घर से तो निकले थे खुशियों की बारात लेकर ,
इंसानियत के जनाजे में कैसे कब आ गए हम ?
चढ़े थे शिखर पर विहंगम उच्च विश्वास् लेकर ,
निराशा की खाई में क्यों कैसे कब आ गिरे हम ?
गरजते काले मेघ गाज गिराते नाजुक दरख्तों पै,
उन्ही की पनाहों में क्यों कैसे कब आ गए हम ?
सिस्टम में फर्क ही न रहा जब नीति -अनीति का ,
ऐंसी संगदिल महफ़िल में जाने क्यों आ गए हम ?
रोंदते हैं जो गंगा-जमुनी तहजीव को मुसलसल,
कौमी दुश्मनों के झांसे में कैसे कब आ गए हम ?
दांव पर लगती रहीं सदा जिस सभा में पांचालियां,
उस द्यूतक्रीडा की महफ़िल में कैसे आ गए हम ?
दे नहीं सकता हक हुक्मरां मूक लाचार निर्धनों को,
ऐंसे दंभ पाखंड की जद में कैसे कब आ गए हम ?
हैं वीरान भयानक भयावह अमानवीय अंधेरी जो,
उन विषधरों की वामियों में कैसे कब आ गए हम ?
-श्रीराम तिवारी
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