हिन्दू और जैन धर्म बहुत बड़े अहिंसक और अपरिग्रहवादी रहे हैं। किन्तु उनका पूँजीवाद से भी बिचित्र नैसर्गिक अपनत्व का नाता रहा है। जबकि इस्लाम,ईसाई ,यहूदी,सिख और बौद्ध वाँग्मय में अपरिग्रह का नाम भी नहीं है! लेकिन मजदूर किसान और शोषित समाज के हितों की बेहद परवाह की गई है।
ईसाई धर्म में तो अनेक संत हुए जो सुतार -बढ़ई और चरवाहे थे। शायद यही वजह है कि इन पाश्चत्य धर्म मजहब में वैज्ञानिक आविष्कारों की गुंजायश बनी रही। जबकि हिन्दू और जैन धर्म में परम्परा से मुनि,ऋषि केवल अपरिग्रह पर बल देते रहे ,कुछ तो राजाओं और चक्रवर्ती सम्राटों के गुरु भी रहे! किन्तु जनता की लूट और शोषण को बंद कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ली!
जैन धर्मावलम्बी तो उच्चकोटि के विचारक अनेकांतावादी एवं स्यादवादी होते हुए भी अल्पसंख्यक जैन समुदाय से बाहर की अधिसंख्य जनता के दुखों को पूरब भव के कर्म के हवाले करते रहे। यही वजह है कि अधिकांस जनता जैन धर्म के उच्च सिद्धांतों और उसके सार्वभौमिक मनोरथों और मुक्तिकामी सद्विचारों से हमेशा वंचित रही।
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