बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर का प्रसिद्ध निबंध है ´बुद्ध और कार्ल मार्क्स´,इसमें आम्बेडकर ने बुद्ध के विचारों के बहाने धर्म की 25 सूत्रों में व्याख्या पेश की है। ये सूत्र अब तक विचार विमर्श के केन्द्र में नहीं आए हैं,इन सूत्रों पर वाद-विवाद-संवाद होना चाहिए।
ये 25 सूत्र हैं-´´1. मुक्त समाज के लिए धर्म आवश्यक है।2. प्रत्येक धर्म अंगीकार करने योग्य नहीं होता।3. धर्म का संबंध जीवन के तथ्यों व वास्तविकताओं से होना चाहिए, ईश्वर या परमात्मा या स्वर्ग या पृथ्वी के संबंध में सिद्धांतों तथा अनुमान मात्र निराधार कल्पना से नहीं होना चाहिए।4. ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।5. आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।6. पशुबलि को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।7. वास्तविक धर्म का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं।8. धर्म के केंद्र में मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो धर्म एक क्रूर अंधविश्वास है।9. नैतिकता के लिए जीवन का आदर्श होना ही पर्याप्त नहीं है। चूंकि ईश्वर नहीं है, अतः इसे जीवन का नियम या कानून होना चाहिए।10. धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं।11. कि संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है।12. कि संपत्ति के निजी स्वामित्व से अधिकार व शक्ति एक वर्ग के हाथ में आ जाती है और दूसरे वर्ग को दुःख मिलता है।13. कि समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि इस दुःख का निदान इसके कारण का निरोध करके किया जाए।14. सभी मानव प्राणी समान हैं।15. मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं।16. जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म।17. सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए।18. प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की।19. अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है।20. कोई भी चीज भ्रमातीत व अचूक नहीं होती। कोई भी चीज सर्वदा बाध्यकारी नहीं होती। प्रत्येक वस्तु छानबीन तथा परीक्षा के अधीन होती है।21. कोई वस्तु सुनिश्चित तथा अंतिम नहीं होती।22. प्रत्येक वस्तु कारण-कार्य संबंध के नियम के अधीन होती है।23. कोई भी वस्तु स्थाई या सनातन नहीं है। प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होती है। सदैव वस्तुओं में होने का क्रम चलता रहता है।24. युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है।25. पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं।´´
यानी हर धर्म स्वीकार करने योग्य नहीं होता।धर्म को चुनते समय क्या देखें यह आम्बेडकर ने उपरोक्त 25 सूत्रों में रेखांकित किया है।धर्म कोई बनी-बनायी व्यवस्था नहीं है,बल्कि उसे हर बार नए सिरे से अर्जित करना पड़ता है।धर्म को अर्जित करने के लिए धार्मिक होने की जरूरत नहीं है,बल्कि धर्म को देखने का वैज्ञानिक नजरिया अर्जित करने की जरूरत है। आम्बेडकर ने धर्म के जिन 25सूत्रों का जिक्र किया है उनमें धर्म को शाश्वत न मानने वाली बात बेहद रोचक है।धर्म के जितने भी रूप प्रचलन में हैं वे धर्म को शाश्वत मानकर चलते हैं।जबकि धर्म शाश्वत नहीं बल्कि परिवर्तनशील है।धर्म को परिवर्तनशील मानना अपने आपमें भौतिक जगत की सत्ता को महत्व देना है। धर्म का प्रमुख काम है मनुष्य को प्रसन्न रखना और स्वतंत्र रखना।जो धर्म यह काम करे वह स्वीकार्य है जो यह काम न करे वह अस्वीकार्य है। इन दिनों धर्म के नाम पर प्रतिस्पर्धा और घृणा का जमकर प्रचार हो रहा है।आम्बेडकर ने धर्म की इस भूमिका का निषेध किया है और रेखांकित किया है धर्म का मुख्य कार्य है मैत्री स्थापित करना।
धर्म पूजा या उपासना की चीज नहीं है बल्कि आचरण की चीज है।जो लोग धर्म को पूजा-उपासना की चीज मानते हैं उनके जीवन में धर्म की कोई भूमिका नहीं होती,वे धर्म को प्रचार प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।धर्म , प्रचार की नहीं ,आचरण की चीज है।धर्म आचरण में मिलता है।आचरण में ढालने का अर्थ है कि धर्म का कायाकल्प करना।
यह सवाल भी उठा है धर्म के केन्द्र में कौन है ॽ इन दिनों धर्म के केन्द्र में उपदेश हैं,राजनीति है,हिंसा है,अंधविश्वास हैं, मुनाफेखोरी है,संपत्ति संचय करने की प्रवृत्ति है,इन सभी चीजों का धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म के केन्द्र में मनुष्य को रहना चाहिए।मनुष्य को केन्द्र में रखे बिना धर्म बेहद खतरनाक भूमिका अदा करता है।धर्म के बर्बर होने के चांस बढ़ जाते हैं।धर्मनिरपेक्षता की भी यही मांग है कि धर्म के केन्द्र में मनुष्य को रखा जाय।धर्म को मानवीय रूप दिया जाय। धर्म का ईश्वर या उपासना से कोई संबंध नहीं है।धर्म का मूलाधार तो मनुष्य है,लेकिन अधिकांश लोग धर्म का आधार ईश्वर को मानते हैं।ईश्वर दासता की मनोदशा में बांधता है, जबकि मनुष्य दासता की मनोदशा से मुक्त करता है।धर्म को मानो लेकिन मनुष्य को उसके केन्द्र में प्रतिष्ठित करो।ईश्वर को केन्द्र से अपदस्थ करो।धर्म के केन्द्र में ईश्वर का होना बंधन है।मानसिक गुलामी है।जबकि मनुष्य को धर्म के केन्द्र में रखेंगे तो धर्म की भूमिका और चरित्र बदल जाएगा,धर्म मुक्ति और स्वतंत्रता का रूप ग्रहण कर लेगा।
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