सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों के कथन से एक सभ्यतामूलक दुविधा प्रकट हो गई है। वो यह कि जब कोई समाज उदार और समावेशी होता है, उसकी एक बौद्धिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि होती है, और सांस्कृतिक रूप से वह बहुलतावादी होता है, तो उसे क्रोध कम आता है। वह आहत भी इतना नहीं होता। यह उसका गुण है। किन्तु यह एक सभ्यतागत गुण है। यह रणनीतिक गुण नहीं है। और संसार सभ्यतामूलक मानदण्डों से नहीं चलता, यह आज भी अपनी प्रवृत्ति में क़बीलाई है और संख्याबल-बाहुबल से संचालित होता है।
शिनशियांग के मुसलमान चीनियों के अत्याचार के शिकार हैं, किन्तु चीन मुसलमानों के द्वारा इज़रायल जितना निंदित नहीं है। मुसलमान मध्य-पूर्व, यूरोप, हिन्दुस्तान में आक्रामक हैं। किन्तु अफ्रीका के मुसलमानों की दुनिया में उतनी ताक़त नहीं है- क्योंकि अफ्रीका में तेल नहीं है, मिट्टी है। हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के पास क्या है, सिवाय एक सॉफ्ट-पॉवर के? और जो हिन्दुस्तान है, उसके पास क्या है, सिवाय आर्थिक ताक़त और बौद्धिक संसाधन के? जो वह भी नहीं होती तो सोचो आज उसकी क्या गत होती?
यह तै है कि जो उदार सभ्यताएँ हैं, उन्हें बर्बर, हिंसक और असहिष्णु सभ्यताओं के हाथों पराजय और अपमान का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि बर्बर सभ्यताओं को न केवल ग़ुस्सा आया था उन्होंने ग़ुस्सा दिखाया भी था। उन्होंने हिंसा की, उन्होंने भीड़ जुटाई, और संख्याबल से संचालित होने वाली वैश्विक संस्थाओं ने उनकी हिंसा को मान्यता दी।
दूसरे शब्दों में उन्होंने उदार सभ्यताओं को यह संकेत दे दिया कि तुम क्यों नहीं असभ्य हो सके, तुमने क्यों नहीं हिंसा की, तुम क्यों नहीं सड़कों पर उतरकर उग्र हुए? अगर तुम भी उतने ही उग्र और हिंसक हुए होते तो तुम्हें भी संरक्षण दिया जाता। क्योंकि अब प्रश्न सत्य-असत्य, उचित-अनुचित का नहीं रह गया है, प्रश्न अब यह कि कौन कितनी संख्या में है और कौन कितनी ताक़त दिखा सकता है।
समस्या यह है कि जैसे एवॅल्यूशनरी बायलॉजी होती है, जिसे पीछे नहीं लौटाया जा सकता, वैसे ही सभ्यताओं का भी विकास-क्रम होता है, एक सोपान पर आने के बाद एक समाज चाहकर भी उतना क्रूर और हिंसक नहीं हो सकता, जितना कि उसका प्रतिद्वंद्वी है।
सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों ने कल जो कहा, उसका आशय यह नहीं था कि देश में किसी को किसी धार्मिक प्रतीक पर टीका-टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि वह अधिकार तो बहुत है- फ़िल्मों, किताबों, लेखों में उस अधिकार का सहर्ष उपयोग किया जाता है। एक महिला फ़िल्मकार ने कुछ समय पूर्व लेस्बियन सम्बंधों पर फ़िल्म बनाई तो मुख्य चरित्रों के नाम राधा और सीता रखे। अब यहाँ यह प्रश्न नहीं है कि समलैंगिक सम्बंध अच्छे हैं या बुरे और समलैंगिकों के नाम हिंदू पौराणिक चरित्रों के नाम पर रखने से किसी का अपमान हुआ या नहीं। यहाँ संदर्भ यह है कि एक कलात्मक स्वतंत्रता ली गई, जो कि लोकतंत्र ने उन्हें दी। उन्होंने प्रतीकों के चयन में विशेष रुचि का प्रदर्शन किया। उन्होंने एक निशाना साधा, उन्होंने एक कम्युनिटी को प्रोवोक किया। वो प्रोवोक हुए भी, किंतु उतने प्रोवोक नहीं हुए कि सर्वोच्च अदालत को कहना पड़ता कि फ़िल्मकार देश से माफ़ी माँगे, क्योंकि उनकी फ़िल्म से देश का माहौल ख़राब हुआ। तब देश को क्या संदेश गया?
किसी फ़िल्म में शिव को पब्लिक टॉयलेट में दिखाया गया, किसी चित्रकार ने देवियों के नग्न चित्र बनाए, किसी दलित चिंतक ने शिवलिंग का खतना किया, किसी ने उसे फव्वारा बताया, किसी ने हनुमान की हनीमून से तुक मिलाई- और यह सब बौद्धिक और कलात्मक स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक अधिकार के तहत किया गया। और चूँकि वह संविधान-सम्मत था- इसलिए इनके विरोध को वृहत्तर समाज ने मान्यता नहीं दी। समलैंगिक सम्बंधों पर बनी फ़िल्म, या देवियों के नग्न चित्र बनाने वाले चित्रकार का समाज के एक तबके ने उग्र विरोध ज़रूर किया, किन्तु समाज की मुख्यधारा ने उसे लताड़ा और एक मानदण्ड सामने रखा कि बोलने की आज़ादी एक बड़ी चीज़ है। उस पर इस तरह से प्रहार नहीं किए जा सकते।
फिर सर्वोच्च अदालत को क्या अधिकार था इस बिंदु पर आकर उस मानदण्ड को उलटने का? जिन्होंने संविधान को सर्वोपरि मानकर अभी तक उदारता दिखलाई, वे तो ठगे-से रह गए ना?
फ्रांस ने मानदण्डों के निर्वाह की एक निरन्तरता दिखलाई थी, जब उसने पैग़म्बर का चित्र बनाने वाले चित्रकार को राजकीय सम्मान दिया, उलटे उसकी दिवंगत आत्मा को यह कहकर कोसा नहीं कि तुम्हारी वजह से माहौल बिगड़ा- क्योंकि माहौल तो बिगड़ा था- और तुम इसके लिए माफ़ी माँगो। क्योंकि फ्रांस में जीज़ज़ क्राइस्ट पर भी व्यंग्यचित्र बनाए जाते हैं और ज़रूरत पड़ने पर वो हिंदू पौराणिक प्रतीकों का मखौल उड़ाने से चूकेंगे नहीं। हो सकता है, उससे किसी ईसाई या हिंदू को क्रोध आ जाए, किन्तु वो यह भी देख सकेगा कि यह टारगेटेड-प्रोवोकेशन नहीं है, उसमें एक कंसिस्टेंसी है। शार्ली हेब्दो सभी का मखौल समान रूप से उड़ा रहा है, क्योंकि कलात्मक आज़ादी है। और किसी समुदाय में अगर ईशनिन्दा का विचार है तो यह उसका अपना विचार है, यह वैश्विक विचार नहीं है। यह मानक दुनिया पर लागू नहीं होगा, दुनिया को उस मानक पर दण्डित नहीं किया जा सकेगा। सर तन से जुदा करने का हक़ वैश्विक नहीं है।
हम देख सकते हैं कि फ़ायर नामक फ़िल्म, मक़बूल के चित्र, शिवलिंग का खतना और हनुमान में हनीमून की ध्वनि तक भारत ने भी- फ्रांस या दूसरे सभ्य देशों की तरह- बौद्धिक और कलात्मक स्वतंत्रता के मामले में एक निरन्तरता का परिचय दिया। फिर नूपुर शर्मा के मामले में वह निरन्तरता बेपटरी क्यों हो गई? समाज की बौद्धिक मुख्यधारा और न्यायपालिका- जिसने अतीत में बोलने की आज़ादी के उन तमाम मानकों को सामने रखा था- अब बदले सुर में क्यों बोले? क्या वो बेईमान और झूठे थे? क्या वो मौक़ापरस्त थे? या क्या वे दबाव में आ गए? क्योंकि भीड़ ने- जिसमें केवल लोगों की ही भीड़ शामिल नहीं है, मुल्कों का समूह, वैश्विक नैरेटिव की ताक़त भी शुमार है- मुकम्मल दबाव बनाया। भीड़ ने क़बीलाई शैली में उग्र और हिंसक होकर भयादोहन किया। और समाज की मुख्यधारा ने- अपने फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के कथित मानदण्ड पर लज्जास्पद पलटी खा ली।
एक शब्द होता है इनवोकेशन। आह्वान। पुकार। सर्वोच्च अदालत के माननीय न्यायाधीशों ने कल समाज की उग्र और हिंसक चेतना को पुकारा है और स्पष्ट रूप से यह इशारा कर दिया है कि अपनी भावनाएँ आहत करके देश का माहौल ख़राब करने की ताक़त अगर दिखा सकते हो तो हम तुम्हें संरक्षण देंगे।
आज तमाम समाचार पत्रों ने इसे मुखपृष्ठ पर छापा है और मुख्यधारा के बौद्धिकों ने इसकी खुलकर सराहना की है। आतंक, हत्या और बर्बरता के इस प्रशस्तिगायन और इस बेशर्म बौद्धिक बेईमानी पर मेरा सिर अवमानना से झुक गया है।
जब आप नैरेटिव की लड़ाई हार जाते हैं, तो आप सबकुछ हार जाते हैं। लेकिन अगर आप अपने ही घर में वह लड़ाई हार जाएँ, तो आपसे बड़ा लूज़र कोई नहीं हो सकता।
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