महामाहेश्वर आचार्य अभिनवगुप्त का एक पद्य आज अचानक से याद आया, उस का भाव बिलकुल अमीर ख़ुसरो के एक अत्यंत प्रसिद्ध फ़ारसी शे'र जैसा है और तभी अचानक श्री फ़िराक़ का भी शे'र चमक उठा। फिर अचानक से एक बॉलीवुड का पुराना गाना मन में कौंध उठा ! अब जब उस गाने पर ध्यान लगाया तो पूरा का पूरा काश्मीर शैवदर्शन उसके भावों से फूट पड़ा।
आनन्द आता है कि ज्ञान का यह पारम्परिक प्रवाह कैसे हर युग में अपनी अक्षुण्णता को बनाये रखता है । अब आप लोग ये समझ लेंगे कि मैं हर जगह काश्मीर शैवदर्शन को ले आता हूँ,,, तो भाई क्या करूँ,, जब मुझे हर बात में वह दिख जाता है,, आचार्य की कोई न कोई बात कौंध उठती है! ख़ैर आप लोग इन दोनों का रसास्वादन करें:---
1- अहं त्वं त्वमहं चेति भिन्नता नावयो: क्वचित् ।
समाधिग्रहणेच्छाया भेदस्यावस्थितिह् र्यसौ।।
--महोपदेशविंशतिकम् -6-
अर्थात् "मैं तुम हो और तुम मैं हूँ । इस प्रकार हम दोनों में कोई भेद नहीं है। समाधिग्रहण (परम् चेतना से मिलन) से मिलन की इच्छा वाले के लिए यह भेद की स्थिति होती है।"
अब श्री अमीर ख़ुसरो का वह दिलकश और अति प्रसिद्ध शे'र देखिये :--
मन तू शुदम तू मन शुदी मन तन शुदम तू जान् शुदी।
ता कस न गूयद बाद अज़ीन् मन दीगरम तू दीगरी ।।
अर्थात् "मैं तुम हो गया, तुम मैं हो गए, मैं शरीर हो गया तुम प्राण हो गए। अब कोई यह नहीं कह सकेगा कि मैं कोई दूसरा हूँ और तुम कोई दूसरे हो"
हालांकि आचार्य अभिनवगुप्त ने इस अवस्था को भी भेद ही माना है। यानी श्री ख़ुसरो का ये अभेद अभी भी पूर्ण अभेद नहीं है। हालांकि सूफ़िया में यहीं पर पूर्ण अभेद मान लिया गया है। जो कि वेदांत की तरह है। परंतु काश्मीर शैवदर्शन इससे एक चरण ऊपर अभेद मानता है।
ख़ैर, ये सब यहाँ इष्ट नहीं है।
अभेद की इसी बात को आगे चलकर फ़िराक़ साहब ने कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है:--
न भेद ये हुस्न का खुल सका न भरम ये इश्क़ का मिट सका
किसी भेस में ये है तू के मैं किसी रूप में ये हूँ मैं के तू
ये दोनों शे'र उसी आगम परम्परा के अनुयायी हैं जो काश्मीर में पल्लवित हुई, जिसमें क्षुद्र अहंकार को पूर्ण अहन्ता में निमज्जित (डुबो) कर देना है। ख़ैर उसपर अधिक नहीं जाना है। (यहां पर्यन्तपञ्चाशिका ग्रन्थ की पंक्ति कौंध रही है) ख़ैर...
ऐसे ही जब जब मैं रफ़ी साहब का गाया, मजरूह साहब का लिखा यह गाना सुनता हूँ कि "तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
ये उठें सुबह चले,ये झुकें शाम ढले,
मेरा जीना, मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले।।"
तब तब मुझे काश्मीर शैवदर्शन के एक आगम ग्रन्थ "नेत्र-तंत्र जिसका अपर नाम मृत्युजंय भट्टारक" भी है उसकी याद आती है, वह भी नेत्र के माध्यम से ही सब कुछ समझाने का कार्य करता है। पर इससे अधिक इस गाने का आनंद मुझे तब मिलता है जब मैं काश्मीर शैवदर्शन के सबसे अधिक प्रासङ्गिक शब्दों :- "उन्मेष और निमेष" को देखता हूँ। सामान्य शब्दों में उन्मेष का अर्थ आँखों का खुलना(पलकों का उठना) और निमेष का अर्थ आँखों का मुंदना होता है। काश्मीर शैवदर्शन में परमशिव का उन्मेष (पलकों का उठना) ही इस समस्त भेदपूर्ण चराचर जगत का उतपन्न होना है अर्थात सुबह होना है ,मतलब नई शुरुआत अर्थात नवीन सृष्टि यानी:- "ये उठें सुबह चले!"
इसी तरह निमेष (पलकों का झुकना/मुंदना) ही काश्मीर शैवदर्शन में विलय की स्थिति मानी गयी है यानी :- "ये झुकें शाम ढले" । जैसे शाम में हर वस्तु धुंधली होने लगती है और अंततः सबकुछ एक शांत अँधेरे में विलय हो जाता है। ऐसे ही परमशिव का निमेष अर्थात सभी वस्तुओं का अपने अपने कारण में विलय होते हुए परमकारण में समाहित हो जाना। वास्तव में ये पलकों का उठना ही उदय है और पलकों का झुकना ही विलय है। इसी को उन्मेष निमेष के रूप में कहा गया है। और इस प्रलय और उदय के ही बीच हम जीते मरते हैं ,यानी:- "मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले" (पूरा गाना घटित हो गया शैवदर्शन में)
(यस्योन्मेष निमेषाभ्याम् जगतः प्रलयोदयो! :- स्पंदकारिका ग्रन्थ की ये बात,,,और, इसी तरह ईश्वर प्रत्यभिज्ञाकारिका ग्रन्थ में:- ईश्वरो बहिरुन्मेषो निमेषोन्तः सदाशिवः) ख़ैर उन्मेष निमेष पर तो बहुत कुछ कहा जा सकता है। मेरा मतलब सिर्फ यही था, कि परावाणी(supreme speech) हर ध्वनि हर शब्दन में अपने को प्रकट कर रही है, हमें बस उसपर ध्यान देने की आवश्यकता है,चाहे वो फ़िल्मी गाना हो या कोई गम्भीर साहित्य,, आखिर सब वैखरी ही तो है, और वैखरी तभी तो है जब उसने (परावाणी ने) विखर अर्थात शरीर धारण कर लिया है शब्दों का। आख़री में अपना एक टूटा फूटा शे'र कहना चाहूंगा:--
है निहाँ हर शख़्स के सीने में कोई आसमाँ
पढ़ सको तो इस जहाँ का ज़र्रा ज़र्रा है किताब
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