  छापे से बौखलाए अरविन्द केजरीवाल खुद ही अपनी हंसी उड़वा रहे हैं। ''आप''नेता जब दिल्ली राज्य की सत्ता में दूसरी बार आये तो भारी  बहुमत [ ७० में से ६७ सीटों] ने उन्हें इतना  मदमस्त कर दिया कि योगेन्द्र,प्रशांत ,शाजिया जैसे कद्दावर नेताओं को ही चलता कर दिया। अभी साल भर भी नहीं हुआ और उनकी असफलताओं के पहाड़ आसमान छूने लगे हैं। दिल्ली की शकूर बस्ती के सैकड़ों भूंखे -प्यासे लोग  इन दिनों दिल्ली  की  कड़कड़ाती  ठंड  में  ठिठुर रहे हैं। उनकी जीवन-मृत्यु  का संज्ञान लेने के बजाय  एनडीए की मोदी सरकार को ऐंसी  क्या गरज आन पडी कि  सब काम-धाम छोड़कर  दिल्ली के मुख्य मंत्री -केजरीवाल के दफ्तर पर सीबीआई का छापा डलवा दिया ? उधर केजरीवाल  भी अपने महत्वपूर्ण दायित्व से पृथक  अपने सचिव के बचाव में इतने बाचाल हो गए कि सीबीआई और पीएम को ही  अंट -शंट  बकने लगे।

 क्या केजरीवाल की नजर में मोदी जी जनता द्वारा चुने गए पीएम नहीं हैं ? क्या मोदी जी केवल भाजपा या संघ परिवार के ही प्रधान मंत्री है ? क्या वे दिल्ली की जनता के और केजरीवाल के भी प्रधान मंत्री नहीं हैं ?केजरीवाल के अल्फाज चीख-चीख कर बता  रहे हैं कि  वे नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री  ही नहीं मानते ! उधर केंद्र सरकार का  नकारात्मक रवैया और उनके लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग का  रोड़ा अटकाऊ रवैया  दिल्ली की 'आप'' सरकार  और दिल्ली की जनता  को बता रहा है कि  मोदी जी और भाजपा वाले तो केजरीवाल को दिल्ली का मुख्य मंत्री ही नहीं मानते ! खीर भाजपा और मोदी सरकार से न्याय और समानता की उम्मीद किसी महा जड़मति को ही रही होगी किन्तु "आप' ' को तो  किसी भी आरोप से बरी नहीं किया  जा सकता।

 चूँकि 'आप' के नेता  केजरीवाल ने  चुनाव से पूर्व  भृष्टाचार उन्मूलन की भीष्म प्रतिज्ञा लेकर दिल्ली की जनता का जनादेश हासिल किया है, अतः उनके दफतर में  सीबीआई आये या ईडी आये या साक्षात यमराज आये उन्हें  सदैव याद राख्न चाहिए कि  "साँचे को आंच क्या " ? वेशक  केंद्र की  मोदी सरकार उन्हें सहयोग नहीं कर रही ! और केजरीवाल को भृष्ट साबित  करने के  कुटिल मंसूबे परम्परागत राजनीती के  इंद्र लोक में भी बाँधे  जा रहे होंगे।  लेकिन सवाल यह है कि पूंजीवादी इंद्र के इंद्रासन को जिस  किसी तपोनिष्ठ से खतरा हो उसके तप को अक्षुण क्यों रहना चाहिए ? उसे निष्कलंक रखने की जिम्मेदारी मोदी सरकार की नहीं है बल्कि यह तो उनकी ही जिम्मेदारी है जो इसका दावा करते हुए सत्ता में आये।

  चूँकि केजरीवाल सत्य हरिश्चंद्र नहीं हैं ,शिवि ,दधीचि नहीं हैं ,इसलिए सत्ता के आधुनिक 'इंद्र' को केजरीवाल से कोई खतरा नहीं। केजरीवाल को भी 'इंद्र' से डरने की जरूरत ही नहीं क्योंकि इंद्र का चरित्र कितना महान है यह तीनों लोक जानते हैं। वैसे भी केजरीवाल जननायक या 'आदर्शवाद' के अवतार नहीं हैं। वे  तो  अभी तक एक अदद लोकतान्त्रिक नेता भी नहीं बन पाये हैं। वे  तो इतने नादान हैं कि उन्हें यह भी एहसास नहीं कि "आप' का चाल -चेहरा -चरित्र  निष्कलंक रह ही नही सकता ! क्योंकि जब तक  देश और दुनिया में  यह आधुनिक  घोर पतनशील अधोगामी पूँजीवादी  व्यवस्था मौजूद है। तब तक राजनैतिक काजल की कोठरी में कोई भी सयाना  - या  केजरीवाल यदि एक  बारे घुस जाए तो  निष्कलंक  रह  ही नहीं सकता। हमें  इंतजार है  यह जानने का कि इस काजल की कोठरी में  "आप' और केजरीवाल अब तक ' कितने काले  हो चुके हैं ! यह शुभ कर्म  सीबीआई   के  कर कमलों अर्थात 'काले हाथों' से ही सम्पन्न  होगा,  इसमें केजरीवाल को संदेह नहीं होना चाहिए !

 देश  के प्रत्येक  जागरूक नागरिक को इसमें रंचमात्र संदेह नहीं कि सीबीआई के दुरूपयोग के बरक्स भारत के सत्ता प्रतिष्ठान का मूल चरित्र पूर्ववत  है। सरकार का नेतत्व  बदल जाने के बावजूद शासन-प्रशासन की नीति -नियत - चाल-चरित्र -चेहरा यथावत है।भृष्ट उच्चाधिकारियों का रूप -गुण -स्वभाव  भी यथावत है। जब  तक  देश की जनता वर्ग चेतना से लेस होकर  किसी 'भव्य क्रांति' का शंखनाद नहीं करती ,तब तक इस  भृष्ट तंत्र के द्वारा सत्ताधारी नेता एवं  दल , राजनैतिक  ताश के  पत्तों की मानिंद यों ही फेंटे जाते  रहेंगे !श्रीराम तिवारी !  

सोमवार, 14 दिसंबर 2015



 मालूम होता है कि  कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी औरअध्यक्षा  सोनिया जी ने कांग्रेस को ही खत्म करने का बीड़ा उठाया है। ये माँ -बेटे जब -जब जो-जो  कहते और करते हैं उससे भाजपा नेताओं ,संघ परिवार व  मोदी सरकार को  अपनी खामियाँ  छिपाने का भरपूर अवसर मिलता रहता है। नेशनल हेराल्ड का मामला हो ,राबर्ट बाड्रा  का मामला हो ,ओमन चांडी  का मामला हो, या शैलजा  और  राहुल को तथाकथित मंदिर में प्रवेश का मामला हो ,कांग्रेस नेताओं का हर दाँव  उलटा पड़ रहा है। वे  निजी स्वार्थों की पूर्ती के लिए  देश की संसद को  भी बंधक बना रहे  हैं। अब  कोई  प्रगतिशील बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,विचारक  यदि  कांग्रेस नेताओं की इस  फितरत  पर  रंचमात्र एतराज न करे और केवल 'मोदी विरोध ' का खटराग गाता रहे या महज 'असहिष्णुता 'का  मर्सिया  ही पढता रहे ,तो देश में हिन्दुत्ववादी फासिज्म के अच्छे दिन क्यों नहीं आएंगे ? जरूर आयंगे ! और  विकास - सुशासन की  प्रचंड सुनामी के  अधिनायकवादी सैलाब आने पर तंत्र -मन्त्र सब धरा रह जाएगा।  तब 
कांग्रेस  की मनोदशा  कुछ इस तरह  होगी -  :-


जिन  दिन  देखे वे कुसुम ,गइ  सो बीत बहार।

अब अलि  रहो गुलाब में ,अपत कटीली  डार।।  [ बिहारी सतसई से साभार ] श्रीराम तिवारी 

रविवार, 13 दिसंबर 2015

पश्चिम बंगाल में जब सीपीएम का शासन रहा तब तक साम्प्रदायिक दंगे क्यों नहीं हुए ?



भारत में जिन लोगों ने धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र का झंडा मजबूती से थमा रखा है  और इन मूल्यों के लिए क़ुर्बानियाँ दे रहे हैं ,उनमे वामपंथी सबसे आगे हैं। इसके विपरीत जो लोग संविधान के मूल सिद्धांत-धर्मनिरपेक्षता समाजवाद  और लोकतंत्र को ध्वस्त करने की  निरंतर फिराक में रहते हैं ,उनमे घोर  जातीयतावादी और असहिष्णु -साम्पर्दयिकतावादी संगठन  सबसे आगे हैं। भारत राष्ट्र का चीर हरण करने वालों में  अकेले भृष्ट पूँजीपति और भृष्ट अधिकारी ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि  हिन्दू-मुस्लिम -सिख -ईसाई  सभी मजहब-धर्म के  धर्मांध  लोग  भी पर्याप्त रूप से जिम्मेदार  हैं।  भारतीय आधुनिक राजनीति में जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद का इस्तेमाल करने वाले स्वार्थी नेता और पार्टियाँ भी प्रकारांतर से एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। अब तक  कुछ लोग सिर्फ संघ परिवार या  हिन्दुत्ववादियों को ही 'असहिष्णुता' के लिए जिम्मेदार मानते रहे  हैं। लेकिन यह  अर्ध सत्य वाला पक्षपाती सिद्धांत ही है। संघ वाले वेशक पूँजीपतियों  के दलाल तो हो सकते हैं ,किन्तु  वे  देश के खिलाफ  तो अवश्य नहीं  हैं। जबकि ममता,मुलायम,लालू मेहबूबा व अन्य क्षेत्रीय नेताओं   की साम्प्रदायिक राजनीति  का कोई ओर -छोर ही नहीं है। यह एक तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक युक्ति नहीं कही जा सकती  कि केवल हिंदूवादी होने मात्र से किसी को साम्प्रदायिक या आईएसआईएस के बराबर खड़ा कर दिया जाए और सिर्फ मुसलमान होने मात्र से कोई देशद्रोही करार कर दिया जाए । सापेक्ष सत्य ही इस विषय में न्याय का अवलम्ब है।

 पाकिस्तानी मूल के लेखक और कनाडाई नागरिक तारिक फ़तेह के अनुसार -सीरिया ,ईराक ,तुर्की और मध्यपूर्व के इस्लामिक देशों पर आईएसआईएस की अराजक  और रक्तरंजित सत्ता का जबरजस्त असर है। सूडान,तंजानिया और उत्तर-मध्य अफ़्रीकी देशों में बोको हरम  का कहर है।यमन और इथोपिया में  अल -कायदा की पकड़  है। अफगानिस्तान और  सीमान्त पाकिस्तान में तालिवान की जकड़ है। हमास की फिलिस्तीन , इस्रायल ,जॉर्डन और लेबनान में पकड़  है। पाकिस्तान में आईएस की नापाक  पकड़ है। बँगला देश ,फिलीपींस ,उज्बेकिस्तान,कजाकिस्तान,तुर्कमेनिस्तान ,इजिप्ट, और सऊदी  अरब में सिर्फ और सिर्फ कटटरपंथी भटकाववादी इस्लामिक जेहादियों ने अमन पसंद आवाम का ,लोकतंत्र का और इंसानियत का गला दबोच रखा है। गैर इस्लामिक सन्सार में  संभवतः भारत ही एकमात्र अहिंसावादी,लोकतान्त्रिक और 'बहु सांस्कृतिकतावादी देश  है ,वे इस भृष्ट अफसरशाही और कायर नेतत्व वाले दुर्भाग्यशाली राष्ट्र  पर  निरंतर  कुदृष्टि जमाये हुए हैं। जिभारत में जिन लोगों ने धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र का झंडा मजबूती से थमा रखा है  और इन मूल्यों के लिए क़ुर्बानियाँ दे रहे हैं ,उनमे वामपंथी सबसे आगे हैं। इसके विपरीत जो लोग संविधान के मूल सिद्धांत-धर्मनिरपेक्षता समाजवाद  और लोकतंत्र को ध्वस्त करने की  निरंतर फिराक में रहते हैं ,उनमे घोर  जातीयतावादी और असहिष्णु -साम्पर्दयिकतावादी संगठन  सबसे आगे हैं। भारत राष्ट्र का चीर हरणकरने वालों में  अकेले भृष्ट पूँजीपति और भृष्ट अधिकारी ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि  हिन्दू-मुस्लिम -सिख -ईसाई  सभी मजहब-धर्म के धर्मांध  लोग  भी पर्याप्त रूप से जिम्मेदार  हैं।  भारतीय आधुनिक राजनीति में जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद का इस्तेमाल करने वाले स्वार्थी नेता और पार्टियाँ भी प्रकारांतर से एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।  किन्तु कुछ लोग सिर्फ हिन्दुत्ववादियों को ही जिम्मेदार मानते हैं, यह  तर्कपूर्ण और युक्तिपूर्ण नहीं है।

पाकिस्तानी मूल के लेखक और कनाडाई नागरिक तारिक फ़तेह के अनुसार -सीरिया ,ईराक ,तुर्की और मध्य पूर्व के इस्लामिक देशों पर आईएसआईएस की अराजक और रक्तरंजित सत्ता का जबरजस्त असरहै। सूडान, तंजानिया और उत्तर- मध्य अफ़्रीकी देशों में बोको हरम  का कहर बरस रहा है।यमन और इथोपिया में  अल-कायदा फुदक रहा   है। अफगानिस्तानऔर  सीमान्त पाकिस्तान में तालिवान  बमक रहा है। हमास की खूनी  होली  फिलिस्तीन , इस्रायल ,जॉर्डन और लेबनान में खेली जा रही  है। पाकिस्तान में आईएस की अजहर मसूद की ,हाफिज सईद की और दाऊद  इब्राहीम की प्रत्यक्ष सत्ता है। बँगलादेश  ,फिलीपींस ,उज्बेकिस्तान , चेचन्या कजाकिस्तान ,तुर्कमेनिस्तान ,इजिप्ट, और सऊदी  अरब में सिर्फ और सिर्फ कटटरपंथी इस्लामिक जेहादियों  की सत्ता हे।  इन देशों में लोकतंत्र का और इंसानियत का गला  घोंटा जा रहा है।

गैर इस्लामिक सन्सार में संभवतः भारत ही एकमात्र अहिंसावादी,लोकतान्त्रिक देश ऐंसा है जो इंडोनेशिया के बाद संसार की सर्वाधिक  मुस्लिम  बहुलता का देश है।  जहाँ मुसलमानों को इस्लामिक अधिकार तो हैं ही साथ ही  भारत के महानतम  लोकतान्त्रिक अधिकार भी उपलंब्ध हैं। दुनिया में शायद ही इतनी आजादी और मजहब की छूट किसी अन्य देश  में या किसी और मजहब को उपलब्ध  होगी ! जिसे यह सब नहीं दिख रहा वो या तो बेईमान है या फिर नीरा कूड़मगज है।  सत्य और न्याय के अभाव में सारी  प्रगतिशीलता और लोकतांत्रिकता
 महज  शाब्दिक लफ्फाजी है।  जिन्हे भारत के हिन्दुओं की कश्मीर ,बंगलादेश और पाकिस्तान में नहीं दिखती वे आँखों के  होते हुए भी नाबीना ही हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में  भारत  दुनिया का सबसे असुरक्षित और भृष्ट देश बन चुका  है। दुखी हिन्दुओं ने  जिन्हे अपना रक्षक  और तारणहार समझकर वोट दिए वे सिर्फ पूँजीवाद के भड़ैत  हैं। 

भारत की वर्तमान मोदी सरकार के काबू में कुछ भी नहीं है। न महँगाई  उनके काबू में है ,ना रुपये के लुढ़कना उनके काबू में है ,न दाऊद ,हाफिज सईद,अजहर मसूद उनके काबू में हैं ,न व्यापम -अभिशापम इनके काबू में है  न साम्प्रदायिक उन्माद इनके काबू में है, न कश्मीर उनके काबू में है ,न बड़बोले नेता -मंत्री  उनके काबू में है और न 'सबका साथ -सबका विकास 'उनके काबू में है। यह देश जितना भी चल रहा है अथवा सरवाइव कर रहा है, वह डार्विन के 'प्राकृतिक न्याय 'के  सिद्धांत अनुसार खुद ही गतिशीलऔर जीवंत  है। अधिकांस मुनाफाखोर स्वार्थी पूँजीपति, सट्टाखोर  व्यापारी ,रिश्वतखोर अफसर,मजदूरों का खून चूसने वाले ठेकेदार और भृष्ट नेता-अशक्त  मंत्री  इस राष्ट्र रुपी स्वर्ण कलश में अपने -अपने हिस्से का कूड़ा कर्कट भरे जा रहे हैं। जनता को  गलफहमी है  कि उनके राष्ट्र रुपी कुम्भ में अमृत भरा जा रहा  हैं।

 इन दिनों समूचे उत्तर भारत में और खास तौर से कश्मीर और बंगाल में तथाकथित जेहादियों ने खूब ऊधम मचा रखा है।ममता बनर्जी की साम्प्रदायिक राजनीति का चरम पतन देखकर संघी और आईएसआईएस वाले भी शर्मा रहे होंगे। कोलकाता के मटिया बुर्ज इलाके में स्थित तालपुर आरा मदरसे के हेड मास्टर क़ाज़ी मासूम अख्तर  और उनके छात्रों के साथ कटटरपंथी मुस्लिम भीड़ ने मारपीट की है! वजह सिर्फ इतनी कि मदरसे में  'राष्ट्रगान' क्यों गाया  जाता है ? खबर है कि  काजी साहब पर फर्जी इल्जाम लगाकर  उन्हें मदरसे से भी निकाल दिया गया है। ममता बनर्जी इस अन्याय पर चुप हैं ,क्योंकि  विधान सभा चुनाव होने वाले  हैं। शुद्ध टैक्टिकल पॉलिसी वाले  अल्पसंख्यक  वोट  ही तो उसका आधार है।  फर्ज करें कि  बंगाल में इस समय पाखंडी  ममता बनर्जी का नहीं  बल्कि सीपीएम का शासन है ,तो इस देशद्रोह के लिए [वन्दे मातरम न गाने देने के लिए ] अब तक  ममता बनर्जी ने सड़कों पर कई साड़ियां फाड़ दीं होतीं।  और दीदी के कई अनुजवत संघियों ने हावड़ा ब्रिज से कूंदकर जान दे दी होती या 'वामपंथ ' का फातिहा पढ़ डाला होता ! यह साम्प्रदायिक राजनीति का दोगलापन नहीं तो और क्या है ?

पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी सिर्फ बंगाल में ही क्यों सुनाई दे रही है ?वहाँ  तो इस्लाम की हिफाजत के लिए ममता बनर्जी मौजूद है। आजादी के बाद  पश्चिम बंगाल में जब सीपीएम का शासन रहा तब तक साम्प्रदायिक दंगे क्यों नहीं हुए? जब सीपीएम के शासन में हिन्दू-मुस्लिम बराबर के  साझीदार थे और किसी का धर्म -मजहब खतरे में नहीं था। तब हिन्दू मध्यमवर्ग और बुर्जुवा  मुसलमान ममता के साथ क्यों चले गए ? क्या  अब बंगाल में  हिन्दू -मुसलमान सुरक्षित हैं ?  यदि हाँ तो  मालदह जिले के कालियाचक इलाके में साम्प्रदायिक तनाव  क्यों है ?  पूरे बंगाल में हिंसा आगजनी क्यों हो रही है ?  केंद्रीय ग्रह मंत्री को आग बुझाने क्यों जाना पड़  रहा है ?

 बड़ी बिडंबना है कि भारत के वाम-जनवादी ,प्रगतिशील और  धर्मनिरपेक्षतावादी  लोग जो लगातार इन जाहिल  साम्प्रदायिक ताकतों से संघर्ष  रहे हैं, वे  ही क्रांतिकारी वामपंथी साथी  'संघ परिवार' और उनके उच्श्रंखल कूप-मण्डूकों  की आँखों में खटक रहे हैं। संकीर्ण मानसिकता के लम्पट उदंडों  को  लाल झंडा और वामपंथ  के नाम से बड़ी नफरत है।  मानों  उनकी कोई व्यक्तिगत खुन्नस हो !  उनकी इसी सनातन नफरत का नाम फासिज्म है। इन दिनों  पूरे बंगाल  में , खास तौर से कोलकता में ममता बनर्जी  के नमाज पढ़ते हुए पोस्टर लगे हुए हैं ।  देशभक्ति के ठेकेदारों को वह  नहीं दिखता ! यह जाहिर है कि अच्छी-बुरी जैसी भी हो किन्तु  भारत में कांग्रेस  , भाजपा और वामपंथ के पास अपनी-अपनी विचारधारा  तो अवश्य है। किन्तु  मुलायमसिंह,मायावती,लालू,और ममता बनर्जी को केवल  ही हाथ है। चूँकि  इन नेताओं के पास कोई विचारधारा नहीं है। क्योंकि  ये लोग मुस्लिम अल्पसंख्यक वोट बैंक के सहारे ही जिन्दा है।  यह सावित करने को हमारे पास कुछ नहीं। हमे नहीं मालूम कि कि भारत के हिन्दू संगठनों ने  भारत में या किसी भी इस्लामिक देश में ऐंसा क्या गजब ढाया कि  उन्हें इस्लामिक आतंक के समक्ष बराबरी पर खड़ा कर दिया। क्या आईएसआईएस या अल कायदा से आरएसएस की तुलना करना जायज है

 इस तथ्य के सैकड़ों प्रमाण हैं  की  सुन्दर-सुंदर हिन्दू-सिख-ईसाई युवतियाँ  -मुस्लिम राजनेताओं -खान्स  जैसे  फ़िल्मी अभिनेताओं  और दाऊद -अबु सालेम  जैसे जाहिलों  के झांसे में आकर उनकी अंकशायनी  होने  को मजबूर हो जाया करती  हैं। इसके उलट मुस्लिम युवतियाँ स्वेच्छा से  ही आईएसआईएस ,अल कायदा  , बोको -हरम  ,तालिवान और हमास के  मुस्लिम लड़ाकों को अपना यौवन सौंपने को बेताब हैं ! मजहबी इतिहास में शायद ही कोई प्रमाण  हो कि किसी  मुस्लिम युवती को किसी हिन्दू राजनेता ,हिन्दू उग्रवादी  नक्सलवादी  ने  कभी  बुरी नियत से देखा हो !  कहीं इसके मूल में 'लव जेहाद' ही न हो ! श्रीराम तिवारी