वाद,प्रतिवाद और संवाद:-द्वंदात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण:
हीगल के द्वंद्ववादी भाववादी विकास के अनुसार किसी द्रश्य,ध्वनि या अहसास से सर्वप्रथम मूलतः एक विचार प्रकट होता है,वह -वाद होता है।उस विचार के विरोध में एक दूसरा विचार आता है,वह- प्रतिवाद होता है।इस प्रतिवाद का भी विरोधी विचार आता है जिसमे वाद और प्रतिवाद दोनों के सकारात्मक गुण होते है,यह,,संवाद,,होता है।इसके आगे वह संवाद ही वाद बन जाता है!और फिर वाद ,प्रतिवाद,संवाद की अनंत कड़ियां बनती जुडती चली जाती हैं।और इस तरह सत्य का विस्तार होता चला जाता है।यह प्रक्रिया न चक्रीयहै न सीधीहै अपितु सर्पीली या टेढ़े मेढ़े रास्ते से आगे बढ़ती है।
मार्क्स के द्वंद्ववादी भौतिक वादी विकास मे भी यही तीन दशाएं होती हैं,किंतु उसका मूल 'विचार' नहीं है !वह पदार्थ या वस्तु या द्रव्य या ऊर्जा के नाम से भी जाना जाता है।यह वह सब है जो हमारे मन के बाहर स्वतन्त्र होकर भी हमारे मन को संवेदित करता है।वह कोई रंग शब्द या समाज की यथार्थ स्थिति भी हो सकती है।
उदाहरण के लिए,,,गेहूं का दाना 'वाद' है।वह स्वयं को समाप्त कर पौधे को जन्म देता है।यह प्रतिवाद है।पौधा स्वयम को समाप्त कर अनेक दानों को जन्म देता है।यह संवाद है।फिर वे दाने वही क्रिया करते हैं और पहले से बहुत अधिक दाने पैदा करते हैं।यह अनंत विकास की संभावनाएं रखता है।यह दानों के मात्रात्मक और गुणात्मक विकास की गत्यात्मकता में द्वंद्वात्मक अध्ययन भी है।
जर्मन दार्शनिक हीगेल और उनके विद्वान शिष्य कार्ल मार्क्स ने वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित इस यथार्थवादी दर्शन का मानवीयकरण कर संसार का अनुपम उपकार किया है!
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