अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतं अश्नुते।(ईशावास्य उपनिषद्)।
अविद्या और विद्या-दोनों का एक साथ ज्ञान आवश्यक है।इसी उपनिषद् के अनुसार ,जो
केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे नरक में जाते हैं।और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे और भी गहरे नरक में जाते हैं।
अविद्या से यहां आशय वह सभी information है जिससे लौकिक जीवन को सुविधापूर्ण, सुरुचिपूर्ण,व्यवस्थित बनाया जा सके।विद्या से आशय अध्यात्मविद्या है जिसका उद्देश्य आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान की अनुभूति है जिसके बिना मानव जीवन निरर्थक है।
रावण के पास अध्यात्मविद्या नहीं थी जिसकी प्राथमिक शर्तें हैं:
विवेक, वैराग्य,षट्संपत्ति और मुमुक्षा।
भारत की गलती यह हुई कि अध्यात्म पर जोर कुछ ज्यादा हो गया।भारत की श्रेष्ठ प्रतिभा फिलासफी में जरूरत से ज्यादा उलझ गई और उसका उद्देश्य भी दूसरे मतों का खंडन रहा;एक तरह से यह self-aggrandisement (अहम्मन्यता के पोषण) के गलत रास्ते पर जाना था।
ओशो का संदेश:"Zorba,the Buddha" ईशावास्य उपनिषद् के संदेश को ही व्यावहारिक जामा पहनाना है।
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