A Proud Son
... सन 74 की तस्वीर और अब 67 के पिताजी। आज कोरोना महामारी में उनककी जीवन चर्या, जो आज भी वैसी की वैसी है, को याद करता हूं। जो प्राणायाम लोगों ने टीवी से सीखा वह बहुत छोटी उम्र में पापा ने हमें सिखाया। आज भी पापा प्राणायाम और व्यायाम दोनों का नियमित अभ्यास करते हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा के होने की वजह से क्रांतिकारी विचार रहे और लोगों से बहुत विरोध भी झेला, लेकिन उसके बावजूद अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। सागर विश्वविद्यालय से पढ़ाई और गाडरवारा से करियर की शुरुआत। उसके बाद मजदूरों के सशक्त नेता और BSNL के लोकप्रिय कर्मचारी के तौर पर यश कमाया। अपने लेखन के शौक को जिंदा रखते हुए पुस्तके भी लिखते हैं और आज भी लेखन कार्य में सक्रियता बनी हुई है। ये पोस्ट लिखने का मकसद है आदर्शो की स्थापना। मैंने पत्रकारिता के जीवन में कई प्रतिष्ठित और वैभव संपन्न लोगों को देखा लेकिन पाया कि वह अधूरे से हैं। वही अपने पिता के जीवन को देखता हूं तो यह सत्य समझ में आता है कि आप छोटी जगह पर हो किसी भी स्तर के कर्मचारी हो आप अपने जीवन को सुंदर और संपन्न बना सकते हैं। पिताश्री जीवन भर आत्मनिर्भर रहे और आज भी आत्मनिर्भर है। आमतौर पर बेटों से ये उम्मीद की जाती है कि वह रिटायरमेंट के बाद अपने माता-पिता का ध्यान रखें लेकिन मुझ पर यह भार कभी नहीं आया क्योंकि आज भी मुझे ही पिताजी की आवश्यकता पड़ती है उन्हें मेरी नहीं। जब मैं उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूं तो वो यही कहते हैं कि तुम अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखो हम तुमसे बेहतर हैं। मैं सौभाग्यशाली हूं की मेरी ट्रेनिंग उनके अंडर हुई और अब अक्षत (अक्की) को वो सौभाग्य मिल रहा है। पिताश्री कम्युनिस्ट होते हुए वेदान्त के प्रकांड विद्वान हैं। उनका उन लोगों से हमेशा विरोध रहा जो कम्युनिस्टों को अनीश्वरवादी मानते हैं। पिताजी के बचपन के संघर्षों और उनके चमत्कारिक अनुभवों ने मुझमें आस्था जगाई। हनुमान जी और साई के साक्षात दर्शन करने वाले वो विरले व्यक्ति है वो भी तब जब वो मंदिरों में न के बराबर जाते हैं। अपने कुलदेवता ठाकुर बब्बा में उनकी अनन्य आस्था है और अपने जीवन की उपलब्धियों का श्रेय वो उन्हीं को देते हैं। उनके भी दर्शन पिताश्री को हुए है। ये सौभाग्य प्रारब्ध से ही संभव है। अपने सातों भाइयों के प्रति उनके मन में बहुत स्नेह और सम्मान है। चारों बहनों को वो पूजनीय मानते हैं। कमी सिर्फ एक है उन्हे दिखावा नहीं आता। जैसे हैं वैसे सामने रहते है जो कई लोगों को चुभता है। उनके क्रोध की वजह से उनके मित्र उन्हें दुर्वासा ऋषि भी कहते हैं। तात्पर्य स्पष्ट है ऋषि तो हैं पर दुर्वासा और परशुराम जैसे। जय ठाकुर बब्बा की। धन्य हूं ऐसे पिता पाकर।
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