साल पहले जब मैं ट्रेड यूनियन से जुड़ा और मार्क्सवाद लेनिनवाद से परिचित हुआ, उसमें नव दीक्षित हुआ,तब अति उत्साह में आकर,मै धर्मांधता और मजहबी पाखंड से लड़ने के लिए आंदोलनों में कूंद पड़ा! तब इन्दौर मिल एरिया में केवल वामपंथ का बोलबाला था!
पूंजीवादी राजनैतिक ताकतों से मजदूरो की मजदूरी दिलाने और साथ ही सर्वहारा क्रांति की उद्दाम तैयारी के बतौर तमाम धर्म साहित्य-रामचरितमानस,भगवद- गीता और वेदांत दर्शन उपनिषद इत्यादि ग्रंथ रद्धी में बेच दिये थे ! किंतु मैने जब महाप्राण निराला,महान मार्क्सवादी चिंतक विचारक राहुल सांकृत्यायन, डॉ रामविलास शर्मा, तत्कालीन सीपीएम महासचिव इएमएस नम्बूदिरीपाद, मैक्सिम गोर्की, सीपीआई महासचिव श्रीपाद अम्रत डांगे रोजा लक्जेमबर्ग,शिव वर्मा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर फिडैल कास्त्रो,चेग्वेरा, ग्राम्सी,गैरी वाल्डी तथा दुनिया के चुनिंदा क्रांतिकारियों को पढा,तो मुझे भारत के तमाम भाववादी लेखक ,कवि, साहित्यकार और प्राचीन-अर्वाचीन कवि भी प्रासंगिक उपयोगी और सार्थक लगे!
मैने अमीर खुसरो, कबीर, नानक,रेदास, रसखान,रहीम, केशवदास,गो. तुलसीदास इत्यादि तमाम साहित्यिक हस्तियों,कवियों और लेखकों को पुन: पढना शुरूँ किया ! ये भाववादी भक्तकवि वेशक क्रांतिकारी नही थे, किंतु वे कहीं से भी क्रांति विरोधी अथवा शोषण समर्थक नही लगे!ये तमाम कविऔर शायर सामंतवाद के खिलाफ हुआ करते थे!
गो.तुलसीदासजी ने तो बादशाह अकबर का आमंत्रण ठुकरा कर लिख भेजा थी -"संतन्ह कद कहाँ सीकरी सों काम"
अर्थात- सच्चे संत को राजभोग या सत्ता सुख से दूर रहना चाहिए!
तुलसीदास के महाकाव्य रामचरितमानस में कुछ अप्रिय प्रसंग अवश्य आते हैं ,किंतु वे कटु प्रसंग भी महाकाव्य के परिकल्पित मिथ ही हैं! ये तत्व यदि कवि के शिल्प में न होते तो हमें कैसे मालूम पड़ता कि अतीत में कैसे किसने किसका शोषण किया?
यदि कवि और शायर नकारात्मक अवयव त्यागकर केवल मीठा मीठा ही परोसते तो उनकी रचना अधूरी ही रह जाती,बिल्कुल 'बाणभट्ट की आत्मकथा' ki trah..
बाणभट्ट का साहित्य स्टेविया या गुड़मार बूटी की तरह है।जिसका स्वाद सबसे अलग और उसके हृदयंगम करने के बाद सब फीका लगता है।एक बात औऱ मार्क्सवाद की परंपरा में हमे इसकी भारतीय मुकुटमणि मानवेन्द्र राय को भी स्मरण करना चाहिए।हिंदी के सर्जकों में कबीर के …
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